देश के मशहूर पत्रकार व ‘द प्रिन्ट’ के प्रधान संपादक
शेखर गुप्त ने आज के दैनिक भास्कर में लिखा है कि ‘राजनीतिक इतिहास देखें तो भरोसेमंद दिग्गजों ने
--इंदिरा गांधी के खिलाफ जगजीवन राम और राजीव के खिलाफ वी.पी.सिंह ने क्रमशः 1977 और 1988-89 में समीकरण बदले थेे।’
वी.पी.सिंह के मुतल्लिक तो शेखर जी की बात सही है,पर जग जीवन राम के बारे में नहीं।
1989 में चंद्र शेखर जी जब छपरा में अपना नामांकन पत्र दाखिल करने गए थे तो वहां के लोगों ने पहले उनसे यह वचन लिया कि आप जीत कर वी.पी.सिंह को ही प्रधान मंत्री बनाएंगे,तभी उन्हें नामंाकन पत्र दाखिल करने दिया।
चंद्रशेखर जी उस समय उत्तर प्रदेश के बलिया के साथ- साथ बिहार के महाराजगंज से भी विजयी हुए थे।
पर, बिहार के बलिया की कहानी दूसरी रही ।
बलिया से जगजीवन राम ने 1977 में अपनी समधिन सुमित्रा देवी को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ा कर दिया था।
श्याम नंदन मिश्र के लिए बेगूसराय में चुनाव सभा थी।वहां जगजीवन बाबू उनके प्रचार मंे गए थे। अपने भाषण में जैसे ही जग जीवन बाबू ने अपनी समधिन के चुनाव चिन्ह की चर्चा करके उनके लिए वोट मांगा,बड़ी चुनाव सभा में भारी हंगामा हो गया।
बेगूसराय के बगल में ही बलिया लोक सभा क्षेत्र है।चाहते हुए भी जन रोष को देखते हुए जगजीवन बाबू बलिया में सुमित्रा देवी के लिए चुनाव सभा नहीं कर सके थे।
अधिकतर लोग जनता पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार के पक्ष में थे।
वहां से जनता पार्टी के उम्मीदवार राम जीवन सिंह थे और वे भारी मतों से जीते । सुमित्रा देवी की जमानत जब्त हो गयी।उन्हें सिर्फ 31 हजार मत मिले।
इससे पहले भी एक ड्रामा हुआ।
नामांकन पत्र दाखिल हो जाने के बाद जगजीवन बाबू ने बंबई जाकर जसलोक अस्पताल से जनता पार्टी के पटना आफिस को जेपी की ओर से तार भिजवा दिया।उसमें जेपी ने कहा था कि बलिया से जनता पार्टी के उम्मीदवार को सुमित्रा देवी के पक्ष में बैठा दिया जाए।
पर जन भावना को देखते हुए जेपी की बात नहीं मानी गयी जबकि सर्वोदय वाले ही राज्य पार्टी के इंनचार्ज थे।
अंतिम समय में जग जीवन राम के कांग्रेस छोड़ने के कारण थोड़ा मनो वैज्ञानिक असर जरूर पड़ा,किन्तु वोट की दृष्टि से कोई फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि आपातकाल के अत्याचारों के कारण अधिकतर लोगों ने इंदिरा जी की पार्टी को हराने के लिए पहले ही मन बना लिया था।
1988-89 की स्थिति बिलकुल अलग थी।
शेखर गुप्त ने आज के दैनिक भास्कर में लिखा है कि ‘राजनीतिक इतिहास देखें तो भरोसेमंद दिग्गजों ने
--इंदिरा गांधी के खिलाफ जगजीवन राम और राजीव के खिलाफ वी.पी.सिंह ने क्रमशः 1977 और 1988-89 में समीकरण बदले थेे।’
वी.पी.सिंह के मुतल्लिक तो शेखर जी की बात सही है,पर जग जीवन राम के बारे में नहीं।
1989 में चंद्र शेखर जी जब छपरा में अपना नामांकन पत्र दाखिल करने गए थे तो वहां के लोगों ने पहले उनसे यह वचन लिया कि आप जीत कर वी.पी.सिंह को ही प्रधान मंत्री बनाएंगे,तभी उन्हें नामंाकन पत्र दाखिल करने दिया।
चंद्रशेखर जी उस समय उत्तर प्रदेश के बलिया के साथ- साथ बिहार के महाराजगंज से भी विजयी हुए थे।
पर, बिहार के बलिया की कहानी दूसरी रही ।
बलिया से जगजीवन राम ने 1977 में अपनी समधिन सुमित्रा देवी को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ा कर दिया था।
श्याम नंदन मिश्र के लिए बेगूसराय में चुनाव सभा थी।वहां जगजीवन बाबू उनके प्रचार मंे गए थे। अपने भाषण में जैसे ही जग जीवन बाबू ने अपनी समधिन के चुनाव चिन्ह की चर्चा करके उनके लिए वोट मांगा,बड़ी चुनाव सभा में भारी हंगामा हो गया।
बेगूसराय के बगल में ही बलिया लोक सभा क्षेत्र है।चाहते हुए भी जन रोष को देखते हुए जगजीवन बाबू बलिया में सुमित्रा देवी के लिए चुनाव सभा नहीं कर सके थे।
अधिकतर लोग जनता पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार के पक्ष में थे।
वहां से जनता पार्टी के उम्मीदवार राम जीवन सिंह थे और वे भारी मतों से जीते । सुमित्रा देवी की जमानत जब्त हो गयी।उन्हें सिर्फ 31 हजार मत मिले।
इससे पहले भी एक ड्रामा हुआ।
नामांकन पत्र दाखिल हो जाने के बाद जगजीवन बाबू ने बंबई जाकर जसलोक अस्पताल से जनता पार्टी के पटना आफिस को जेपी की ओर से तार भिजवा दिया।उसमें जेपी ने कहा था कि बलिया से जनता पार्टी के उम्मीदवार को सुमित्रा देवी के पक्ष में बैठा दिया जाए।
पर जन भावना को देखते हुए जेपी की बात नहीं मानी गयी जबकि सर्वोदय वाले ही राज्य पार्टी के इंनचार्ज थे।
अंतिम समय में जग जीवन राम के कांग्रेस छोड़ने के कारण थोड़ा मनो वैज्ञानिक असर जरूर पड़ा,किन्तु वोट की दृष्टि से कोई फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि आपातकाल के अत्याचारों के कारण अधिकतर लोगों ने इंदिरा जी की पार्टी को हराने के लिए पहले ही मन बना लिया था।
1988-89 की स्थिति बिलकुल अलग थी।
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