शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

 आज न सिर्फ एक नेता दूसरे को चोर,कुत्ता और नीच 
कह रहा है,बल्कि एक टी.वी.एंकर दूसरे एंकर को गुंडा भी कह रहा है।
साठ के दशक से राजनीति व मीडिया को देख-समझ रहा हूं।राजनीति की शब्दावली में भले पहले  इतनी ‘नीचता’ न थी,पर मीडिया को तो हर दम बंटा हुआ ही देखा।
बिहार के जेपी आंदोलन के दौरान मीडिया बंटा हुआ था।
बोफर्स प्रकरण के दौरान भी वही हाल था।आपातकाल तो अपवाद था।उस समय तो सब धान साढ़े बाइस पसेरी था।
याद कीजिए साठ -सत्तर के दशक को और बंबई के ब्लिट्ज और करंट के तेवर को।दोनों साप्ताहिक टैबलाॅइड।
  एक घोर वामपंथी तो दूसरा घनघोर दक्षिणपंथी।
वह भी शीत युद्ध के जमाने में।
एक चिग्घाड़ता था तो दूसरा फुफकारता था।
मैं तो दोनों को जोड़कर पहले दो से भाग देता  था, फिर सही खबरों तक पहुंचता  था।जिस तरह आज भी परस्पर विरोधी तेवर वाले चैनलों को यदा कदा देख लिया करता हूंं।
 दैनिक अखबारों का भी तब कमोवेश वही हाल था,पर शालीनता लिए हुए।
वैसे कुल मिलाकर सरकार समर्थक अखबार ही पहले भी  अधिक थे।
सोशलिस्टों-कम्युनिस्टांे की शिकायत रहती थी कि अखबार उन्हें बहुत कम जगह देते हैं।
 खैर जब बारी-बारी से गैर कांग्रेसी सरकारें भी केंद्र व राज्यों में सत्ता में आने लगीं तो थोड़ा -बहुत सभी दलों को कवरेज मिलने लगा।
अब जब इस अर्थ युग में राजनीति का यह हाल हो चुका है तो उससे अलग मन मिजाज वाली मीडिया की उम्मीद ही क्यों कर रहे हैं आप ? अपवाद तो हर जगह होते हैं।
   


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