रविवार, 28 अक्तूबर 2018

चुनाव के ऐन पहले दल छोड़ने वाला जन हितैषी कत्तई नहीं



अगला लोक सभा चुनाव करीब आता जा रहा है।
राजनीतिक तैयारियां शुरू हो गयी हैं।राजनीतिक दल सक्रिय हो उठे हैं।मोर्चेबंदी की कोशिश जारी है। 
टिकटार्थियों के दिलों की धड़कनें बढ़ने लगी हैं।
किसका टिकट कटेगा ? किसका बचेगा ? कुछ कहा नहीं जा सकता।
 राजनीतिक दलों के बनते -बिगड़ते आपसी रिश्तों  के बीच यह सब और भी अनिश्चित हो जाता है।इस बार कुछ ज्यादा ही।
  पर एक बात निश्चित है।टिकटार्थियों की तीव्र इच्छाएं पहले की तरह ही स्थायी और अटल हैं।
वे कहीं न कहीं से टिकट लेकर ही रहेंगे।
इस बात को लेकर उनमें से कई आश्वस्त लग रहे हैं।
अधिकतर टिकटार्थियों के  दिल ओ दिमाग पर न तो किसी राजनीतिक  सिद्धांत का
बोझ है और न किसी नेता के प्रति कोई स्थायी लाॅयल्टी है।
बस एक ही लक्ष्य है किसी तरह टिकट मिल जाए।वह भगवान मिलने से थोड़ा ही कम है।
यदि टिकट न भी मिलेगा तो निर्दलीय उम्मीदवार तो बनेंगे ही।
चांस लेने मेंें क्या हर्ज है ?
वैसे भी आज के अनेक नेताओं को भला किस चीज की कमी है ? एक कहावत है, ‘एक त भोजपुरिया,दोसरे जवान,तीसरे भइल साढ़े तीन सौ मन धान !’
अब के बांह रोकी ?
कहावत भले भोजपुर की है,पर ऐसे टिकटार्थी राज्य भर कौन कहे, देश भर में फैले हुए हैं।
 अब बताइए ऐसे नेता  देश-प्रदेश का कितना भला करेंगे और कितना अपना ? 
जनता सब जानती है।
-- चुनाव से छह माह पहले छोड़ें दल--
कुछ लोगों की आदत है कि वे सिगरेट के आखिरी कश तक उसका  मजा लेते हैं या लेना चाहते हैं।
मान लीजिए कि कोई व्यक्ति  एक दल से विधायक या सांसद हैं।पर  अगली बार वे किसी अन्य दल से  चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं ।क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि उनकी पार्टी उन्हें अगली बार  टिकट नहीं देगी।फिर तो उन्हें चुनाव से कम से कम छह माह पहले सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे देना चाहिए।यदि राजनीति में नैतिकता बची है तो वह यही कहती है।
इससे उनकी खुद की छवि निखरेगी।साथ ही उस पार्टी का उन पर उपकार कम होगा जिस दल से गत बार जीत गए थे।
साथ ही, कुछ लोगों को यह भी लगेगा कि जन प्रतिनिधि ने वैचारिक मतभेद के कारण पहले ही पार्टी छोड द़ी है।इसका लाभ उन्हें चुनाव में मिल सकता है।
   यदि ऐसा कोई नहीं करता है तो चुनाव आयोग ऐसे नेताओं को चुनाव लड़ने की इजाजत न दे सके,ऐसा कानून बनना चाहिए ।दल बदलू कम से कम एक चुनाव न लड़ सकें,ऐसी कानूनी व्यवस्था हो जाए।
 इससे दल बदल को हतोत्साहित किया जा सकेगा।लोकतंत्र स्वस्थ बनेगा।
पर यह तो आदर्श स्थिति है।क्या ऐसी आदर्श स्थिति के लिए हमारे देश के राजनीतिक दल आज तैयार हैं ?
शायद नहीं।फिर भी यह यहां लिखा गया ताकि कोई यह न कहे कि दल बदलुओं को हतोत्साहित करने के लिए माकूल सुझाव नहीं आ रहे थे।
इससे बेहतर भी कोई सुझाव हो सकता है।
दरअसल भ्रष्टाचार के बाद दल बदल ने हमारी राजनीति को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया है।
--यू.पी.रेरा की पहल-- 
  अब उत्तर प्रदेश में नियम भंजक  बिल्डरों और काॅलोनाइजर्स के खिलाफ घर बैठे शिकायत दर्ज करा देने की सुविधा आम लोगों को मुहैया करा दी गयी है।
उत्तर प्रदेश भू संपदा विनियामक प्राधिकार यानी यू.पी.रेरा ने 
इस काम के लिए इसी बुधवार को  मोबाइल एप की
शुरूआत की है।
 देश में ऐसी व्यवस्था पहली बार उत्तर प्रदेश में की गयी है।
कुछ  मामलों में कभी कभी बिहार भी अव्वल रहता है।इस मामले में बिहार सेकेंड स्थान पर तो रहे ! यहां भी ऐसी व्यवस्था जरूरी है।
--पटना साइंस काॅलेज की दुर्दशा-- 
खबर है कि पटना साइंस काॅलज की प्रयोगशाला के लिए  दशकों से न तो किसी उपकरण की खरीद हुई है और न ही रसायन की।इस मद में उसे पैसे ही नहीं मिले।
एक जमाने में हम बिहार के लोग साइंस कालेज पर गर्व करते थे।साइस काॅलेज में नाम लिखाने की मेरी हसरत पूरी नहीं हो सकी थी क्योंकि मेरे अंक कम थे।
अब ताजा हाल देखिए। सबसे शर्मनाक बात यह है कि ऐसी महान संस्था को डूबते हुए हमारे सारे हुक्मरान व अन्य लोग देखते रहे।
दशकों तक मैं रिर्पोंटिंग में रहा।ऐसे मुद्दों को लेकर धरना देते किसी नेता को नहीं देखा।हां, इस बात के लिए हंगामा करते जरूर देखा है कि शिक्षकों की  जांच परीक्षा क्यों हो रही है ?
वे किस तरह पढ़ा रहे हैं,उसे देखने अफसर स्कूलों में क्यों जा
रहे हैं ? 
--ग्लोबल पोजिसनिंग सिस्टम के लाभ-- 
कल पटना में चोर ने मोटर साइकिल की चोरी तो कर ली,पर उसे पता ही नहीं था कि वह  जी.पी.एस.से लैस था।
नतीजतन चोर पकड़ा गया ।क्योंकि मोटर साइकिल के मालिक ने अपने मोबाइल से उसे तत्काल लाॅक कर दिया।
 यानी जी.पी.एस. तो सी.सी.टी.वी .कैमरे की तरह ही उपयोगी है।
 यदि कार,मोटर साइकिल और बस-ट्रक के रजिस्ट्रेशन के साथ ही जी.पी.एस.की अनिवार्यता जोड़ दी जाए तो इससे तरह -तरह के अपराध रोकने में भी मदद मिल सकती है।
 --भूली बिसरी याद--
इस बार वैसी हस्तियों के बारे में जिनका जन्म अक्तूबर में हुआ था।
फिल्म अभिनेता अशोक कुमार से शुरू करें।
धारावाहिक ‘महाभारत’ के अभिनेता सुरेंद्र पाल को अशोक कुमार बेटा कहते थे।क्योंकि एक फिल्म में सुरेंद्र पाल ने उनके बेटे की भूमिका निभाई थी।
अशोक कुमार उर्फ दादा मुनि ने सुरेंद्र पाल से कहा था कि ‘बेेटा, इस लाइन में सबसे बड़ी पूंजी है धैर्य।
इसे मत खोना किसी भी हाल में।
हम जब आए थे,तब हमें न तो संवाद बोलना आता था ,न सीन देना,न शाॅट देना।एक्टिंग भी ढंग से नहीं आती थी।लोग मजाक उड़ाते थे।पर सब धीरे -धीरे आ गया।’वैसे दादा मुनि की बात अन्य पेशों पर भी लागू होती है।
एक बार डा.लोहिया ने जेपी से कहा ,आप अपनी राय तो कभी बताते ही नहीं।
सिर्फ दूसरों की सुनते हैं।इस पर जेपी हंस कर बोले,‘सबको साथ लेकर चलना है तो सबकी राय सुननी चाहिए।अगर शुरू में ही मैं अपनी राय दे दूं तो लोग अपनी राय देने में संकोच करेंगे।’
 विधायक या सांसद बनते ही अनेक नेता अपने ‘रहने -खाने’ की व्यवस्था पहले ही कर लेते रहे हंै।आजादी के बाद से ही 
यह प्रवृत्ति शुरू हो गयी थी।मंत्री बन जाने के बाद तो वह प्रवृत्ति और जोर पकड़ लेती है।और ऊपर जाने पर तो पूछिए मत।
पर लाल बहादुर शास्त्री में आखिर क्या बात थी जिसने  उन्हें उस ओर कभी प्रेरित नहीं किया ?
शास्त्री जी प्रधान मंत्री थे,तभी उनका निधन हो गया।
पर तब तक मकान के नाम पर उनके पास मात्र खपरैल पुश्तैनी मकान था ।वह मकान बनारस-मिर्जा पुर मार्ग पर राम नगर कस्बे में था।बनारस से 18 किलोमीटर दूर स्थित वह  मकान  1966 में भी जीर्ण -शीर्ण ही था।किसी नेता में वह प्रवृत्ति कहां से आती है कि जुगाड़ रहने पर भी वह अपने रहने -खाने जैसी बुनियादी जरूरतों को भी नजरअंदाज कर देता है ?
आज तो उसके विपरीत वाली  राक्षसी प्रवृत्ति ही अधिक देखी जा रही है। 
    --और अंत मंे-
भारत में प्रति व्यक्ति अलकोहल की खपत 2005 में जहां 2 दशमलव 4 लीटर थी,वहीं 2016 में 5 दशमलव 7 लीटर हो गयी ।यह आंकड़ा बढ़ कर कहां तक जाएगा ?
अलकोहल की बुराइयों को कौन नहीं जानता ?
जो शराब पीता है, वह भी जानता है।
@26 अक्तूबर, 2018 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@ 


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