शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

बरकरार हैं कांग्रेस की चुनौतियां -- सुरेंद्र किशोर
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विधान सभा के चुनाव नतीजे कांग्रेस के राष्ट्रीय
स्तर पर कायाकल्प के कोई ठोस संकेत नहीं दे रहे हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत तब माने जाते जब हरियाणा के ही अनुपात में उसे महाराष्ट्र में भी सीटें मिलतीं।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 
 जहां महाराष्ट्र में वह चैथे नंबर पर जाकर टिकी है,वहीं हरियाणा में उसके प्रदर्शन में राष्ट्रीय नेतृत्व का योगदान मुश्किल से ही नजर आता है।
  निःसंदेह इसके साथ इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भाजपा का जहां महाराष्ट्र में दबदबा कम
हुआ, वहीं हरियाणा में वह बहुमत से पीछे रही।
 क्या यह एक गैर जाट को मुख्य मंत्री बनाने के भाजपा के प्रयोग की विफलता की निशानी है ?
जो भी हो,लोकतंत्र प्रेमियों के लिए यह कोई संतोष की बात नहीं है कि प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी, क्षेत्रीय उम्मीदों एवं पहचान की राजनीति के बल पर ही जिंदा रहे।
 आज प्रतिपक्ष जितना कमजोर और दिशाहीन है,उतना इससे पहले कभी नहीं था।
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छी बात नहीं है। 
पर, इस स्थिति के लिए खुद कांग्रेस ही जिम्मेदार है।
बीते लोकसभा चुनाव में करीब 12 करोड़ मत हासिल करने के बावजूद कांग्रेस यदि फिर से राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत पार्टी के रूप में उभरती नहीं दिख रही तो यह अकारण नहीं है।
समस्या कांग्रेस की काया में नहीं बल्कि उसकी आत्मा में है।
 वर्ष 2014 में हुए आम चुनाव के पहले सलमान खुर्शीद ने कहा था कि ‘राहुल गांधी हमारे सचिन तेंदुलकर हैं।
पर अभी हाल में उन्होंने कहा कि ‘हमारे नेता ने हमें छोड़ दिया।’
उनके हिसाब से राहुल हमें पुनः सत्ता दिलवा सकते हैं ,लेकिन उन्हें महाराष्ट्र और हरियाणा में पार्टी की जीत की संभावना नहीं दिख रही थी।
  पिछले वर्षों में जब -जब  कांग्रेस को चुनावी हार का सामना करना पड़ा , तब -तब उसने यही कहा कि हम अपनी गलतियों से सीखेंगे।
पर, सीखने की बात कौन कहे ,उन कारणों को भी याद नहीं रखा गया जो हार के मुख्य कारण रहे।
2013 में जब कांग्रेस की चार राज्यों में हार हुई तो राष्ट्रीय नेतृत्व ने कहा कि स्थानीय मुद्दों के असर के कारण ऐसा हुआ।
पर, जब मध्य प्रदेश,राजस्थान,छत्तीस गढ़ में उसकी जीत हुई तो यह बात नहीं कही गई।
2013 में जब दिल्ली विधान सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत हुई तो राहुल ने कहा था कि ‘हम आम आदमी पार्टी से सबक लेंगे।’
बाद में यही लगा कि उन्होंने ‘आप’ से इतना ही सीखा कि किसी पर आधारहीन आरोप लगा दो और मुकदमे लड़ने में अपना बहुमूल्य समय जाया करते रहो।
कांग्रेस नेतृत्व ने एंटोनी कमेटी की रपट से भी कोई सबक नहीं लिया,जबकि एंटोनी रपट में ही कांग्रेस के पुनर्जीवन का उपचार मौजूद है।
 मुश्किल यह है कि पार्टी इस रपट पर सघन चर्चा को ही नहीं तैयार।
यह 2014 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद तैयार की गई थी।
एंटोनी ने अगस्त, 2014 में अपनी रपट हाईकमान को सौंप दी।
पर उस रपट को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया।
रपट में अन्य बातों के अलावा दो मुख्य बातें थीं।
उन पर यदि कांग्रेस हाईकमान ने चिंतन-मनन किया होता 
तो शायद पार्टी का कुछ कल्याण हो जाता।
 ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने खुद को सुधारने की क्षमता खो दी है।
वह एक खास ढर्रे पर चल चुकी है जिससे पीछे पलटना उसके लिए संभव नहीं है।
    चार सदस्यीय एंटोनी कमेटी की रपट में प्रमुख बात यह है कि ‘‘कांग्रेस के बारे में मतदाताओं में यह धारणा बनी कि वह अल्पसंख्यक समुदाय की तरफ झुकी हुई है।इससे भाजपा को चुनावी लाभ मिला।
धर्म निरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता को लेकर कांग्रेस ने जो चुनावी मुद्दा बनाया,वह उसके खिलाफ गया।
इसके अलावा संप्रग सरकार के दौर में घोटालों की चर्चा ने भी नुकसान पहुंचाया।’’
  क्या कांग्रेस ने एकतरफा धर्म निरपेक्षता की अपनी रणनीति को छोड़कर संतुलित धर्म निरपेक्षता की नीति अपनाई ?
क्या उसने कभी यह कहा कि भ्रष्टाचार के प्रति हमारी शून्य सहनशीलता की नीति है ?
उसने तो इसके विपरीत ही रवैया अपनाया।
कांग्रेस नेताओं के खिलाफ जब -जब भ्रष्टाचार को लेकर मुकदमे हुए,छापामारी हुई,बरामदगी हुई,नेतागण जेल भेजे गए,तब -तब कांग्रेस नेतृत्व ने कहा कि ‘यह सब बदले की भावना में आकर किया जा रहा है।’
यह एक तथ्य है कि कांग्रेस ने चिदंबरम और शिवकुमार के साथ खड़े होना पसंद किया।
भ्रष्टाचार को लेकर जैसी सहनशीलता की नीति कांग्रेस ने आजादी के तत्काल बाद अपनाई वह समय के साथ बढ़ती चली गई।
आज वह पराकाष्ठा पर है।
कांग्रेस का प्रथम परिवार भी रिश्तेदार सहित आरोपों और मुकदमों के घेरे में है।
 पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने यह कह कर भ्रष्टाचार के प्रति अपनी सहनशीलता प्रकट कर दी थी कि ‘‘भ्रष्टाचार तो वैश्विक परिघटना है।सिर्फ भारत में थोड़े ही है !’’
 ‘मिस्टर क्लिन’ नाम से चर्चित राजीव गांधी को अपनी सरकार पर लगे आरोपों के जवाब देने में ही समय बिताना पड़ा।
1989 में कांग्रेस की सत्ता ऐेसे गई कि फिर उसे कभी लोक सभा में बहुमत नहीं मिल सका।
बाद के वर्षों में कांग्रेस ने जोड़-तोड़कर सरकारें बनानी शुरू कीं।
एक समय मन मोहन सिंह ने यह माना था कि मिलीजुली सरकार में समझौते करने की मजबूरी होती है।
मजबूरी की उसी धारा में कांग्रेस आज भी बह रही है।
  दूसरी ओर, एक ऐसी सरकार है जिसके प्रधान मंत्री कहते हैं कि ‘‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा।’’
उन्होंने अपने मंत्रिमंडल को घोटालों से अब तक दूर रखा है।अधिकतर लोग पहले की और आज की सरकारों में अंतर देख रहे हैं।दूसरा मुख्य अंतर देश की सुरक्षा के मोर्चे पर आया है।
यदि पड़ोसी देश कोई दुःसाहस करता है तो मोदी सरकार नतीजों की परवाह किए बिना उसका प्रतिकार करती है।
अनुच्छेद -370 और 35 ए को निष्क्रिय करने के निर्णये से जिहादी आतंकवादियों से लड़ने में सुविधा हो रही है।
   कांग्रेस को सर्वाधिक नुकसान वंशवाद को लेकर हो रहा है।
यदि आज कांग्रेस के पास कल्पनाशील नेतृत्व होता और वह वाजिब मुद्दे चुनकर उन पर खुद को केंद्रित करता तो महाराष्ट्र और हरियाणा में जनता उसकी ओर कहीं अधिक आकर्षित होती। 
तब शायद इन दोनों राज्यों में चुनावों के पहले ही यह माहौल न बनता कि कांग्रेस के जीतने की संभावनाएं कम हैं।   
-- 25 अक्तूबर 2019 के दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर  प्रकाशित।    






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