गुरुवार, 3 अक्टूबर 2019

                
कभी बाएं तो कभी दाएं !!!
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       एक
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सितंबर, 2019 के अंत में यह खबर आई कि केंद्र सरकार की उच्चस्तरीय समिति ने कोयला सेक्टर के निजीकरण की सिफारिश कर दी है।
सत्तर के दशक में जब कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण
हो रहा था, तब  कुछ लोगों ने राष्ट्रीकरण के खिलाफ अपनी राय दी थी।
पर, उन्हें पूंजीपतियों का दलाल घोषित कर सरकार ने अपना समाजवादी चेहरा कुछ और चमका लिया था।
याद रहे कि इंदिरा गांधी की सरकार ने 1971-72 में कोकिंग कोल और 1973 में नन-कोकिंग कोल खानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।
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         दो
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पहले रेलवे,विमान सेवा  और बिजली क्षेत्रों में भी निजी कंपनियां काम कर रही थीं।
 पहले उनका राष्ट्रीकरण हुआ।
अब उनका भी फिर से धीरे -धीरे निजीकरण हो रहा है।
सरकारी पटरियों पर निजी ट्रेन चलाने की तैयारी है।
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तीन
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द्वितीय पंचवर्षीय योजना काल में इस देश में रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का प्रचलन शुरु हुआ।
तब अनेक गांधीवादियों व पारंपरिक विवेक वाले लोगों ने रासायनिक खाद के खतरों की ओर सरकार व लोगों 
का ध्यान खींचा था।
हमारे विधायक व बिहार सरकार के पूर्व मंत्री जगलाल चैधरी गांवों में जाकर लोगों से कहते थे कि इससे खेत बंजर हो जाएंगे।
पर तब कई लोगों ने जगलाल चैधरी जैसे लोगों को पुरानपंथी कह कर उनका मजाक उड़ाया।
अब जब चेतावनी सच होने लगी तो जैविक खाद पर बड़े पैमाने पर जोर दिया जा रहा है।
बड़े- बड़े नामी गिरामी लोग भी अपनी जमीन में जैविक खेती कर रहे हैं।
कह रहे हैं कि बाजार के गेहंू और चावल में भी आर्सेनिक है जो कैंसर को जन्म देता है।
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     चार
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एक तरफ तो इलेक्ट्राॅनिक गजेट के अतिशय इस्तेमाल के कारण उसका प्रतिकूल असर लोगों की गर्दन,आंखें तथा अन्य अंगों पर पड़ रहा है,वहीं दूसरी ओर उसका इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है।
 अंततः क्या होगा ?
जब गर्दन-आंख की बीमारियां  महामारी का रूप ले लेंगी, तब हमारे सामने  इसका इस्तेमाल काफी कर देने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।
कम इस्तेमाल यानी  सिर्फ अत्यंत जरूरी कामों के लिए ही इस्तेमाल। 
 देर हो जाने से पहले हम कम से कम इस मामले में संभल जाएं तो बेहतर होगा।
कोल इंडिया आदि जैसे सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के मामले में हमने देर कर दी।
सरकार  इस बात का पूर्वानुमान नहीं कर सकी  कि सार्वजनिक क्षेत्र को ठीक ढंग से चलाने के लिए अफसरों व कर्मचारियों में जिस कठोर ईमानदारी की जरुरत है,वह हमारे यहां नहीं रही।
यहां तक कि वाम सरकार को भी मजबूर होकर कोलकाता के सार्वजनिक क्षेत्र के होटल ग्रेट इस्टर्न होटल को बेच देना पड़ा था। 

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