इस पोस्ट के साथ वाली तस्वीर पटना के रिटायर पत्रकार शिव नारायण सिंह की है।
तस्वीर धुंधली है,पर उनके चेहरे पर कुछ लकीरें आप देख सकते हैं।
खून की वे लकीरें उनके माथे से कभी टपकी थीं।
टपकी क्या थीं, धार बन कर बही थीं।
पुलिस की जोरदार लाठी लगी थी उन्हें।
अस्सी के दशक में वह उन पत्रकारों के उस नेतृ वर्ग में शामिल थे जो डा.जगन्नाथ मिश्र के विवादास्पद प्रेस विधेयक के खिलाफ आंदोलनरत थे ।
प्रदर्शन कर रहे थे।
प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपना खून बहा रहे थे।
तब शिवनारायण सिंह की यह तस्वीर मशहूर साप्ताहिक ‘इलेस्टेटेड विकली आॅफ इंडिया’
के ‘कवर’ पर फैला कर पूरे पेज पर छापी गई थी।
तब उनकी यह तस्वीर प्रेस बिल के खिलाफ आंदोलन की प्रतिनिधि तस्वीर बन गई थी।
आज यह सब याद दिलाने की भला क्या जरूरत है !! ?
दरअसल शिवनारायण जी हम पत्रकारों की आर्थिक स्थिति के भी प्रतिनिधि हैं।
बिहार के प्रमुख दैनिक आर्यावत्र्त से 2001 में रिटायर होकर शिवनारायण बाबू अपने गांव डिहुली --जिला-समस्तीपुर में रह रहे हैं।
अब वे अस्सी साल के हैं।
1977 में उन्होंने पटना में काम शुरू किया था।
प्रेस कांफ्रंेस में उनके सवाल सटीक व कारगर होते थे ।
उन्होंने प्रेस कांफं्रेस की जीवतंता बढ़ा दी थी।
तब तक मैं भी पेशेवर पत्रकारिता में आ गया था।
वे हम पत्रकारों के नेताओं में से एक थे।
इधर बिहार सरकार ने पत्रकारों को पेंशन देना तय किया है।
शिव नारायण बाबू ने भी आवेदन पत्र दे रखा है।
प्रशासन आवेदनों की जांच पड़ताल कर रहा है।
उम्मीद है कि उनके जीवन काल में उन्हें पेंशन मिलनी शुरू हो जाएगी।
आज नए साल के पहले दिन पर मैंने शिवनारायण बाबू को फोन किया तो पता चला कि अब तक उन्हें पेंशन नहीं मिली है।
पता नहीं ,अन्य पत्रकारों का क्या हाल है !
मैंने 1970 से ही बड़े-बड़े पत्रकारों को देखा है।
अपने कार्यकाल में अनेक पत्रकार अपनी कलमों के जरिए देश-राज्य-समाज के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
तब उनकी हर तरफ से बड़ी पूछ रहती है।
पर, रिटायर हो जाने के बाद वे भुला दिए जाते हैं।
पेंशन की व्यवस्था नहीं रहने के कारण उन्हें उपेक्षा के साथ-साथ अन्य कई तरह की कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है।
पत्रकार स्वभाव से स्वाभिमानी होता है,
इसलिए उनकी कठिनाइयां खुल कर सामने भी नहीं आतीं।
यह हाल सिर्फ बिहार या पटना का नहीं है।
पूरे देश का है।
इन दिनों भी कुछ ही पत्रकार होते हैं जो लाखों-करोड़ों -अरबों में खेलते हैं।
दरअसल संवाददाता व संपादक मीडिया नामक महल के कंगूरे होते हैं।
पर नींव की ईंटों की संख्या अधिक होती है जो डेस्क पर आभामंडल से दूर बैठकर काम करते हैं।
वे भी पत्रकार यानी मीडियामेन ही कहलाते हैं।
पर , उन्हें भला कौन पूछता है !!!
यदि संस्थान की तरफ से मिल रही तनख्वाह अच्छी रही,तब तो जीवन कट जाता है।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर.........!!!
--सुरेंद्र किशोर--1 जनवरी 2020
तस्वीर धुंधली है,पर उनके चेहरे पर कुछ लकीरें आप देख सकते हैं।
खून की वे लकीरें उनके माथे से कभी टपकी थीं।
टपकी क्या थीं, धार बन कर बही थीं।
पुलिस की जोरदार लाठी लगी थी उन्हें।
अस्सी के दशक में वह उन पत्रकारों के उस नेतृ वर्ग में शामिल थे जो डा.जगन्नाथ मिश्र के विवादास्पद प्रेस विधेयक के खिलाफ आंदोलनरत थे ।
प्रदर्शन कर रहे थे।
प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपना खून बहा रहे थे।
तब शिवनारायण सिंह की यह तस्वीर मशहूर साप्ताहिक ‘इलेस्टेटेड विकली आॅफ इंडिया’
के ‘कवर’ पर फैला कर पूरे पेज पर छापी गई थी।
तब उनकी यह तस्वीर प्रेस बिल के खिलाफ आंदोलन की प्रतिनिधि तस्वीर बन गई थी।
आज यह सब याद दिलाने की भला क्या जरूरत है !! ?
दरअसल शिवनारायण जी हम पत्रकारों की आर्थिक स्थिति के भी प्रतिनिधि हैं।
बिहार के प्रमुख दैनिक आर्यावत्र्त से 2001 में रिटायर होकर शिवनारायण बाबू अपने गांव डिहुली --जिला-समस्तीपुर में रह रहे हैं।
अब वे अस्सी साल के हैं।
1977 में उन्होंने पटना में काम शुरू किया था।
प्रेस कांफ्रंेस में उनके सवाल सटीक व कारगर होते थे ।
उन्होंने प्रेस कांफं्रेस की जीवतंता बढ़ा दी थी।
तब तक मैं भी पेशेवर पत्रकारिता में आ गया था।
वे हम पत्रकारों के नेताओं में से एक थे।
इधर बिहार सरकार ने पत्रकारों को पेंशन देना तय किया है।
शिव नारायण बाबू ने भी आवेदन पत्र दे रखा है।
प्रशासन आवेदनों की जांच पड़ताल कर रहा है।
उम्मीद है कि उनके जीवन काल में उन्हें पेंशन मिलनी शुरू हो जाएगी।
आज नए साल के पहले दिन पर मैंने शिवनारायण बाबू को फोन किया तो पता चला कि अब तक उन्हें पेंशन नहीं मिली है।
पता नहीं ,अन्य पत्रकारों का क्या हाल है !
मैंने 1970 से ही बड़े-बड़े पत्रकारों को देखा है।
अपने कार्यकाल में अनेक पत्रकार अपनी कलमों के जरिए देश-राज्य-समाज के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
तब उनकी हर तरफ से बड़ी पूछ रहती है।
पर, रिटायर हो जाने के बाद वे भुला दिए जाते हैं।
पेंशन की व्यवस्था नहीं रहने के कारण उन्हें उपेक्षा के साथ-साथ अन्य कई तरह की कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है।
पत्रकार स्वभाव से स्वाभिमानी होता है,
इसलिए उनकी कठिनाइयां खुल कर सामने भी नहीं आतीं।
यह हाल सिर्फ बिहार या पटना का नहीं है।
पूरे देश का है।
इन दिनों भी कुछ ही पत्रकार होते हैं जो लाखों-करोड़ों -अरबों में खेलते हैं।
दरअसल संवाददाता व संपादक मीडिया नामक महल के कंगूरे होते हैं।
पर नींव की ईंटों की संख्या अधिक होती है जो डेस्क पर आभामंडल से दूर बैठकर काम करते हैं।
वे भी पत्रकार यानी मीडियामेन ही कहलाते हैं।
पर , उन्हें भला कौन पूछता है !!!
यदि संस्थान की तरफ से मिल रही तनख्वाह अच्छी रही,तब तो जीवन कट जाता है।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर.........!!!
--सुरेंद्र किशोर--1 जनवरी 2020
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