रविवार, 26 जनवरी 2020

पत्रकारिता के मेरे प्रथम 
गुरु देवीदत्त पोद्दार
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‘‘वे जा रहे है।’’
एक लेख में यही लिख दिया था मैंने।
पोद्दार साहब ने मेरी काॅपी देखी।
मुझसे कहा कि 
‘देखिए सुरेंद्र जी,काम्पोजिटर तो आपसे भी कम ही पढ़ा-लिखा व्यक्ति है।
आप है लिखेंगे तो वह है ही काम्पोज कर देगा।
अपनी तरफ से तो है पर बिन्दु लगाएगा नहीं।
इसलिए लिखते समय सावधानी बरतें।
आप सावधान रहेंगे तो गलत नहीं लिखेंगे।
मैं जानता हूं।’’
 इस तरह अंगुली पकड़कर जिसने लिखना सिखाया,
वह देवीदत्त पोद्दार यदाकदा याद  आते हैं।
अब नहीं रहे।
  लोहियावादी समाजवादी पोद्दार साहब दरभंगा के मारवाड़ी काॅलेज के प्राचार्य रह चुके थे।
योग्यता , ईमानदारी और शालीनता के प्रतीक थे।
  1969 में कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें पटना बुलाया।
कहा कि पार्टी के लिए एक साप्ताहिक पत्रिका निकालिए।
वे आ गए।
पटना हाईकोर्ट के पास स्थित एक सरकारी आवास से लोकमुख निकलने लगा।वह मकान विधायक रमाकांत झा के नाम आवंटित था।
पोद्दार साहब परिवार के साथ रहते थे।
लोकमुख में उन्होंने पहले दो सहायक संपादक रखे थे।
उन्हें 60-60 रुपए हर माह देते थे।
जब मैं उनसे मिला तो उन्होंने पूछा,यहां काम कीजिएगा ?
मैंने हां कर दी तो उन्होंने उन दोनों की जगह मुझे रख लिया।
मेरी तनख्वाह रखी गई 120 रुपए प्रति माह।
उन दिनों मैट्रिक टंे्रड टीचर की तनख्वाह 229 रुपए थी। 
  ‘लोकमुख’ समाजवादी आंदोलन की पत्रिका थी।
जाहिर है कि उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी।
कम ही समय तक उसका प्रकाशन संभव हो सका।
कर्पूरी जी भी तो कोई साधन -संपन्न नेता थे नहीं।
कभी -कभी सत्ता में रहे भी तो उन्होंने  सरकारी फाइलें बेच कर पैसे नहीं कमाए।
फिर उन्हें कोई धनवान व्यक्ति अखबार निकालने के लिए पैसे भला क्यों देता !
  पोद्दार जी अपने पी.एफ.के पैसे एडवांस ले -लेकर कुछ दिनों तक तो पटना का अपना खर्च चलाते रहे।
बाद में दरभंगा लौट गए।
  पोद्दार जी मुझे अपने घर का बना ‘‘मारवाड़ी खाना’’ भी प्यार से खिलाते  थे।
सम्मान के साथ बात भी करते थे।
बाद के वर्षों में उनसे मेरी मुलाकात नहीं हो सकी।
बाद में मैं खुद समाजवादी अभियान वाली पत्रकारिता से हटकर पेशेवर पत्रकारिता यानी दैनिक ‘आज’ से जुड़ चुका था।
सुना था कि पोद्दार जी को राज्य काॅलेज सेवा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था।उनके योगदान व योग्यता के अनुपात में वह कम ही था।
उनके कार्यकाल के बारे में मैंने कभी कोई शिकायत नहीं सुनी।
  समाजवादी आंदोलन के ऐसे दिव्य पुरुष यदाकदा याद आते हैं।
इसलिए भी कि ऐसे लोगों की किसी भी राजनीतिक दल में आज भारी कमी है। 
   


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