द्विवार्षिक चुनाव--एक अनार सौ बीमार
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राज्य सभा और विधान परिषद के द्विवार्षिक चुनाव के समय
अजीब -अजीब अनुभव होते हैं।
नेताओं को भी और आम लोगों को भी।
कई नेताओं के चरित्र खुलकर सामने आ जाते हैं।
कुछ दलीय सुप्रीम को तो एक अजीब दुःस्वप्न से गुजरना पड़ता है।
निर्णय करने के क्रम में उत्पन्न भारी तनाव के कारण तो एक बार इस राज्य ने एक अनमोल नेता को खो दिया।
हार्ट अटैक हुआ और वह नहीं रहे।
नाम मत पूछिएगा।
अब सादिक अली,मधु लिमये और आचार्य राममूत्र्ति का जमाना तो है नहीं।
इन नेताओं ने बारी -बारी से राज्य सभा का आॅफर ठुकरा दिया था।
ताजा अनुभव शर्मनाक है ।
दरअसल उच्च सदन की सीट ड्रग के नशे की तरह हो गई है।
अपवादों को छोड़ कर जिसे मिल गई,वह अजीब नशे में डूब गया।
जिसे एक बार मिल कर दुबारा नहीं मिली तो उसे बाई --बोखार ले लेता है।
बड़बड़ाने लगता है।
अखबारों के जरिए उसके तापमान का पता चल जाता है।
कभी अपने नेता का माथा नोचता है तो कभी अपना ही।
पर बेचारा सुप्रीमो भी क्या करे !!!
उसके सामने बहुत सी समस्याएं होती हैं।
यदि आप समझते हैं कि वह आपको ही सर्वाध्धिक महत्व देता है तो अधिकतर बार आप गलतफहमी में ही होते हैं।
प्राथमिकता की उसकी अपनी सूची होती है।
संभव है कि आप उस सूची के आखिरी पायदान पर हों।
कई बार सुप्रीमो की मजबूरी भी होती है।
दल को देखे या व्यक्ति को ?
हां, जो नेता सीटें बेचते हैं,उनके लिए कोई टेंशन नहीं है।
अब तो कीमत भी बहुत हो गई है।
पहली बार सुना था-आठ करोड़।
कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के एक नेता का बयान था-सौ करोड़ रुपए।
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राज्य सभा और विधान परिषद के द्विवार्षिक चुनाव के समय
अजीब -अजीब अनुभव होते हैं।
नेताओं को भी और आम लोगों को भी।
कई नेताओं के चरित्र खुलकर सामने आ जाते हैं।
कुछ दलीय सुप्रीम को तो एक अजीब दुःस्वप्न से गुजरना पड़ता है।
निर्णय करने के क्रम में उत्पन्न भारी तनाव के कारण तो एक बार इस राज्य ने एक अनमोल नेता को खो दिया।
हार्ट अटैक हुआ और वह नहीं रहे।
नाम मत पूछिएगा।
अब सादिक अली,मधु लिमये और आचार्य राममूत्र्ति का जमाना तो है नहीं।
इन नेताओं ने बारी -बारी से राज्य सभा का आॅफर ठुकरा दिया था।
ताजा अनुभव शर्मनाक है ।
दरअसल उच्च सदन की सीट ड्रग के नशे की तरह हो गई है।
अपवादों को छोड़ कर जिसे मिल गई,वह अजीब नशे में डूब गया।
जिसे एक बार मिल कर दुबारा नहीं मिली तो उसे बाई --बोखार ले लेता है।
बड़बड़ाने लगता है।
अखबारों के जरिए उसके तापमान का पता चल जाता है।
कभी अपने नेता का माथा नोचता है तो कभी अपना ही।
पर बेचारा सुप्रीमो भी क्या करे !!!
उसके सामने बहुत सी समस्याएं होती हैं।
यदि आप समझते हैं कि वह आपको ही सर्वाध्धिक महत्व देता है तो अधिकतर बार आप गलतफहमी में ही होते हैं।
प्राथमिकता की उसकी अपनी सूची होती है।
संभव है कि आप उस सूची के आखिरी पायदान पर हों।
कई बार सुप्रीमो की मजबूरी भी होती है।
दल को देखे या व्यक्ति को ?
हां, जो नेता सीटें बेचते हैं,उनके लिए कोई टेंशन नहीं है।
अब तो कीमत भी बहुत हो गई है।
पहली बार सुना था-आठ करोड़।
कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के एक नेता का बयान था-सौ करोड़ रुपए।
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