कर्पूरी ठाकुर के जन्म दिन
की पूर्व संध्या पर
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लगा था ‘कर्पूरी डिविजन’ का लांछन !
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‘कर्पूरी डिविजन’ को लेकर कई तरह की बातें की जाती रही हैं।
पर, मेरा मानना है कि कर्पूरी ठाकुर के प्रति अन्य कारणों से नाराज लोग ‘कर्पूरी डिविजन’ कहा करते थे।
कुछ लोग अब भी कहते हैं।
हालांकि ‘कर्पूरी डिविजन’ वाली वह सुविधा भी कुछ ही साल रही।
पर प्रचार ऐसा हुआ मानो उसी ने पूरी शिक्षा को बर्बाद कर दिया।
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार ने भी अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की थी।
कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसा हुआ।
पर, कहीं किसी मुख्य मंत्री या शिक्षा मंत्री के नाम से ऐसा ‘लांछन’ पूर्ण प्रचार नहीं हुआ।
वैसे भी जब मैट्रिक स्तर पर अंग्रेजी की अनिवार्यता बिहार में खत्म की गयी थी, उस समय महामाया प्रसाद सिंहा मुख्य मंत्री थे।
कर्पूरी ठाकुर उस सरकार के उप मुख्य मंत्री, वित्त मंत्री और शिक्षा मंत्री थे।
पूरा मंत्रिमंडल उस निर्णय से सहमत था।
दरअसल अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने का उन पर उनके सर्वोच्च नेता डा.राम मनोहर लोहिया का भी दबाव था।
उन दिनों यह प्रचार हुआ कि चूंकि कर्पूरी ठाकुर खुद अंग्रेजी नहीं जानते ,इसलिए उन्होंने अंग्रेजी हटा दी।
पर यह प्रचार गलत था।
कर्पूरी ठाकुर अंग्रेजी अखबारों के लिए अपना बयान खुद अंग्रेजी में ही लिखा करते थे।
मैं गवाह हूं, किसी हेरफेर के बिना उनका बयान ज्यों का त्यों छपता था।
अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने के पीछे ठोस तर्क थे।
तब छात्र अंग्रेजी विषय में मैट्रिक फेल कर जाने के कारण सिपाही में भी बहाल नहीं हो पाते थे।
इस कारण से वंचित होने वालों में सभी जातियों व समुदायों के उम्मीदवार होते थे।
नौकरी से वंचित होने वालों में अधिकतर गरीब घर के होते थे।
जबकि आजाद भारत में किसी सिपाही के लिए व्यावहारिक जीवन में, वह भी बिहार में, अंग्रेजी जानना बिलकुल जरूरी नहीं था।
दूसरी बात यह है कि उन दिनों आम तौर से वर पक्ष न्यूनत्तम मैट्रिक पास दुल्हन चाहता था।
अंग्रेजी में फेल हो जाने के कारण अच्छे परिवारों की लड़कियों की शादी समतुल्य हैसियत वालों के घरों में नहीं हो पाती थी।
किसी घरेलू महिला के जीवन में अंग्रेजी की भला क्या उपयोगिता थी ?
याद रहे कि तब परीक्षा में चोरी की ‘‘आम सुविधा’’ नहीं थी।
अन्यथा ..........।
इस तरह की कुछ अन्य बातें भी थीं।
याद रहे कि अंग्रेजी की अनिवार्यता तब समाप्त की गयी थी,उसकी पढ़ाई बंद नहीं की गयी थी।
पर प्रचार ऐसा हुआ कि अंग्रेजी को विलोपित कर दिया गया।
कम्प्यूटर की पढ़ाई अनिवार्य नहीं रहने के बावजूद लोग कम्प्यूटर सीख कर आगे बढ़ ही रहे हैं।
अंग्रेजी तो अब अनिवार्य है।
फिर भी शिक्षा का स्तर क्यों नहीं उठ रहा ?
शिक्षा को बर्बाद करने के अन्य अनेक कारक रहे।
प्रो.नागेश्वर प्रसाद शर्मा ने इस पर कई किताबें लिखी हैं।
एक अंतिम बात।
1972 में तो तत्कालीन मुख्य मंत्री केदार पांडेय ने परीक्षा में कदाचार पूरी तरह बंद करवा दिया था।
फिर किसने शुरू कराया ?
पटना हाईकोर्ट के आदेश से सन 1996 में बिहार में मैटिक्र-इंटर की परीक्षाएं कदाचार-शून्य हुर्इं।दोबारा कदाचार किसने शुरू कराया ?
1980 में निजी स्कूलों के राजकीयकरण से पहले लगभग सभी शिक्षक मनोयोगपूर्वक पढ़ाते थे।
क्या बाद में भी वैसी ही स्थिति रही ?
ऐसा क्यों हुआ ???
की पूर्व संध्या पर
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लगा था ‘कर्पूरी डिविजन’ का लांछन !
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‘कर्पूरी डिविजन’ को लेकर कई तरह की बातें की जाती रही हैं।
पर, मेरा मानना है कि कर्पूरी ठाकुर के प्रति अन्य कारणों से नाराज लोग ‘कर्पूरी डिविजन’ कहा करते थे।
कुछ लोग अब भी कहते हैं।
हालांकि ‘कर्पूरी डिविजन’ वाली वह सुविधा भी कुछ ही साल रही।
पर प्रचार ऐसा हुआ मानो उसी ने पूरी शिक्षा को बर्बाद कर दिया।
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार ने भी अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की थी।
कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसा हुआ।
पर, कहीं किसी मुख्य मंत्री या शिक्षा मंत्री के नाम से ऐसा ‘लांछन’ पूर्ण प्रचार नहीं हुआ।
वैसे भी जब मैट्रिक स्तर पर अंग्रेजी की अनिवार्यता बिहार में खत्म की गयी थी, उस समय महामाया प्रसाद सिंहा मुख्य मंत्री थे।
कर्पूरी ठाकुर उस सरकार के उप मुख्य मंत्री, वित्त मंत्री और शिक्षा मंत्री थे।
पूरा मंत्रिमंडल उस निर्णय से सहमत था।
दरअसल अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने का उन पर उनके सर्वोच्च नेता डा.राम मनोहर लोहिया का भी दबाव था।
उन दिनों यह प्रचार हुआ कि चूंकि कर्पूरी ठाकुर खुद अंग्रेजी नहीं जानते ,इसलिए उन्होंने अंग्रेजी हटा दी।
पर यह प्रचार गलत था।
कर्पूरी ठाकुर अंग्रेजी अखबारों के लिए अपना बयान खुद अंग्रेजी में ही लिखा करते थे।
मैं गवाह हूं, किसी हेरफेर के बिना उनका बयान ज्यों का त्यों छपता था।
अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने के पीछे ठोस तर्क थे।
तब छात्र अंग्रेजी विषय में मैट्रिक फेल कर जाने के कारण सिपाही में भी बहाल नहीं हो पाते थे।
इस कारण से वंचित होने वालों में सभी जातियों व समुदायों के उम्मीदवार होते थे।
नौकरी से वंचित होने वालों में अधिकतर गरीब घर के होते थे।
जबकि आजाद भारत में किसी सिपाही के लिए व्यावहारिक जीवन में, वह भी बिहार में, अंग्रेजी जानना बिलकुल जरूरी नहीं था।
दूसरी बात यह है कि उन दिनों आम तौर से वर पक्ष न्यूनत्तम मैट्रिक पास दुल्हन चाहता था।
अंग्रेजी में फेल हो जाने के कारण अच्छे परिवारों की लड़कियों की शादी समतुल्य हैसियत वालों के घरों में नहीं हो पाती थी।
किसी घरेलू महिला के जीवन में अंग्रेजी की भला क्या उपयोगिता थी ?
याद रहे कि तब परीक्षा में चोरी की ‘‘आम सुविधा’’ नहीं थी।
अन्यथा ..........।
इस तरह की कुछ अन्य बातें भी थीं।
याद रहे कि अंग्रेजी की अनिवार्यता तब समाप्त की गयी थी,उसकी पढ़ाई बंद नहीं की गयी थी।
पर प्रचार ऐसा हुआ कि अंग्रेजी को विलोपित कर दिया गया।
कम्प्यूटर की पढ़ाई अनिवार्य नहीं रहने के बावजूद लोग कम्प्यूटर सीख कर आगे बढ़ ही रहे हैं।
अंग्रेजी तो अब अनिवार्य है।
फिर भी शिक्षा का स्तर क्यों नहीं उठ रहा ?
शिक्षा को बर्बाद करने के अन्य अनेक कारक रहे।
प्रो.नागेश्वर प्रसाद शर्मा ने इस पर कई किताबें लिखी हैं।
एक अंतिम बात।
1972 में तो तत्कालीन मुख्य मंत्री केदार पांडेय ने परीक्षा में कदाचार पूरी तरह बंद करवा दिया था।
फिर किसने शुरू कराया ?
पटना हाईकोर्ट के आदेश से सन 1996 में बिहार में मैटिक्र-इंटर की परीक्षाएं कदाचार-शून्य हुर्इं।दोबारा कदाचार किसने शुरू कराया ?
1980 में निजी स्कूलों के राजकीयकरण से पहले लगभग सभी शिक्षक मनोयोगपूर्वक पढ़ाते थे।
क्या बाद में भी वैसी ही स्थिति रही ?
ऐसा क्यों हुआ ???
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