सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह देश की अदालतों की सुरक्षा के लिए वहां केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल तैनात करने की व्यवस्था करे।
दिल्ली की एक अदालत में गत नवंबर में भारी उपद्रव हुआ था।
पुलिस और वकील आमने-सामने थे।
उसी घटना को ध्यान में रखते
हुए सबसे बड़ी अदालत को ऐसी सलाह देनी पड़ी है।
घटना दिल्ली की तीस हजारी अदालत में हुई थी।
खैर तीस हजारी कोर्ट जैसी घटना तो बहुत कम ही होती है।पर इस देश की अनेक अदालत परिसरों से हिंसा की खबरें आती रहती हैं।
बिहार भी इस मामले में पीछे नहीं है।
कहीं विचाराधीन कैदी की हत्या हो जाती है तो कहीं गवाह की।
कहीं -कहीं हाजतों से कैदी भगा लिए जाते हैं।
कहीं -कहीं तो सरेआम गवाहों को धमकाया जाता है।
ऐसी घटनाओं में आम तौर पर स्थानीय पुलिस की साठगांठ या कमजोरी पाई जाती है।
ऐसे में न्याय का शासन कायम करने में दिक्कतें आती हैं।
याद रहे कि सी.आई.एस.एफ.की ट्रेनिंग कुछ खास तरह की होती है।
उस बल के बारे में सुप्रीम कोर्ट का यह आकलन सही है
कि सी.आई.एस.एफ.विपरीत परिस्थितियों में बेहतर काम कर सकता है।
--मुकदमा नीति का अनुपालन नहीं
होने से मुकदमों का अंबार--
पटना हाईकोर्ट ने कहा है कि प्रशिक्षण पूरा होने की तारीख से ही शिक्षकों को प्रशिक्षित वेतनमान मिलना चाहिए।
संभवतः हाईकोर्ट का इससे पहले भी ऐसा निर्णय आ चुका है।
पर शासन तंत्र इसे आम तौर पर लागू नहीं करता।
जिस व्यक्ति के बारे में निर्णय होता है,उसे लागू कर के शासन तंत्र अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर देता है।
जबकि बिहार सरकार की मुकदमा नीति कहती है कि ऐसे अन्य मामलों में भी अदालत के निर्णय को लागू कर दिया जाना चाहिए।
यानी किसी एक मामले में निर्णय आने के बाद उस तरह के अन्य मामलों के पीडि़तों को भी सरकार राहत दे दे।
पर यह आम तौर पर नीति लागू नहीं होती। क्यों नहीं लागू होती,इसका कारण सब जानते हैं।
नतीजतन एक ही तरह के मामले में राहत पाने के लिए अनेक लोगों को अलग अलग हाईकोर्ट जाना पड़ता है।
अदालतों में मुकदमों का अंबार लगने का यह भी एक बड़ा कारण है।
ऐसे मामले में तो शासन को चाहिए कि वह अखबारों में विज्ञापन देकर लोगों को यह सूचित करे कि जिनको
इस निर्णय के तहत राहत चाहिए,वे फलां अफसर से मिलें।
--सतर्क हो जाने का समय--
पिछले महीने दिल्ली के सीमापुरी मुहल्ले में संशोधित नागरिकता कानून विरोधी लोगों की हिंसक भीड़ ने भारी
हिंसा की।
उस सिलसिले में हाल में 7 लोग पकड़े गए हैं।
उनमें दो विदेशी हैं।
पर उन लोगों ने यहां की नागरिकता से संबंधित सारे कागजात गलत ढंग से बनवा लिए हैं।
यानी,अब सवाल यह है कि इस देश के अनेक सरकारी दफ्तरों में पैसे देकर कोई भी राष्ट्रद्रोही विदेशी नागरिक कोई भी जाली कागजात यहां बनवा सकता है ?समय आने पर खुद को भारतीय नागरिक साबित कर सकता है।
केंद्र और राज्य सरकारों को इस समस्या पर मंथन करना चाहिए।
ऐसे जालसाजी मामले में फंसे सरकारी कर्मियों के खिलाफ यदि राष्ट्रद्रोह का केस चले तो शायद स्थिति बदले।
साथ ही खुफिया पुलिस की संख्या भी बढ़ानी होगी।
उस महकमे पर अधिक खर्च करना पड़ेगा।
अन्यथा, एक दिन इस देश को पछताना पड़ेगा।
--बढ़ते हत्यारे और घटते जल्लाद--
सन 1947 में विभिन्न आरोपों के तहत सिर्फ उत्तर
प्रदेश में 354 लोगों को फांसी दी गई थी।
पर 2018 में पूरे देश में सिर्फ 162 लोगों को ही फांसी की सजा दी गई।
कोई भी व्यक्ति कह सकता है कि 1947 के मुकाबले आज हर तरह का अपराध बढ़ा है।
फिर सजाएं पहले से भी कम क्यों ?
जबकि, इस देश की आबादी इस बीच बेशुमार बढ़ चुकी है।
भ्रष्टाचार इस देश की सबसे बड़ी समस्याओं में एक है।
चीन में भ्रष्टाचार के आरोप में फांसी की सजा का प्रावधान है।
जब चीन जैसे कड़े शासन वाले देश में भ्रष्टाचार के लिए इतनी बड़ी सजा के प्रावधान की जरूरत है ,तब तो भारत में इसकी और अधिक जरूरत होनी चाहिए।
क्योंकि यह तो एक ढीले -ढाले शासन वाला देश है।
-- और अंत में--
किसी ने फीस बढ़ोत्तरी के विरोध में जारी अपने आंदोलन को प्रभावकारी बनाने के लिए एक विश्वविद्यालय के कम्प्यूटर के सर्वर को तोड़ डाला ।
वहां कुछ अन्य लोगों रजिस्ट्रेशन व पढ़ाई के पक्ष में खड़े होकर अपने ढंग से कानून तोड़ा।
यदि आप लोगों ने कानून तोड़ा तो उसके लिए निर्धारित सजा भुगतने के लिए भी तैयार रहिए।
आजादी की लड़ाई में गांधी जी यदि कानून तोड़ते थे तो सजा पाने के लिए भी सदा तत्पर रहते थे।
जो लोग इन दिनों संविधान व कानून की रक्षा के पक्ष में देश भर में जोरदार नारे लगाते फिर रहे हैं,वे भी उन कानून तोड़कों से कहें कि यदि कानून का राज रहेगा तभी तो संविधान की भी रक्षा हो पाएगी ?
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कानोंकान-प्रभात खबर-पटना-10 जनवरी 2020
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