बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

      असहमति के अधिकार की आड़
     लेकर नहीं कर सकते राष्ट्रद्रोह 
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         --सुरेंद्र किशोर--
वाणी की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्रद्रोहात्मक गतिविधियां नहीं चलाई जा सकतीं।
असहमति के अधिकार का दुरुपयोग करके टुकड़े-टुकड़े गिरोह को देश तोड़ने की अनुमति नहीं है।
 बहुलवादी समाज का बहाना बना कर आप देश में अराजकता नहीं पैदा कर सकते। 
   आप यदि राष्ट्रद्रोह की गतिविधि में संलिप्त नहीं हैं तो आपको कोई उस केस में आरोपी नहीं बना सकता।
  क्योंकि राष्ट्रद्रोह की परिभाषा सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में ही तय कर रखी है।
राष्ट्रद्रोह पर 1962 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय
की कसौटी पर ही अदालतें नए मामलों को भी देखेंगी।
उस चर्चित केस का एक बार फिर अध्ययन कर लीजिए। 
26 मइर्, 1953 को बेगूसराय में एक रैली हो रही थी।
फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदार नाथ सिंह रैली को संबोधित कर रहे थे।
रैली में सरकार के खिलाफ अत्यंत कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा कि 
‘सी.आई.डी.के कुत्ते बरौनी में चक्कर काट रहे हैं।
कई सरकारी कुत्ते यहां इस सभा में भी हैं।जनता ने अंगे्रजों को यहां से भगा दिया।
कांग्रेसी कुत्तों को गद्दी पर बैठा दिया।
इन कांग्रेसी गुंडों को भी हम उखाड़ फेकेंगे।’
   ऐसे उत्तेजक व अशालीन भाषण के लिए बिहार की कांग्रेस सरकार ने केदारनाथ सिंह के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया।
केदारनाथ सिंह ने हाईकोर्ट की शरण ली।
हाईकोर्ट ने उस मुकदमे की सुनवाई पर रोक लगा दी।
बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई।
सुप्रीम कोर्ट ने आई.पी.सी.की राजद्रोह से संबंधित धारा  
को परिभाषित कर दिया।
  20 जनवरी, 1962 को मुख्य न्यायाधीश बी.पी.सिन्हा की अध्यक्षता वाले संविधान पीठ ने कहा कि 
‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है,जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े।’
 चूंकि केदारनाथ सिंह के भाषण से ऐसा कुछ नहीं हुआ था,इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह को राहत दे दी।
   याद रहे कि अब भी सुप्रीम कोर्ट केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार वाले जजमेंट पर कायम है।
        --सुरेंद्र किशोर --19 फरवरी 2020


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