गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

अपनी  आंखों को बचाइए !
डिजिटल कम और प्रिंट पर
ज्यादा समय बिताइए !!
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सुरेंद्र किशोर 
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मीडिया से संबंधित एक खबर पर मैं भी कुछ कहना चाहता हूं।
 इस देश के कुछ अखबारों के घटते प्रसार के बीच यह सवाल उठ रहा है कि पिं्रट मीडिया का भविष्य कैसा है ?
क्या कम्प्यूटर, टैब व स्मार्ट फोन के स्क्रिन एक दिन  कागज की जगह ले लेंगे ? 
 मुझे तो ऐसा नहीं लगता है।
 वैसे भी सारे अखबारों के प्रसार नहीं घट रहे हैं।
कुछ के बढ़ भी रहे हैं।
   नहीं घटने का कारण भी बताया जा रहा है ।
कतिपय अखबारों ने खबरों, संपादकीय 
सामग्री और संपादकीय विभाग  पर खर्च बढ़ा दिया है।
इस तरह उसने 
डिजिटलाइजेशन का सफलतापूर्वक मुकाबला कर लिया है।
 अन्य अखबारोंे को भी चाहिए कि वे संक्रमण काल में फिलहाल कम मुनाफे पर संतोष कर लें।
अखबार के रुझान में  संतुलन रखें।
सबको लगे कि यह अखबार उनका भी है।
अच्छे दिन फिर आएंगे।
  वैसे मेरी जानकारी में यह समस्या लगभग पूरी दुनिया
के प्रिंट मीडिया के सामने है।
बाहर के देशों के संबंधित लोग भी इस समस्या से निपटने की कोशिश में अपने-अपने ढंग से लगे हुए हैं।
चीन एक ढंग से तो अमेरिका दूसरे तरीके से।
 इस संबंध में मेरी जानकारी तो सीमित है।
पर, एक बात कह सकता हूं।
  स्क्रीन पर लगतार समाचार अधिक दिनों तक पढते रह़ना
ठीक भी नहीं है।
उससे कुछ समय बाद आंखों पर उसका विपरीत असर पड़ना शुरू हो जाएगा ।
फिर तो प्रिंट मीडिया की शरण में लोगों को एक बार फिर जाना ही पड़ेगा।
  ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि कम्प्यूटर-टैब-स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करते समय अधिकतर लोग आंखों के डाक्टर की सलाह की उपेक्षा करते हैं।
  साठ के दशक में रासायनिक खाद व उर्वरक का प्रचलन शुरू हो गया था।
हमारी अदूरदर्शी सरकार ने उसे खूब बढ़ावा दिया ।वह चाहती थी कि  यहीं पैदावार अधिक हो और विदेशों से अनाज कम से कम  मंगाना पड़े।
अमेरिका के पी एल.-480 यानी फुड फाॅर पीस पर कितने दिनों तक निर्भरता 
रहती  ?
  कुछ दिनों तक तो ठीक ठाक रहा।
 पर, रासायनिक खादों ने जब खेतों व लोगों के स्वास्थ्य पर काफी खराब असर डालना शुरू किया तो अनेेक समझदार लोग अब फिर जैविक खेती  की ओर तेजी से लौट रहे हैं।
  देर -सवेर वही कहानी  डिजिटल बनाम प्रिंट मीडिया के
मामले में भी दुहराई जा सकती है।
  मेरी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।
फिर भी अपनी आंखों को बचााए रखने के लिए रोज ग्यारह अखबार मंगाता  हूंं।
    नतीजतन इस उम्र में भी आज तक मैं मोतियाबिंद से भी बचा हुआ हूं।
 वैसे पेशे की दृष्टि से मेरे लिए प्रिट और डिजिटल दोनों बराबर हैं।
  प्रति लेख की दर की दष्टि से सर्वाधिक पारिश्रमिक मुझे डिजिटल से ही मिला है।
  और अंत में
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अखबार के मालिक घाटे को पाटने के लिए ‘गोयनका फार्मूला’ अपना सकते हैं।
 संविधान सभा के सदस्य और दो बार लोक सभा सदस्य रहे रामनाथ गोयनका ने देश के बड़े नगरों में बहुमंजिली इमारतें बनवा दी थीं।
उसमें जरूरत भर अपने पास रखा। 
बाकी  किराए पर लगा दिया।
उससे अखबार का घाटा पूरा होता रहा ।
साथ ही वे एक जमाने में मीडिया की स्वतंत्रता -स्वाभिमान का प्रतीक बन गए थे। 
अस्सी के दशक में मेरे लिए भी एक्सप्रेस ग्रूप का बहुत  आकर्षण था ।तब  मैंने नवभारत टाइम्स के अधिक वेतन के आॅफर को ठुकराते हुए ‘जनसत्ता’ ज्वाइन कर लिया था।   

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