प्रशांत किशोर को उतना ही महत्व-श्रेय
दीजिए जितने के वे हकदार हैं।
---सुरेंद्र किशोर .......
प्रशांत किशोर की इन दिनों बड़ी चर्चा है।
चर्चा उससे भी अधिक है जितने के वे वास्तव में हकदार हैं।
मेरा मानना है कि प्रशांत किशोर जैसे व्यक्ति उसी दल
को ‘जितवा’ सकते हैं जिसे जनता पहले से ही जिताने का कमा मन बना चुकी होती है।
अब तक ऐसा ही हुआ है।
जो दल जीतने लायक नहीं होता ,उसे प्रशांत क्या, कोई भी नहीं जितवा सकता।
हां,जिस दल या नेता में आत्म विश्वास की कमी होती है,
वही प्रशांत की मदद लेता रहता है।
खैर, संभव है कि प्रशांत की उपस्थिति का सकारात्मक मनोवैज्ञानिक असर दल या नेता पर पड़ता होगा !
चुनावों में प्रशांत की भूमिका कुछ- कुछ मीडिया जैसी ही होती है।
2017 का उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव रिजल्ट इस बात का गवाह है कि कांग्रेस की प्रशांत किशोर कोई मदद नहीं कर सकते।
ठीक ही कहा गया है कि जो अपनी मदद नहीं कर सकता ,उसका भगवान भी मददगार नहीं हो सकता।
प्रशांत की सलाह पर अनेक खाट सभाएं करवाने के बावजूद
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मात्र 7 सीटें मिल सकीं।
जबकि 2012 में वहां कांग्रेस को 28 सीटें मिली थीं।
यहीं नहीं, प्रशांत की मदद के बावजूद 2017 में अमेठी की सभी चार सीटें भी कांग्रेस हार गई।
2014 में प्रशांत, नरेंद्र मोदी के साथ नहीं होते तो क्या मोदी को सत्ता नहीं मिल पाती ?
क्या 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में राजद-जदयू की जोड़ी हार जाती,यदि प्रशांत नहीं होते ?
मीडिया और प्रशांत जैसे लोग आंकड़े जुटा सकते हैं।
कुछ सूचनाएं दे सकते हैं जिससे दलों -नेताओं को संभवतः सुविधा हो जाए।
पर, क्या किसी आम चुनाव में इस देश में मीडिया का भी रोल निर्णायक रहा है ?
मुझे तो याद नहीं।
हालांकि मीडिया का एक हिस्सा आजादी के बाद से ही ऐसा अहंकारपूर्ण व्यवहार करता रहा है मानो उसी टिटहरी की टांगों पर यह देश टिका है।
आज भी कुछ मीडिया जन का ऐसा ही व्यवहार है।
हालांकि सबका नहीं।
कुछ उदाहरण --गरीबी हटाओ -बैंक राष्ट्रीयकरण की पृष्ठभूमि में अधिकतर बड़े मीडिया हाउस इंदिरा गांधी के खिलाफ थे ।
फिर भी इंंदिरा गांधी की पार्टी 1971 में लोस चुनाव जीत गई।
1991 का लोक सभा चुनाव और 1995 का बिहार विधान सभा चुनाव मंडल आरक्षण विवाद की पृष्ठभूमि में हुए थे।
अपवादों को छोड़कर मीडिया लालू प्रसाद के सख्त खिलाफ था।फिर भी लालू जीते।
पहले भी था।पर 2014 में सत्ता में आने के बाद भी मीडिया का बड़ा हिस्सा नरेंद्र मोदी के सख्त खिलाफ रहा है।
अभूतपूर्व ढंग से।
आज भी है।
प्रशांत भी अब मोदी के साथ नहीं हैं।
फिर भी जनता ने मोदी को 2019 के लोस चुनाव में अपेक्षाकृत अधिक सीटें दीं।
इसलिए आंकड़े जुटाने व नेताओं के बीच संदेशवाहक-संवाद का काम करने की महत्वपूर्ण भूमिका प्रशांत की जरुर बनी रहेगी।
क्योंकि आज की राजनीति में प्रशांत जैसा विद्याव्यसनी -बुद्धिजीवी बहुत ही कम आ रहे हैं।
पर, यदि यह कहते रहिएगा कि प्रशांत किसी दल को जिता-हरा देंगे तो ऐसा कह कर आप खुद प्रशांतं के साथ अन्याय करेंगे।
फिर तो एक दिन उन्हें कोई नहीं पूछेगा।
क्योंकि उनकी विफलताओं की लिस्ट लंबी होने पर उन्हें कौन पूछेगा ?
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18 फरवरी 2020
दीजिए जितने के वे हकदार हैं।
---सुरेंद्र किशोर .......
प्रशांत किशोर की इन दिनों बड़ी चर्चा है।
चर्चा उससे भी अधिक है जितने के वे वास्तव में हकदार हैं।
मेरा मानना है कि प्रशांत किशोर जैसे व्यक्ति उसी दल
को ‘जितवा’ सकते हैं जिसे जनता पहले से ही जिताने का कमा मन बना चुकी होती है।
अब तक ऐसा ही हुआ है।
जो दल जीतने लायक नहीं होता ,उसे प्रशांत क्या, कोई भी नहीं जितवा सकता।
हां,जिस दल या नेता में आत्म विश्वास की कमी होती है,
वही प्रशांत की मदद लेता रहता है।
खैर, संभव है कि प्रशांत की उपस्थिति का सकारात्मक मनोवैज्ञानिक असर दल या नेता पर पड़ता होगा !
चुनावों में प्रशांत की भूमिका कुछ- कुछ मीडिया जैसी ही होती है।
2017 का उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव रिजल्ट इस बात का गवाह है कि कांग्रेस की प्रशांत किशोर कोई मदद नहीं कर सकते।
ठीक ही कहा गया है कि जो अपनी मदद नहीं कर सकता ,उसका भगवान भी मददगार नहीं हो सकता।
प्रशांत की सलाह पर अनेक खाट सभाएं करवाने के बावजूद
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मात्र 7 सीटें मिल सकीं।
जबकि 2012 में वहां कांग्रेस को 28 सीटें मिली थीं।
यहीं नहीं, प्रशांत की मदद के बावजूद 2017 में अमेठी की सभी चार सीटें भी कांग्रेस हार गई।
2014 में प्रशांत, नरेंद्र मोदी के साथ नहीं होते तो क्या मोदी को सत्ता नहीं मिल पाती ?
क्या 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में राजद-जदयू की जोड़ी हार जाती,यदि प्रशांत नहीं होते ?
मीडिया और प्रशांत जैसे लोग आंकड़े जुटा सकते हैं।
कुछ सूचनाएं दे सकते हैं जिससे दलों -नेताओं को संभवतः सुविधा हो जाए।
पर, क्या किसी आम चुनाव में इस देश में मीडिया का भी रोल निर्णायक रहा है ?
मुझे तो याद नहीं।
हालांकि मीडिया का एक हिस्सा आजादी के बाद से ही ऐसा अहंकारपूर्ण व्यवहार करता रहा है मानो उसी टिटहरी की टांगों पर यह देश टिका है।
आज भी कुछ मीडिया जन का ऐसा ही व्यवहार है।
हालांकि सबका नहीं।
कुछ उदाहरण --गरीबी हटाओ -बैंक राष्ट्रीयकरण की पृष्ठभूमि में अधिकतर बड़े मीडिया हाउस इंदिरा गांधी के खिलाफ थे ।
फिर भी इंंदिरा गांधी की पार्टी 1971 में लोस चुनाव जीत गई।
1991 का लोक सभा चुनाव और 1995 का बिहार विधान सभा चुनाव मंडल आरक्षण विवाद की पृष्ठभूमि में हुए थे।
अपवादों को छोड़कर मीडिया लालू प्रसाद के सख्त खिलाफ था।फिर भी लालू जीते।
पहले भी था।पर 2014 में सत्ता में आने के बाद भी मीडिया का बड़ा हिस्सा नरेंद्र मोदी के सख्त खिलाफ रहा है।
अभूतपूर्व ढंग से।
आज भी है।
प्रशांत भी अब मोदी के साथ नहीं हैं।
फिर भी जनता ने मोदी को 2019 के लोस चुनाव में अपेक्षाकृत अधिक सीटें दीं।
इसलिए आंकड़े जुटाने व नेताओं के बीच संदेशवाहक-संवाद का काम करने की महत्वपूर्ण भूमिका प्रशांत की जरुर बनी रहेगी।
क्योंकि आज की राजनीति में प्रशांत जैसा विद्याव्यसनी -बुद्धिजीवी बहुत ही कम आ रहे हैं।
पर, यदि यह कहते रहिएगा कि प्रशांत किसी दल को जिता-हरा देंगे तो ऐसा कह कर आप खुद प्रशांतं के साथ अन्याय करेंगे।
फिर तो एक दिन उन्हें कोई नहीं पूछेगा।
क्योंकि उनकी विफलताओं की लिस्ट लंबी होने पर उन्हें कौन पूछेगा ?
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18 फरवरी 2020
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