अब एक साथ चुनाव की जरूरत
सुरेंद्र किशोर
कर्नाटका तख्ता पलट प्रकरण ने भी देश में लोक सभा और विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने की जरुरत रेखांकित कर दी है।
कांग्रेस नीत गठबंधन के 16 विधायकों के सदन की सदस्यता से इस्तीफे के बाद ही कुमार स्वामी सरकार का
जाना तय हो गया था।विश्वास प्रस्ताव पर ऐतिहासिक रूप से लंबी चर्चा के बावजूद उन विधायकों की घर वापसी नहीं कराई जा सकी।
याद रहे कि दो निर्दलीय विधायकों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।
इस थोक दल बदल का एक कारण पैसा व पद भी हो ही सकता है।पर, मूल कारण कुछ और है।
पक्ष परिवत्र्तन करने वाले विधायकों की मुख्य चिंता यह रही कि वे अगला चुनाव कैसे जीतेंगे।क्योंकि कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के जनाधार
के वापस लौटने के फिलहाल संकेत नहीं हैं।
ऐसी ही चिंता गोवा में भी देखी गई जहां 15 में से 10 कांग्रेस विधायकों ने पार्टी छोड़ दी। कांग्रेस में वे अपना कोई राजनीतिक भविष्य नहीं देख रहे थे।
इसी साल जिस कर्नाटका राज्य की लोक सभा की 28 में से 25 सीटें भाजपा को मिल चुकी हो,उस राज्य में कांगे्रसनीत गठबंधन के विधायकों का चुनावी भविष्य कैसा रहेगा,इस पर बहुत अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है।
एक तरफ तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलांे की हालत ठीक नहीं है,दूसरी ओर निकट भविष्य में भाजपा व राजग के समक्ष किसी तरह की राजनीतिक चुनौती खड़ी करने की स्थिति में प्रतिपक्ष नजर नहीं आता ।
ऐसे में वैसे विधायक क्या करेंगे, जिनका सबसे बड़ा लक्ष्य विधायक बनना होता है।
कल्पना कीजिए कि यदि 2019 के लोक सभा चुनाव के साथ-साथ कर्नाटका विधान सभा के भी चुनाव संपन्न हो गए होते तो राज्य सरकार के गिरने की नौबत नहीं आती।
क्योंकि अधिकतर मतदाताओं का मूड राजग के पक्ष में रहा।
हालांकि ताजा राजनीतिक तख्ता पलट से भाजपा को भी बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है।
ऐसे विधायकों के बल पर जब आप सरकार बनाएंगे जिनकी लाॅयल्टी किसी पार्टी के प्रति नहीं बल्कि अपने राजनीतिक कैरियर के प्रति हो,उनके साथ आप कितने दिनों तक सरकार चला पाएंगे ?
ऐसे मामलों में इस देश में अच्छा अनुभव नहीं रहा है।
संभव है कि किसी कारणवश अगली भाजपा सरकार की आयु भी छोटी हो जाए और कर्नाटक में फिर से विधान सभा चुनाव कराना पड़ जाए ।
अधिक चुनाव यानी अधिक खर्च और सरकारी कामकाज में अधिक व्यवधान ।
फिर क्यों नहीं ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की ओर देश लौट जाए ?
राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने भी इस साल के अपने अभिभाषण में कहा कि ‘यह समय की मांग है कि एक राष्ट्र एक चुनाव की व्यवस्था लाई जाए जिससे देश का तेजी से विकास हो और देश लाभान्वित हो।’
याद रहे कि बार -बार चुनाव के कारण चुनाव आचार संहिता लागू करनी पड़ती है जिससे कुछ समय के लिए विकास रुकता है।
चुनाव पर अधिक खर्च होते हैं और सरकारी सेवक चुनाव कार्य में व्यस्त हो जाते हैं।उससे भी जनता के काम बाधित होते हैं।
पर आश्चर्य है कि कांग्रेस ने भी एक राष्ट्र,एक चुनाव का विरोध कर दिया है।
जबकि जब एक साथ चुनाव हो रहे थे,तो उन दिनों के
कांग्रेस के ही नामी गिरामी नेता सत्ता के शीर्ष पर थे।
1952 से 1967 तक लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ-साथ ही होते थे।
पर 1971 के लोक सभा के मध्यावधि चुनाव के साथ पुरानी व्यवस्था समाप्त हो गई।
1971 के बाद कम से कम दो बार ऐसे अवसर आए जब लोक सभा के चुनावों के तुरंत बाद राज्यों के भी चुनाव करवा दिए गए।
यह तर्क दिया गया कि राज्य सरकारों ने जनादेश खो दिया है।
आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1977 में लोक सभा का चुनाव हुआ।
जनता पार्टी ने लोकसभा में बहुमत हासिल कर लिया।
उस चुनाव में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी तक भी चुनाव हार गए थे।
जनता पार्टी ने तर्क दिया कि चूंकि कांग्रेस ने जनता का विश्वास खो दिया है,इसलिए उन राज्य विधान सभाओं के भी चुनाव होने चाहिए जहां कांग्रेस की सरकारें हैं।
इंदिरा गांधी ने जब लोक सभा चुनाव की घोषणा की ,उसके तत्काल बाद जय प्रकाश नारायण ने कह दिया था कि यदि जनता पार्टी को केंद्र में बहुमत मिल गया तो हम विधान सभाओं के भी चुनाव करा देंगे।
आपातकाल से पहले जेपी आंदोलन की मुख्य मांग भी थी कि बिहार विधान सभा को भंग करके नए चुनाव कराएं जाएं।
जब 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बन गई तो उसने जेपी के वायदे को लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर दी।मोरारजी सरकार ने नौ कांग्रेस
शासित राज्यों की विधान सभाओं को भंग करने की राष्ट्रपति से सिफारिश की।
उन दिनों उप राष्ट्रपति बी.डी.जत्ती कार्यवाहक राष्ट्रपति थे।उन्होंने मोरारजी सरकार की सिफारिश को लागू करने में विलंब कर दिया।वे इस तर्क से सहमत नहीं थे कि
लोक सभा के चुनाव नतीजे के अनुकूल ही मतदातागण विधान सभाओं के लिए भी मतदान करेंगे।
उन दिनों राजनीतिक हलकों में यह अपुष्ट चर्चा थी कि यदि विधान सभाओं को भंग करने की अधिसूचना राष्ट्रपति जारी नहीं करेंगे तो मोरारजी देसाई सरकार इस्तीफा दे देगी।
इसी मुद्दे पर दुबारा चुनाव होगा।
इसके बाद जत्ती साहब ने अधिसूचना जारी करने का आदेश जारी कर दिया।नौ राज्यों में चुनाव हुए।
वहां भी जनता पार्टी की जीत हुई।
यानी मान्यवर जत्ती साहब जिस आधार पर अधिसूचना जारी करने में आगा पीछा कर रहे थे ,वह आधार सही नहीं था।
ऐसा ही अवसर 1980 में आया था।चरण सिंह की सरकार के गिरने के बाद जनवरी, 1980 में लोक सभा के चुनाव हुए।
इंदिरा गांधी फिर सत्ता में आ गईं।
एक बार फिर यह सवाल उठा कि जिन राज्यों में जनता पार्टी की सरकारें हैं,उनके साथ केंद्र की कांगे्रसी सरकार कैसा सलूक करे ?
इतिहास दुहराया गया।
एक बार फिर नौ राज्यों की सरकारें बर्खास्त कर दी गईं।
वहां विधान सभाओं के चुनाव हुए।वहां भी केंद्र की तरह ही कांगे्रेस की ही सरकारें बनीं।
यानी जो जनादेश केंद्र के लिए था,वैसा ही जनादेश राज्यों के लिए भी रहा।
फिर अलग -अलग चुनावों का औचित्य ही क्या हैं ?
क्यों बार -बार चुनाव हो और अधिक खर्च किए जाए।
यदि 1977 में लोक सभा और विधान सभाओं के लिए एक साथ चुनाव हो गए होते तो कुछ ही महीने बाद अलग से चुनाव कराने की जरूरत ही क्यों पड़ती ?
यही काम 1980 में हो सकता था।
इस तरह 1971 की गलती को सुधारा जा सकता था।
1971 में लोक सभा का मध्यावधि चुनाव करा कर एक राष्ट्र दो चुनाव की परंपरा कायम कर दी गई जो आज तक जारी है।
उसे एक बार फिर पटरी पर लाने के लिए मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार प्रयत्नशील है।
पता नहीं, इस काम में उसे सफलता मिलेगी या नहीं।
एक साथ चुनाव कराने पर अतिरिक्त स्थायी चुनावी उपकरणों की खरीद पर कुछ अधिक खर्च जरूर आएगा।पर वे उपकरण दशकों तक काम आएंगे।पर राजनीतिक दलों के खर्च कम हो जाएंगे।
एक आकलन के अनुसार इस साल के लोक सभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने करीब 60 हजार करोड़ रुपए खर्च किए।
अलग से विधान सभा चुनाव पर इतने ही खर्च करने पड़ेंगे।
यानी, एक साथ चुनाव पर दलों का खर्च आधा हो जाएगा।
राजनीतिक दलों का खर्च यानी घुमा-फिरा कर जनता के पैसों का ही इस्तेमाल।
जहां तक क्षेत्रीय जन भावनाओं के प्रतिबिंबित होने का सवाल है,वह तो 1967 में भी प्रतिबिंवित हुए ही थे।
1967 के लोक सभा चुनाव के बाद केंद्र में तो कांग्रेस की सरकार बन गई,पर सात राज्यों में गैर कांग्रेस सरकारें बनीं।
एक साथ हुए उस आखिरी चुनाव के बाद अन्य दो राज्यों में दलबदल के कारण कांग्रेसी सरकारें गिर गईं और वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं थीं।
इसलिए यह कहना सही नहीं है कि अलग -अलग चुनाव होने से क्षेत्रीय आकांक्षाएं दब जाएंगी।
-- 25 जुलाई 2019 के प्रभात खबर में प्रकाशित--
सुरेंद्र किशोर
कर्नाटका तख्ता पलट प्रकरण ने भी देश में लोक सभा और विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने की जरुरत रेखांकित कर दी है।
कांग्रेस नीत गठबंधन के 16 विधायकों के सदन की सदस्यता से इस्तीफे के बाद ही कुमार स्वामी सरकार का
जाना तय हो गया था।विश्वास प्रस्ताव पर ऐतिहासिक रूप से लंबी चर्चा के बावजूद उन विधायकों की घर वापसी नहीं कराई जा सकी।
याद रहे कि दो निर्दलीय विधायकों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।
इस थोक दल बदल का एक कारण पैसा व पद भी हो ही सकता है।पर, मूल कारण कुछ और है।
पक्ष परिवत्र्तन करने वाले विधायकों की मुख्य चिंता यह रही कि वे अगला चुनाव कैसे जीतेंगे।क्योंकि कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के जनाधार
के वापस लौटने के फिलहाल संकेत नहीं हैं।
ऐसी ही चिंता गोवा में भी देखी गई जहां 15 में से 10 कांग्रेस विधायकों ने पार्टी छोड़ दी। कांग्रेस में वे अपना कोई राजनीतिक भविष्य नहीं देख रहे थे।
इसी साल जिस कर्नाटका राज्य की लोक सभा की 28 में से 25 सीटें भाजपा को मिल चुकी हो,उस राज्य में कांगे्रसनीत गठबंधन के विधायकों का चुनावी भविष्य कैसा रहेगा,इस पर बहुत अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है।
एक तरफ तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलांे की हालत ठीक नहीं है,दूसरी ओर निकट भविष्य में भाजपा व राजग के समक्ष किसी तरह की राजनीतिक चुनौती खड़ी करने की स्थिति में प्रतिपक्ष नजर नहीं आता ।
ऐसे में वैसे विधायक क्या करेंगे, जिनका सबसे बड़ा लक्ष्य विधायक बनना होता है।
कल्पना कीजिए कि यदि 2019 के लोक सभा चुनाव के साथ-साथ कर्नाटका विधान सभा के भी चुनाव संपन्न हो गए होते तो राज्य सरकार के गिरने की नौबत नहीं आती।
क्योंकि अधिकतर मतदाताओं का मूड राजग के पक्ष में रहा।
हालांकि ताजा राजनीतिक तख्ता पलट से भाजपा को भी बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है।
ऐसे विधायकों के बल पर जब आप सरकार बनाएंगे जिनकी लाॅयल्टी किसी पार्टी के प्रति नहीं बल्कि अपने राजनीतिक कैरियर के प्रति हो,उनके साथ आप कितने दिनों तक सरकार चला पाएंगे ?
ऐसे मामलों में इस देश में अच्छा अनुभव नहीं रहा है।
संभव है कि किसी कारणवश अगली भाजपा सरकार की आयु भी छोटी हो जाए और कर्नाटक में फिर से विधान सभा चुनाव कराना पड़ जाए ।
अधिक चुनाव यानी अधिक खर्च और सरकारी कामकाज में अधिक व्यवधान ।
फिर क्यों नहीं ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की ओर देश लौट जाए ?
राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने भी इस साल के अपने अभिभाषण में कहा कि ‘यह समय की मांग है कि एक राष्ट्र एक चुनाव की व्यवस्था लाई जाए जिससे देश का तेजी से विकास हो और देश लाभान्वित हो।’
याद रहे कि बार -बार चुनाव के कारण चुनाव आचार संहिता लागू करनी पड़ती है जिससे कुछ समय के लिए विकास रुकता है।
चुनाव पर अधिक खर्च होते हैं और सरकारी सेवक चुनाव कार्य में व्यस्त हो जाते हैं।उससे भी जनता के काम बाधित होते हैं।
पर आश्चर्य है कि कांग्रेस ने भी एक राष्ट्र,एक चुनाव का विरोध कर दिया है।
जबकि जब एक साथ चुनाव हो रहे थे,तो उन दिनों के
कांग्रेस के ही नामी गिरामी नेता सत्ता के शीर्ष पर थे।
1952 से 1967 तक लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ-साथ ही होते थे।
पर 1971 के लोक सभा के मध्यावधि चुनाव के साथ पुरानी व्यवस्था समाप्त हो गई।
1971 के बाद कम से कम दो बार ऐसे अवसर आए जब लोक सभा के चुनावों के तुरंत बाद राज्यों के भी चुनाव करवा दिए गए।
यह तर्क दिया गया कि राज्य सरकारों ने जनादेश खो दिया है।
आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1977 में लोक सभा का चुनाव हुआ।
जनता पार्टी ने लोकसभा में बहुमत हासिल कर लिया।
उस चुनाव में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी तक भी चुनाव हार गए थे।
जनता पार्टी ने तर्क दिया कि चूंकि कांग्रेस ने जनता का विश्वास खो दिया है,इसलिए उन राज्य विधान सभाओं के भी चुनाव होने चाहिए जहां कांग्रेस की सरकारें हैं।
इंदिरा गांधी ने जब लोक सभा चुनाव की घोषणा की ,उसके तत्काल बाद जय प्रकाश नारायण ने कह दिया था कि यदि जनता पार्टी को केंद्र में बहुमत मिल गया तो हम विधान सभाओं के भी चुनाव करा देंगे।
आपातकाल से पहले जेपी आंदोलन की मुख्य मांग भी थी कि बिहार विधान सभा को भंग करके नए चुनाव कराएं जाएं।
जब 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बन गई तो उसने जेपी के वायदे को लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर दी।मोरारजी सरकार ने नौ कांग्रेस
शासित राज्यों की विधान सभाओं को भंग करने की राष्ट्रपति से सिफारिश की।
उन दिनों उप राष्ट्रपति बी.डी.जत्ती कार्यवाहक राष्ट्रपति थे।उन्होंने मोरारजी सरकार की सिफारिश को लागू करने में विलंब कर दिया।वे इस तर्क से सहमत नहीं थे कि
लोक सभा के चुनाव नतीजे के अनुकूल ही मतदातागण विधान सभाओं के लिए भी मतदान करेंगे।
उन दिनों राजनीतिक हलकों में यह अपुष्ट चर्चा थी कि यदि विधान सभाओं को भंग करने की अधिसूचना राष्ट्रपति जारी नहीं करेंगे तो मोरारजी देसाई सरकार इस्तीफा दे देगी।
इसी मुद्दे पर दुबारा चुनाव होगा।
इसके बाद जत्ती साहब ने अधिसूचना जारी करने का आदेश जारी कर दिया।नौ राज्यों में चुनाव हुए।
वहां भी जनता पार्टी की जीत हुई।
यानी मान्यवर जत्ती साहब जिस आधार पर अधिसूचना जारी करने में आगा पीछा कर रहे थे ,वह आधार सही नहीं था।
ऐसा ही अवसर 1980 में आया था।चरण सिंह की सरकार के गिरने के बाद जनवरी, 1980 में लोक सभा के चुनाव हुए।
इंदिरा गांधी फिर सत्ता में आ गईं।
एक बार फिर यह सवाल उठा कि जिन राज्यों में जनता पार्टी की सरकारें हैं,उनके साथ केंद्र की कांगे्रसी सरकार कैसा सलूक करे ?
इतिहास दुहराया गया।
एक बार फिर नौ राज्यों की सरकारें बर्खास्त कर दी गईं।
वहां विधान सभाओं के चुनाव हुए।वहां भी केंद्र की तरह ही कांगे्रेस की ही सरकारें बनीं।
यानी जो जनादेश केंद्र के लिए था,वैसा ही जनादेश राज्यों के लिए भी रहा।
फिर अलग -अलग चुनावों का औचित्य ही क्या हैं ?
क्यों बार -बार चुनाव हो और अधिक खर्च किए जाए।
यदि 1977 में लोक सभा और विधान सभाओं के लिए एक साथ चुनाव हो गए होते तो कुछ ही महीने बाद अलग से चुनाव कराने की जरूरत ही क्यों पड़ती ?
यही काम 1980 में हो सकता था।
इस तरह 1971 की गलती को सुधारा जा सकता था।
1971 में लोक सभा का मध्यावधि चुनाव करा कर एक राष्ट्र दो चुनाव की परंपरा कायम कर दी गई जो आज तक जारी है।
उसे एक बार फिर पटरी पर लाने के लिए मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार प्रयत्नशील है।
पता नहीं, इस काम में उसे सफलता मिलेगी या नहीं।
एक साथ चुनाव कराने पर अतिरिक्त स्थायी चुनावी उपकरणों की खरीद पर कुछ अधिक खर्च जरूर आएगा।पर वे उपकरण दशकों तक काम आएंगे।पर राजनीतिक दलों के खर्च कम हो जाएंगे।
एक आकलन के अनुसार इस साल के लोक सभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने करीब 60 हजार करोड़ रुपए खर्च किए।
अलग से विधान सभा चुनाव पर इतने ही खर्च करने पड़ेंगे।
यानी, एक साथ चुनाव पर दलों का खर्च आधा हो जाएगा।
राजनीतिक दलों का खर्च यानी घुमा-फिरा कर जनता के पैसों का ही इस्तेमाल।
जहां तक क्षेत्रीय जन भावनाओं के प्रतिबिंबित होने का सवाल है,वह तो 1967 में भी प्रतिबिंवित हुए ही थे।
1967 के लोक सभा चुनाव के बाद केंद्र में तो कांग्रेस की सरकार बन गई,पर सात राज्यों में गैर कांग्रेस सरकारें बनीं।
एक साथ हुए उस आखिरी चुनाव के बाद अन्य दो राज्यों में दलबदल के कारण कांग्रेसी सरकारें गिर गईं और वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं थीं।
इसलिए यह कहना सही नहीं है कि अलग -अलग चुनाव होने से क्षेत्रीय आकांक्षाएं दब जाएंगी।
-- 25 जुलाई 2019 के प्रभात खबर में प्रकाशित--
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