रविवार, 21 जुलाई 2019

राजनेताओं में संत काॅमरेड ए.के.राय के निधन पर
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1977 में जब लोस चुनाव की घोषणा हुई,उस समय ए.के.राय हजारीबाग जेल में थे।
जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि में इमरजेंसी का दौर जारी था।
 वे  बिहार विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे।
जेपी ने प्रतिपक्षी विधायकों से ऐसा करने को कहा था। 
जनता पार्टी ने धनबाद छोड़कर बाकी सारी सीटों पर चुनाव लड़ा।पर धनबाद ए.के.राय के लिए छोड़ दिया था।
राय साहब पहले सी.पी.एम.थे।
पर बाद में माकपा से निकले कुछ अन्य प्रमुख नेताओं के साथ राय साहब ने माक्र्सवादी समन्वय समिति बनाई थी।
 जार्ज फर्नांडिस के बाद राय साहब दूसरे नेता थे जो बिहार से जब लोक सभा के लिए चुने गए तब वे जेल में ही थे।
इनके लिए दलीय नेताओं,कार्यकत्र्ताओं तथा आम लोगों ने चुनाव प्रचार किया।
इमरजेंसी की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव में माहौल ही कुछ ऐसा था।
  जनता पार्टी ने उन्हें टिकट आॅफर किया था,पर उन्हें किसी अन्य दल का टिकट  स्वीकार नहीं था।फिर जय प्रकाश नारायण के हस्तक्षेप से वे जनता पार्टी के समर्थित उम्मीदवार बने।
 राय साहब तीन बार विधायक और तीन बार सांसद रहे।
 पर न तो उन्होंने अपना परिवार खड़ा किया और न ही कोई संपत्ति बनाई।
खुद इंजीनियर थे।पर मजदूरों के कल्याण -अधिकार के लिए संघर्ष में अपना पूरा जीवन होम कर दिया।
 अंतिम दिनों में वे एक साथी के साथ धनबाद में रह रहे थे।
उन्होंने कलकत्ता इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ाई की थी।उन्होंने धनबाद जिले के सिंदरी के पीडीआईएल में नौकरी शुरू की थी।पर ठेका मजदूरों के हक के लिए संघर्ष करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी।
  मुझसे कोई पूछे कि इस गरीब देश का नेता कैसा होना चाहिए,तो मैं कुछ अन्य थोड़े से नेताओं के नाम के साथ ए.के. राय का भी नाम लूंगा।
1972 में जब वे बिहार विधान सभा के सदस्य थे तो मैं उनके पटना स्थित सरकारी निवास यानी एम.एल.ए.फ्लैट जाकर उनके साथ कभी -कभी भूंजा खाता था और बातें करता था।
पूरी तरह वे ‘डि-क्लास’ थे । बातचीत और पहनावे से  कहीं से भी यह नहीं लगता था कि वे इंजीनियर रह चुके हैं।
 ईमानदारी ,कर्मठता और हिम्मत के कारण जीवन काल में भी उनका लोगों में ऐसा सम्मान था,वैसा कम ही नेताओं को नसीब होता है। 

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