सात जुलाई, 2019 के प्रभात खबर में प्रो.जाबिर हुसैन का आज की राजनीति पर एक विश्लेषात्मक लेख छपा है। वास्तविकता के इतने करीब लेख आमतौर पर नहीं लिखे जाते।
आमतौर पर कोई गंभीर नेता तो ऐसी बातें न तो लिखता है और न बोलता है। पता नहीं, जाबिर साहब से किसी ने यह कहा कि नहीं कि ऐसा लेख लिखना आपके लिए सही नहीं है। क्योंकि सत्य आज शायद ही कोई सुनना चाहता है!
हां, मुझसे 1972 में प्रणव चटर्जी ने जरूर ऐसी बात कही थी। समाजवादियों की फूट और एकता के प्रयास शीर्षक से सुरेंद्र अकेला के नाम से तब मैंने एक लंबा लेख लिख दिया था। लेख 18 सितंबर 1972 के दैनिक ‘प्रदीप’ में संपादकीय पृष्ठ पर छपा था। उसे पढ़कर चटर्जी साहब ने जरूर कहा कि ‘सुरेंद्र जी निजी सचिव को लेख नहीं लिखना चाहिए।’
याद रहे कि मैं राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर कर्पूरी ठाकुर का तब निजी सचिव था। उधर चटर्जी साहब कर्पूरी जी के खासमखास थे। कर्पूरी जी तो संकोची व शालीन व्यक्ति थे। उन्होंने मुझसे इसलिए कुछ नहीं कहा कि मैं नाराज हो जाऊंगा।
दरअसल मैं वहां कोई नौकरी नहीं कर रहा था। कर्पूरी जी के बुलावे पर उनके साथ काम कर रहा था। मुझे समाजवादी आंदोलन की अधिक चिंता थी। सो मैंने लिख दिया था।
संभवतः जाबिर साहब को भी उस आंदोलन की चिंता है जिसके साथ उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य साल बिताए हैं। महत्वपूर्ण योगदान भी किया है। पर, लगता है कि आज तो ऐसी नेक सलाह की किसी को कोई जरूरत और भी नहीं है।
आमतौर पर कोई गंभीर नेता तो ऐसी बातें न तो लिखता है और न बोलता है। पता नहीं, जाबिर साहब से किसी ने यह कहा कि नहीं कि ऐसा लेख लिखना आपके लिए सही नहीं है। क्योंकि सत्य आज शायद ही कोई सुनना चाहता है!
हां, मुझसे 1972 में प्रणव चटर्जी ने जरूर ऐसी बात कही थी। समाजवादियों की फूट और एकता के प्रयास शीर्षक से सुरेंद्र अकेला के नाम से तब मैंने एक लंबा लेख लिख दिया था। लेख 18 सितंबर 1972 के दैनिक ‘प्रदीप’ में संपादकीय पृष्ठ पर छपा था। उसे पढ़कर चटर्जी साहब ने जरूर कहा कि ‘सुरेंद्र जी निजी सचिव को लेख नहीं लिखना चाहिए।’
याद रहे कि मैं राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर कर्पूरी ठाकुर का तब निजी सचिव था। उधर चटर्जी साहब कर्पूरी जी के खासमखास थे। कर्पूरी जी तो संकोची व शालीन व्यक्ति थे। उन्होंने मुझसे इसलिए कुछ नहीं कहा कि मैं नाराज हो जाऊंगा।
दरअसल मैं वहां कोई नौकरी नहीं कर रहा था। कर्पूरी जी के बुलावे पर उनके साथ काम कर रहा था। मुझे समाजवादी आंदोलन की अधिक चिंता थी। सो मैंने लिख दिया था।
संभवतः जाबिर साहब को भी उस आंदोलन की चिंता है जिसके साथ उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य साल बिताए हैं। महत्वपूर्ण योगदान भी किया है। पर, लगता है कि आज तो ऐसी नेक सलाह की किसी को कोई जरूरत और भी नहीं है।
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