शनिवार, 13 जुलाई 2019

अपनी जड़ों की ओर लौटने की मजबूरी
    --सुरेंद्र किशोर--
इस देश में सक्रिय समाजवादी पृष्ठभूमि वाले  राजनीतिक दल इन दिनों दोराहे पर हैं।
इस साल के लोक सभा चुनाव मंे भारी पराजय के बाद वे किंकत्र्तव्य विमूढ़ नजर आ रहे हैं।आखिर अब वे किधर जाएं ?
उन में से कुछ नेता कह रहे हैं कि हम जनता के बीच जाएंगे।
पर, क्या लेकर उसके पास जाएंगे ?जब कुछ देने के लिए आपके पास सरकार थीं तो जिसको जो कुछ दिया ,या नहीं दिया,उसका परिणाम तो इस चुनाव में मिल गया। 
राहुल गांधी भी ग्रामीण महिला कलावती के पास गए थे ?
उसका क्या असर हुआ ?
दरअसल जब आप सत्ता में होते हैं तो आपके पास देने के लिए एक सरकार होती है।
पर उस समय जब आप अंधे की रेवड़ी की तरह अपनों को ही बांटने में लगे रहे तो अब आपके पास व्यापक जनता का विश्वास पाने के क्या उपाय हैं ?

 अभी तो स्थिति यह है कि सीमित वोट बैंक के सहारे आपका कुछ नहीं हो सकता।अब तो उन स्थिति पर आपको विचार करना होगा कि आप व्यापक जनता से सिमट कर सीमित वोट बैंक तक क्यों सिमट गए।
यदि ऐसा ही बना रहा तो आपका भी देर -सवेर वही हाल होगा जो हाल कुछ राजनीतिक दलों का इस देश में हो चुका है।  
सी.राज गोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी और राजा कमाख्या नारायण सिंह के जन क्रांति दल की तरह कई दल समय के साथ विलुप्त हो गए।
  सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या आपकी मौजूदा कार्य नीति-रणनीति के सहारे आपके पुराने दिन लौट सकते हैं ?
लगता तो नहीं है।क्योंकि इस राह में कांटे ही कांटे हैं।
राजग खास कर भाजपा ने उनकी राह में अनेक कांटे बो दिए हैं।बो भी रहे हैं।
अब आपको यानी समाजवादी धारा के दलों को राजग खासकर भाजपा से मुकाबला कर उससे वह वोट छीनना है जो कभी आपका ही था,अब उनके पास चला गया है।
इसके लिए जरूरी है कि आप अपनी शैली बदलें।क्योंकि मौजूदा शैली के रहते ही आपके वोट आपके हाथों से निकल गए।
 समाजवादी धारा की राजनीति को पहले समझना होगा।
स्वात्रंत्तोतर समाजवादी राजनीति को तीन कालावधियों में बांटा जा सकता है।
आजादी के तत्काल बाद की समाजवादी राजनीति मुख्यतः आचार्य नरेंद्र देव ,जय प्रकाश नारायण डा.राम मनोहर लोहिया की आदर्शवादी राजनीति थी।
  आजादी के बाद उसी अवधि में समाजवादी कार्यकत्र्ताओं का सबसे अधिक निर्माण हुआ।
  1967 में डा.लोहिया के निधन के बाद राज नारायण,कर्पूरी ठाकुर और मधु लिमये की कालावधि की समाजवादी राजनीति रही।
  इस अवधि में समाजवादियों में कर्म व  नैतिकता की कसावट आचार्य नरेंद्र देव-जेपी-लोहिया युग जैसी तो नहीं रही,पर सत्ताधारी कांग्रेसियों से वे साफ-साफ अलग व बेहतर नजर आते थे।
 पर कर्पूरी ठाकुर के 1988 में निधन के बाद बिहार में समाजवादी राजनीति की शैली ही पूरी तरह बदल गई।
उत्तर प्रदेश में राजनारायण के बाद मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी राजनीति की कमान संभाल ली।
मुलायम-लालू की राजनीति कमोवेश एक समान रही है।
  1990 का मंडल आरक्षण का जमाना था।मंदिर आंदोलन भी उसी दौरान चला।वह भावनाओं का भी दौर था।
आरक्षण विरोधियों के आंदोलन का बिहार में मुख्य मंत्री के रूप में लालू प्रसाद ने बहादुरी से मुकाबला किया ।
वह सामाजिक न्याय का आंदोलन था जिसमें सफलता का लाभ लालू प्रसाद को सबसे अधिक मिला।इससे लालू प्रसाद सभी पिछड़ों के बीच काफी लोकप्रिय हो गए।
  मुलायम सिंह यादव को भी उस दौर का लाभ मिला जिसमंें मंदिर आंदोलन का भी दौर शामिल था।
लालू प्रसाद की सरकार ने लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को  रोका और उन्हें समस्ती पुर में गिरफ्तार करवाया ।
  इसका लाभ भी  मिला।
1991 के लोक सभा चुनाव और 1995 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले दल को भारी सफलता मिली।
  पर उसी सफलता के साथ भटकाव भी शुरू हो गया।
 समय के साथ भटकाव बढ़ता ही चला गया।
यादव और मुस्लिम मतदाता तो फिर भी लालू प्रसाद के साथ बने रहे,पर अन्य वोटर धीरे-धीरे  कटने लगे।
 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव के समय तो जदयू से चुनावी तालमेल का लाभ राजद को बिहार में मिल गया,पर इस बार उसकी अनुपस्थिति में लोक सभा चुनाव में राजद जीरो पर आउट हो गया।
इससे पहले राजद ने एक अन्य विवादास्पद कदम उठा लिया।
राजद ने  सामान्य वर्ग के आरक्षण के लिए संसद में पेश विधेयक का  विरोध कर दिया।इसका नुकसान राजद को होना ही था।
  इन विषम राजनीतिक परिस्थितियों से समाजवादी धारा वाले इस दल को कठिन मार्ग से गुजर कर अपने लिए रास्ता बनाना है।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की भी आगे की राह कठिन है।
देखना है कि वह उसे कैसे पार करती है।
 पर बिहार आंदोलनों की भूमि रहा है।यहां राजद में भी जन आंदोलन का हौसला रखने वाले नेता -कार्यकत्र्ता मौजूद हैं।भले उसकी कमी जरूर हुई है।
  अब तो  रास्ता जन आंदोलन का ही बचा है। आंदोलन के जरिए ही जनता से जुड़ने का विकल्प बचता  है।
  हालांकि उल्लेखनीय  है कि नरेंद्र मोदी और नीतीश सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में आम लोगों के कल्याण और विकास के लिए कई ठोस कदम उठाए हैं।
 उसके मुकाबले लालू प्रसाद के दल के पास एक ही बड़ी पूंजी है।
वह है 1990 में मंडल आरक्षण के बचाव में किया गया जोरदार आंदोलन।
  बालाकोट अभियान के अलावा राजग सरकार ने अपने विकास व कल्याण के कामों के जरिए भी मतदाताओं को अपनी ओर खींचा है।अपवादों को छोड़ दें तो ऐसे सम्यक विकास कार्यों से समाजवादी धारा की राजनीति को कम ही मतलब रहा है।
राजग शासन काल में बिजलीकरण का भारी विस्तार हुआ है।
 किसान सम्मान योजना ने बहुत बड़ी आबादी को मोहित किया है।
आयुष्मान भारत योजना,उज्ज्वला योजना,शौचालय योजना  और अब घर -घर नल जल योजना।
इनके अलावा भी कई  योजनाएं चली हैं।
सबसे बड़ी बात है कि केंद्र सरकार के मंत्रियों की छवि पर इस बीच कोई आंच नहीं आई।यह सब राजग को  अन्य दलों से अलग करता है। 
फिर भी राजद तथा अन्य गैर राजग दलों के लिए जनता से जुड़ने की राह बाकी  है।
  डबल इंजन की सरकार के कार्यकाल में  
लोगों के  बैंक खातों में सीधे सरकारी मद के पैसे जा रहे हैं।
पर इसमें भी कमीशनखोरी की खबरें आती रहती हैं।
 अन्य सरकारी योजनाओं में भी बिचैलिए हावी  हैं।उसमें संबंधित सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत है।
थानों और अंचल कार्यालयों में शायद ही कोई काम पैसों के बिना हो रहा है।गरीब परेशान हैं।
  साठ-सत्तर के दशक में  सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट दलों  के कार्यकत्र्ता गण सरकारी लूट और अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन करते थे।जेल जाते थे।
  परचे छपवा कर बांटते थे।जिला-जिला धरना देते थे।अन्य तरह से भी लोगों की मदद में शामिल रहते थे।
साठ के दशक में सोशलिस्ट कार्यकत्र्ता के रूप में मैं भी अपने इलाकों के भूमिहीन लोगों को अंचल कार्यालय से बासगीत का परचा दिलवाता था।बिना किसी रिश्वत के।
तब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी इस बात का ध्याान नहीं रखती थी कि यह तो सरकार का काम है,हम क्यों करें ?
 पर आज कुछ राजनीतिक कार्यकत्र्ता यह कह सकते हैं कि सरकार अपने कामों में विफल होगी तो उसका  चुनावी लाभ खुद ब खुद हमें मिल ही जाएगा।
पर यह आलसी कार्यकत्र्ताओं का तर्क है।बासगीत का परचा पाने वालों लोगों के वंशज आज भी उसे याद करते हैं।
  दरअसल समाजवादी पृष्ठभूमि वाले दलों को अपने बीच से निःस्वार्थी व कर्मठ कार्यकत्र्ताओं की जमात तैयार करनी होगी।
हालांकि आज की पंच सितारा संस्कृति वाली राजनीति में यह काम कठिन है,पर असंभव भी नहीं।मरता क्या न करता !
उन्हें स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाना होगा।
तब शायद धीरे -धीरे समाजवादी धारा के दल अपनी  पिछली ताकत हासिल करने की शुरूआत कर सकें।
पर समस्या यह है कि जिन दलों में टिकट,ठेकेदारी तथा अन्य तरह के लाभ के लिए ही अधिकतर कार्यकत्र्ता व नेता जुड़ते रहे हैं,उस दल से आंदोलन की उम्मीद कैसे पूरी हो सकेगी,यह देखना दिलचस्प होगा।
   प्रतिपक्षी दलों के एक हिस्से को यह गलतफहमी हो सकती है कि  नरेंद्र मोदी-नीतीश कुमार सरकार के अलोकप्रिय होने का बस हमें इंतजार करना चाहिए।
तब तक कुछ औपचारिक काम करते रहना चाहिए। कभी न कभी उसका चुनावी लाभ हमें मिल ही जाएगा ।इसलिए  हमें अपनी आरामदायक शैली वाली राजनीति को बदलने की  जरूरत नहीं है।
यदि ऐसी सोच है तो उसके लिए उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ सकता है ।क्योंकि लोक लुभावन काम करने में राजग सरकार की डबल इंजन वाली सरकारों की बराबरी में  अभी कोई अन्य दल  नहीं है। संकेत तो यह बताते हैं कि उसकी लोकप्रियता बढ़ते जाने की ही संभावना अधिक है। 
@ इस लेख का संपादित अंश आज के ‘प्रभात खबर’ में प्रकाशित@
    
   


   



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