शनिवार, 13 जुलाई 2019

--खुद अपनी मानहानि कराते राहुल-- --सुरेंद्र किशोर


पटना की अदालत से मानहानि के मामले में जमानत पा लेने के बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि ‘ मैं संविधान बचाने की लड़ाई लड़ रहा हूं।’
क्या किसी पर मानहानि का मुकदमा करना संविधान के खिलाफ बात है ?
इससे पहले  मुम्बई की  एक अदालत ने भी मानहानि के ही एक अन्य मुकदमे में उन्हें हाल में जमानत दे दी है।
पटना के इस दूसरे केस में जमानत मिलने के बाद इसी 6 जुलाई को  राहुल गांधी ने कहा कि ‘भाजपा और संघ के लोग मुझे तंग कर रहे हैं।’आप किसी की मानहानि करें और पीडि़त केस कर दे तो आपको तंग किया जा रहा है ?
यह क्या बात हुई ?कहावत है कि आप किसी की पिटाई भी कर दें,पर उसे रोने का भी अधिकार नहीं !
 मानहानि के ऐसे मुकदमों में होता यह है कि या तो आप अपने आरोपों को अदालत में सिद्ध कर देंं या फिर प्रार्थी  से  माफी मांग कर समझौता कर लें।
अदालतें समझौते की अनुमति आसानी से दे देती है।
उससे आम तौर पर मामला सलट जाता है।
पर माफी मांगने की जगह राहुल गांधी खुद को पीडि़त बताते रहे हैं।अभी वे समझौते की  मुद्रा में नहीं लगते हैं।
संभवतः वे उसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं।उन्होंने कहा भी है कि जो लोग नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़े होते हैं,उन्हें फंसाया जाता है।राजनीतिक कारणों से मुझ पर मुकदमे किए जा रहे हैं।पर मैं गरीब लोगों किसानों मजदूरों के साथ खड़ा हूं।
किसी बड़े नेता के लिए इस बात में कौन सी होशियारी है कि किसी पर निराधार आरोप लगा कर आप देश की कचहरियों के चक्कर काटते रहें और अन्य महत्वपूर्ण कामों से खुद को वंचित रखें ?
  पर बात दूसरी हो तो फिर क्या कहने !
यानी, क्या राहुल गांधी देश में आपातकाल -1975-77- की तरह की कानूनी व्यवस्था  की उम्मीद कर रहे हैं या इच्छा रखते हैं या अभ्यस्त हो गए हैं जिसके तहत वे किसी के खिलाफ कुछ भी आरोप लगा कर वे बच जाना चाहते हैं ?
  कांग्रेस में ऐसी प्रवृति आपातकाल में साफ -साफ देखी गई थी ।
 अपनी गद्दी बचाने के लिए तब देश में आपातकाल लगा दिया गया।जयप्रकाश नारायण सहित एक लाख से अधिक राजनीतिक नेताओं और कार्यकत्र्ताओं को विभिन्न जेलों में ठूंस दिया गया।उन्हें अदालत जाने से वंचित कर दिया गया।प्रेस का मुंह बंद कर दिया।साथ ही, यह कानूनी-प्रशासनिक प्रबंध भी कर दिया कि कहीं से न तो कोई लोकतांत्रिक आवाज उठे और न ही किसी अखबार में सरकार की हल्की आलोचना भी छपे। 
इतना ही नहीं,तब इंदिरा गांधी  सरकार ने 10 अगस्त 1975 को संसद से संविधान में 39 वां  संशोधन पास करवा दिया।
उसके तहत राष्ट्रपति,उप राष्ट्रपति ,प्रधान मंत्री और स्पीकर के खिलाफ चुनाव याचिका की सुनवाई से अदालतों को वंचित कर दिया गया था।यह बिलकुल असामान्य बात थी।
याद रहे कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की राय बरेली
से लोकसभा चुनाव को रद कर दिया था।वह 1971 में वहां से विजयी हुई थीं।
राजनारायण की चुनाव याचिका पर सुनवाई के बाद उन पर चुनाव में भ्रष्ट तरीका अपनाने का आरोप साबित हो गया था।  गनीमत रही कि बाद की मोरारजी देसाई सरकार ने इस संशोधन को संसद से बाद में समाप्त करवा दिया।
इमरजेंसी में चुपके- चुपके एक और संवैधानिक संशोधन का मसविदा तैयार हो रहा था।
उसके तहत यह प्रावधान किया जाने वाला था कि राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री जैसी कुछ बड़ी हस्तियों पर किसी भी तरह के मुकदमे नहीं चलाए जा सकेंगे।
पर,  बाद में इंदिरा सरकार ने वैसा विचार त्याग दिया।
  यानी यही आपातकालीन मानसिकता है कि किसी बड़ी हस्ती को कानून के दायरे से ऊपर कर दिया जाए।
यानी उस पर कोई कानून लागू ही नहीं हो।किसी की आप सार्वजनिक रूप से चाहे जितनी भी मानहानि कर दें ,पर आपके खिलाफ कानून का सहारा न लिया जाए।लिया जाएगा तो आप आरोप लगाएंगे कि मुझे  नाहक परेशान किया जा रहा है।क्या आप कानून से ऊपर हैं जिस तरह आपातकाल में खुद को इंदिरा गांधी ऊपर कर लिया था ? 
 पर,आज तो देश में लोकतंत्र है।कानून का शासन है।लोगों को अपनी जान और प्रतिष्ठा की रक्षा का अधिकार है।
पर कुछ लोग है कि जो चाहते हैं कि वे सरे आम  किसी की इज्जत उतारते चलें और जिसका अपमान हो, वह अदालत भी न जा सके।क्या राहुल गांधी यही चाहते हैं ?
आपातकाल में भारत सरकार के एटाॅर्नी जनरल नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि यदि शासन किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ किसी अदालत में सुनवाई नहीं हो सकती।
याद रहे कि किसी-किसी व्यक्ति को अपनी इज्जत अपनी जान से भी अधिक प्यारी होती है।
क्या राहुल गांधी का मौजूदा रुख इमर्जेंसी का ही हैंग ओवर है ?इसे 1975-77 की इमर्जेंसी वाली मानसिकता नहीं कहा जाएगा ?
  गौरी लंकेश की हत्या की चर्चा करते हुए  राहुल गांधी ने कहा था कि कोई जब भाजपा और आर.एस.एस.की विचारधारा के खिलाफ बोलता है तो उस पर दबाव डाला जाता है,उस पर हमला होता है।यहां तक कि उसकी हत्या भी हो जाती है।
इस आपत्तिजनक बयान के  बाद मुम्बई की अदालत में आर.एस.एस.कार्यकत्र्ता और वकील ध्रुतिमान जोशी ने सोनिया गांधी,राहुल गांधी और सीताराम येचुरी के खिलाफ 2017 में मानहानि का मुकदमा दायर किया। 
उसी के सिलसिले में राहुल गांधी और सीताराम येचुरी ने गत 4 जुलाई को मुम्बई की अदालत में हाजिर होकर जमानत  ली।
  गत 13 अप्रैल 2019 को कर्नाटका के कोलार की चुनाव सभा में राहुल गांधी ने कहा था कि ‘नीरव मोदी हो, ललित मोदी हो या नरेंद्र मोदी हो,सारे चोरों का नाम मोदी ही क्यों होता है ?’  
जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मेादी ने खुद को चैकीदार कहा तो   राहुल गांधी पूरे चुनाव प्रचार के दौरान लगातार यह कहते रहे,‘चैकीदार चोर है।’यही बात वे श्रोताओं से भी बोलवाते रहे।
 यह गनीमत है कि खुद प्रधान मंत्री ने उन पर मानहानि का मुकदमा नहीं किया।हां,देश के अधिकतर मतदाताओं ने राहुल गांधी के इस आरोप पर विश्वास नहीं किया।
  पर बिहार सरकार के उप मुख्य मंत्री और भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने पटना की अदालत में जरूर राहुल गांधी पर मानहानि का मुकदमा कर दिया है। 
  अब उसकी सुनवाई चलेगी।
  सुशील मोदी के अनुसार ‘चुनाव जीतने के लिए राहुल गांधी ने सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया।ईमानदार प्रधान मंत्री को चोर कहा।
माफी मांगने के बदले खुद को पीडि़त बता रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा उन्हें परेशान कर रही है।’
  अब राहुल गांधी के समक्ष  विकल्प सीमित हंै।
या तो वे मोदी नाम धारी सारे लोगों को अदालती सुनवाई के दौरान चोर साबित कर दें जो एक असंभव बात है । या फिर प्रार्थी मोदी से माफी मांग लें।
 यदि ऐसा वे नहीं करते तो अदालती फैसले का इंतजार करें।
क्योंकि संकेत हैं कि माफी के बिना प्रार्थी मुकदमा वापस लेने को तैयार ही नहीं हैं।
 इस मुकदमे के साथ एक बड़ा मुद्दा भी जुड़ा हुआ है।
  आज सार्वजनिक संवाद और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों का स्तर काफी नीचे गिर गया है।
खास कर चुनाव प्रचारों के दिनों में तो बड़े -बड़े नेता भी आए दिन मर्यादाएं लांघ जाते रहे हैं।
 कई साल पहले के एक चुनाव के बाद एक बड़े नेता ने यह कह कर शालीन लोगों का रोष शांत करने के लिए कहा था कि चुनाव प्रचार के दौरान के अशालीन आरोप-प्रत्यारोपों को होली की गाली मान कर भुला दिया जाना चाहिए।
  पर,लगता है कि 2019 के लोक सभा चुनाव प्रचार के संवाद का स्तर उस सीमा रेखा को भी लांघ गया।
मानहानि के मुकदमे के प्रार्थी का रुख देख कर तो यही लगता है।अच्छा होगा,यदि मौजूदा मुकदमा सार्वजनिक जीवन
में बोली की मर्यादा कायम करने में मदद करे।
@मेरे इस लेख का संपादित अंश 10 जुलाई 2019 के दैनिक जागरण में प्रकाशित@  

  
  

           


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