वामपंथी इतिहासकार शमसुल इस्लाम ने 1942 के आंदोलन
के साथ ‘शर्मनाक विश्वासघात’ करने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तो जम कर खिंचाई की है,
पर,डा.आम्बेडकर और सी.राज गोपालाचारी के ‘विश्वासघात’ की चर्चा तक नहीं की।
जिन्ना का नाम भी क्यों लेते !
इससे गंगाधर अधिकारी की आत्मा को चोट पहुंच सकती थी जिस कम्युनिस्ट नेता ने द्विराष्ट्र के सिद्धांत का समर्थन किया था।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उन्हीं की थ्योरी थी।
इतना ही नहीं, विद्वान शमसुल साहब ने इन ‘पापियों के पाप धोने वाल’े जवाहरलाल नेहरू का जिक्र तक नहीं किया जिन्होंने अपने पहले मंत्रिमंडल में ही इन तीनों ‘पापियो’ं को शामिल करके इनके ‘पाप’ को पहले ही ‘धो डाला’ था।
इन तीन में से एक ‘पापी’ राज गोपालाचारी को तो नेहरू राष्ट्रपति बनवाना चाहते थे।
पर जब पटेल आड़े आने लगे तो नेहरू ने प्रधान मंत्री पद से इस्तीफा दे देने की भी धमकी दे डाली थी।
पर व्यापक विरोध देख कर नेहरू इस्तीफे से पीछे हट गए।कांग्रेस के दिग्गजों ने नेहरू से यही कहा था कि 1942 के आंदोलन का विरोध करने वाले को हम और यह देश राष्ट्रपति कैसे मान लेंगे ?
शमसुल साहब जैसे इतिहासकार ने इस रहस्य को खोजने की कोशिश तक नहीं की कि स्वतंत्र व्यापार यानी खुले बाजार यानी लेसेज फेयर के कट्टर समर्थक राजा जी को नेहरू राष्ट्रपति क्यों बनवाना चाहते थे ।
राजा जी से उनके कौन से विचार मिलते थे ?
कौन सी समानता दोनों के बीच थी ?
जब कतिपय बुद्धिजीवियों के अर्ध देवता नेहरू ने ही इन तीनों ‘पापियो’ं को सम्मानित कर दिया तो आम जनता ने भी इनके उत्तराधिकारियों को कालांतर में आज देश की लगभग पूरी सत्ता सौंप दी।
शमसुल साहब ने इसकी खोज तो कर ली कि सी.पी.आई.के कई नेताओं ने 1942 की लड़ाई में हिस्सा लिया था,भले सी.पी.आई.ने नहीं लिया।अच्छा किया।यह बात सही भी है।
पर आर.एस.एस.और हिन्दू महा सभा के किन- किन लोगों ने आजादी की लड़ाई में भाग लिया ,उसका पता लगाने को काम दिल्ली विश्व विद्यालय के अध्यापक राकेश सिन्हा पर छोड़ दिया।
यदि सब कुछ शमसुल साहब ही लिख देते तो उन महान वामपंथी इतिहासकार के निदेश का क्या होता कि --‘राणा प्रताप और शिवाजी के शौर्य का गुणगान मत करना अन्यथा देश में हिन्दू सांप्रदायिकता बढ़ेगी।’
के साथ ‘शर्मनाक विश्वासघात’ करने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तो जम कर खिंचाई की है,
पर,डा.आम्बेडकर और सी.राज गोपालाचारी के ‘विश्वासघात’ की चर्चा तक नहीं की।
जिन्ना का नाम भी क्यों लेते !
इससे गंगाधर अधिकारी की आत्मा को चोट पहुंच सकती थी जिस कम्युनिस्ट नेता ने द्विराष्ट्र के सिद्धांत का समर्थन किया था।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उन्हीं की थ्योरी थी।
इतना ही नहीं, विद्वान शमसुल साहब ने इन ‘पापियों के पाप धोने वाल’े जवाहरलाल नेहरू का जिक्र तक नहीं किया जिन्होंने अपने पहले मंत्रिमंडल में ही इन तीनों ‘पापियो’ं को शामिल करके इनके ‘पाप’ को पहले ही ‘धो डाला’ था।
इन तीन में से एक ‘पापी’ राज गोपालाचारी को तो नेहरू राष्ट्रपति बनवाना चाहते थे।
पर जब पटेल आड़े आने लगे तो नेहरू ने प्रधान मंत्री पद से इस्तीफा दे देने की भी धमकी दे डाली थी।
पर व्यापक विरोध देख कर नेहरू इस्तीफे से पीछे हट गए।कांग्रेस के दिग्गजों ने नेहरू से यही कहा था कि 1942 के आंदोलन का विरोध करने वाले को हम और यह देश राष्ट्रपति कैसे मान लेंगे ?
शमसुल साहब जैसे इतिहासकार ने इस रहस्य को खोजने की कोशिश तक नहीं की कि स्वतंत्र व्यापार यानी खुले बाजार यानी लेसेज फेयर के कट्टर समर्थक राजा जी को नेहरू राष्ट्रपति क्यों बनवाना चाहते थे ।
राजा जी से उनके कौन से विचार मिलते थे ?
कौन सी समानता दोनों के बीच थी ?
जब कतिपय बुद्धिजीवियों के अर्ध देवता नेहरू ने ही इन तीनों ‘पापियो’ं को सम्मानित कर दिया तो आम जनता ने भी इनके उत्तराधिकारियों को कालांतर में आज देश की लगभग पूरी सत्ता सौंप दी।
शमसुल साहब ने इसकी खोज तो कर ली कि सी.पी.आई.के कई नेताओं ने 1942 की लड़ाई में हिस्सा लिया था,भले सी.पी.आई.ने नहीं लिया।अच्छा किया।यह बात सही भी है।
पर आर.एस.एस.और हिन्दू महा सभा के किन- किन लोगों ने आजादी की लड़ाई में भाग लिया ,उसका पता लगाने को काम दिल्ली विश्व विद्यालय के अध्यापक राकेश सिन्हा पर छोड़ दिया।
यदि सब कुछ शमसुल साहब ही लिख देते तो उन महान वामपंथी इतिहासकार के निदेश का क्या होता कि --‘राणा प्रताप और शिवाजी के शौर्य का गुणगान मत करना अन्यथा देश में हिन्दू सांप्रदायिकता बढ़ेगी।’
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