यह लेख लंबा है।पर जरूरी है ।
इसलिए पढ़ने के लिए थोड़ा समय निकाल लीजिएगा।
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देश की सुरक्षा के लिए अब कुछ कड़े उपाय जरुरी
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कोई भी देश अपने इतिहास के अभावों को समझ कर
और अपनी पिछली अच्छाइयों से प्रेरणा लेकर भविष्य का निर्माण करता है।
यदि हमारे यहां खास कर मध्य युग का सही व संतुलित इतिहास लिखा गया होता तो हमें उसका लाभ पहले ही मिल गया होता।
फिर भी जो इतिहास उपलब्ध है,उसके अनुसार यह लगता है कि हम अपनी बहादुरी की कमी के कारण सदियों तक गुलाम नहीं रहे बल्कि हम आपसी फूट,बेहतरीन हथियारों की कमी और रणनीतिक विफलताओं के कारण हारे।
हमलावरों के पास कोई नैतिकता नहीं थी।
वे किसी भी कीमत पर युद्ध जीतना जानते थे।
पंडित सुंदर लाल की किताब भी इस बात की गवाह है।
जब हमारे पास बेहतर हथियार आए और आपसी एकता बढ़ी तो हमने 1965 और 1971 जैसे युद्ध जीते।
पर,मध्य युग में तो जहां बाबर के पास तोप थी तो राणा सांगा के पास सिर्फ तलवार।
साथ ही, बाबर की व्यूह रचना भी हमसे बेहतर थी।
ब्रिटिश इतिहासकार सर जे.आर.सिली लिखते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कभी भी 16 प्रतिशत से अधिक अंग्रेज सिपाही नहीं रहे।
बल्कि भारतीयों ने ही भारत को जीत कर उसे अंग्रेजों की तश्तरी में रख दिया।
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युद्ध की कोई तैयारी ही नहीं थी।
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1962 में चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय के पीछे हमारे सत्ताधारी नेताओं की भयंकर भूलें थीं ।
उन्होंने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा था।
इस सिलसिले में देश के एक प्रमुख पत्रकार मन मोहन शर्मा के शब्दों में पढि़ए--
‘एक युद्ध संवाददाता के रूप में मैंने चीन के हमले को कवर किया था।
मुझे याद है कि हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।
हमारी सेना के पास अस्त्र,शस्त्र की बात छोडि़ये,कपड़े तक नहीं थे।
नेहरू जी ने कभी सोचा ही नहीं था कि
चीन हम पर हमला करेगा।
एक दुखद घटना का उल्लेख करूंगा।
अंबाला से 200 सैनिकों को एयर लिफ्ट किया गया था।
उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं।
उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया
जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था।
वहां पर उन्हें गिराए जाते ही ठंड से सभी बेमौत मर गए।
युद्ध चल रहा था,मगर हमारा जनरल कौल मैदान छोड़कर दिल्ली आ गया था।
ये नेहरू जी के रिश्तेदार थे।
इसलिए उन्हें बख्श दिया गया।
हेन्डरसन जांच रपट आज तक संसद में पेश करने की किसी सरकार में हिम्मत नहीं हुई।’
एक अन्य अवसर पर मैंने देखा कि देश की सुरक्षा के प्रति हमारे बड़े अफसर भी कितने लापारवाह रहे।
शायद तत्कालीन नेहरू सरकार का ही उन पर असर था।
कई दशक पहले नेहरू युग के एक सेवानिवृत आई.एफ.एस.अफसर एक दिन टी.वी.पर थे।
चर्चा में सामने थे शिव सेना के एक राज्य सभा सदस्य।
राज्य सभा सदस्य ने कहा कि बंगलादेश की सीमा पर घेराबंदी के लिए मजबूत
बाड़ लगाई जानी चाहिए।
इस पर पूर्व विदेश सचिव ने कहा कि इससे दुनिया में भारत की छवि खराब होगी।
इस पर शिवसेना नेता ने तल्खी से पूछा कि आप भारत के विदेश सचिव थे कि बंगला देश के ?
वे चुप रह गए।
पर शिव सेना नेता को भी यह मालूम नहीं था कि नेहरू सरकार की यही नीति थी जिसे पूर्व विदेश सचिव तोता की तरह दुहरा रहे थे।
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फिफ्थ काॅलमनिस्ट यानी देशद्रोही की कमी नहीं
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आज भी जब हमारे देश के अधिकतर लोग व हमारी सरकार तरह- तरह की देसी-विदेशी शक्तियों से तरह तरह से लड़ रहे हंै, तो भारत के ही अनेक नेता और बुद्धिजीवी वोट व पैसों के लिए भीतरघाती की भूमिका में आ गए हैं।
बाहर-भीतर के अनेक लोग इस देश को धर्मशाला समझते रहे हंै।
स्थानीय मदद से करोड़ों घुसपैठियों को प्रवेश कराया जाता रहा है।रोहिंग्या को यहां बसाने के लिए पिछले दिनों कई बुद्धिजीवियों व नेताओं की बेचैनी देखते बनती थी।
दशकों से कश्मीर में हमारे खिलाफ अघोषित युद्ध चल रहा है।
जेहाद के सहारे इस देश को टुकड़े -टुकड़े करके इस पर कब्जा करने की कोशिश हो रही है।ऐसे तत्व विश्व विद्यालयों में भी सक्रिय रहे हैं।
क्या चीन में ऐसा संभव है ? वहां कोई घुसपैठ करके बच सकता है ?
वहां तो देखते ही गोली मार देने का आदेश है।
चीन सरकार अपने यहां के जेहादियों की क्या हालत बना रही है !
फिर भी भारत सहित पूरी दुनिया के मुसलमान बेबस होकर सिर्फ चीन के हालात को देख रहे हैं।
ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि चीन एक मजबूत देश है।वहां भीतरघात की भी गुंजाइश नहीं है।बाहरी हमले का भी कोई डर नहीं।पर भारत पर तो पाक जैसा पिद्दी देश भी घुसपैठियों के रूप में हमले करता रहता है।
मुम्बई के ताज होटल पर पाक जब हमले करवाता है तो दिग्गी राजा कहता है कि इसमें संघ का हाथ है।
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इस कहानी का मोरल यह है
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इससे शिक्षा यह मिलती है कि भारत भी और अधिक शक्तिशाली मुल्क बने।
टैक्स चोरों के साथ अत्यंत कड़ाई की जाए।
सरकार अपने गैर जरूरी खर्चे घटाए।
भ्रष्टाचार करके करोड़ों -अरबों बटोरने वालों के लिए फांसी का प्रावधान हो जैसा चीन में है।
पर्याप्त पैसे खर्च करके भारतीय सेना को और भी मजबूत किया जाए ताकि जरुरत पड़ने पर हम एक साथ अपने दोनों पड़ोसियों का मुकाबला कर सकें।
एकता तोड़ने की कोशिश करने वाले यहां रह रहे विदेशी एजेंटों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई हो।उनके मददगार
बुद्धिजीवियों को भी नहीं बख्शा जाए।
यदि अब भी ऐसे व इस तरह के दूसरे उपाय नहीं होंगे तो इस देश के सामने एक दिन बड़ा खतरा आ सकता है जिसे संभालना कठिन होगा।
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