अति सर्वत्र वर्जयेत् ,पर स्मार्ट फोन अपवाद !
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कल एक परिचित को फोन किया।
उनके पुत्र ने फोन उठाया।
आश्चर्य हुआ।
आशंका भी !
दो-चार मिनट के लिए भी मोबाइल से अलग नहीं
रहने वाले व्यक्ति मोबाइल से आज दूर क्यों ?
मैंने पूछा, ‘कहां हैं ?’
उधर से आवाज आई-
‘पापा जल चढ़ाने देवघर गए हुए हैं।’
मुझे सुखद आश्चर्य हुआ।
चलिए भोले बाबा की कृपा या डर से मेरा
परिचित कुछ दिन के लिए तो मोबाइल
नामक बीमारी से मुक्त है !
जय हो, भोले बाबा की !
काश ! आपका यह सावन, एकादशा की तरह
हर माह आता !
बीमारी मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि --अति सर्वत्र वर्जयेत्, पर स्मार्ट फोन को छोड़कर-- इसी नारे के साथ
इन दिनों यह देश चल रहा है !
यदि आज आप बिहार के सुदूर गांवों में घूमंे और सिर्फ स्मार्ट फोन को ही कसौटी मान कर सर्वे करें तो आप बिहार को पिछड़ा राज्य की सूची से तुंरत बाहर कर देंगे।
मोबाइल खास कर स्मार्ट फोन के इस्तेमाल में अति ही तो हो रही है !
शहरों में तो हर उम्र के लोग अपने -अपने स्मार्ट फोन में अति व्यस्त हैं।
न खाने की सुध है और न सोने की !
न अपनी गर्दन की चिंता है और न आंखों की।
स्मार्ट फोन पर मुग्ध लोगों की आंखों का पावर बढ़ता चला जा रहा है।
हड्डी और आंख के डाक्टरों की इन दिनों चांदी ही नहीं, बल्कि सोना है !!
बच्चे पापा के प्यार के लिए तरस रहे हैं।
पत्नी या तो उपेक्षित है या फिर खुद ही अपने स्मार्ट फोन में मुब्तिला है।
पता नहीं, स्मार्ट फोन के युग में सरकारी दफ्तरों का क्या हाल है !
मेरा वश चले तो मैं
सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग के अलावा एक और युग की घोषणा कर दूं-- ‘स्मार्ट फोन युग !’
अतिथि-रिश्तेदार तो आपके घर आकर भले देर तक आपको टुकुर-टुकुर ताकते रहंे, पर आप हंै कि अपने स्मार्ट फोन से जल्दी नजरें नहीं हटाएंगे !
अन्य की उपस्थिति के मानसिक दबाव में अंततः हटाएंगे भी तो आपके चेहरे पर सामान्य भाव आने में थोड़ा समय लग ही जाएगा।
हां, इस विपत्ति यानी यूं कहें महामारी का एक सकारात्मक पक्ष भी है।
स्मार्ट फोन में व्यस्तता के कारण खबर है कि सास-पतोहू के फं्रट पर थोड़ी राहत देखी जा रही है।
एक हद तक पति-पत्नी के मोरचे पर भी।
इस कलियुग में बेटे तो बाप से स्मार्ट फोन आने से पहले ही दूर जा चुके हैं।
अपवादों की बात और है।
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कल एक परिचित को फोन किया।
उनके पुत्र ने फोन उठाया।
आश्चर्य हुआ।
आशंका भी !
दो-चार मिनट के लिए भी मोबाइल से अलग नहीं
रहने वाले व्यक्ति मोबाइल से आज दूर क्यों ?
मैंने पूछा, ‘कहां हैं ?’
उधर से आवाज आई-
‘पापा जल चढ़ाने देवघर गए हुए हैं।’
मुझे सुखद आश्चर्य हुआ।
चलिए भोले बाबा की कृपा या डर से मेरा
परिचित कुछ दिन के लिए तो मोबाइल
नामक बीमारी से मुक्त है !
जय हो, भोले बाबा की !
काश ! आपका यह सावन, एकादशा की तरह
हर माह आता !
बीमारी मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि --अति सर्वत्र वर्जयेत्, पर स्मार्ट फोन को छोड़कर-- इसी नारे के साथ
इन दिनों यह देश चल रहा है !
यदि आज आप बिहार के सुदूर गांवों में घूमंे और सिर्फ स्मार्ट फोन को ही कसौटी मान कर सर्वे करें तो आप बिहार को पिछड़ा राज्य की सूची से तुंरत बाहर कर देंगे।
मोबाइल खास कर स्मार्ट फोन के इस्तेमाल में अति ही तो हो रही है !
शहरों में तो हर उम्र के लोग अपने -अपने स्मार्ट फोन में अति व्यस्त हैं।
न खाने की सुध है और न सोने की !
न अपनी गर्दन की चिंता है और न आंखों की।
स्मार्ट फोन पर मुग्ध लोगों की आंखों का पावर बढ़ता चला जा रहा है।
हड्डी और आंख के डाक्टरों की इन दिनों चांदी ही नहीं, बल्कि सोना है !!
बच्चे पापा के प्यार के लिए तरस रहे हैं।
पत्नी या तो उपेक्षित है या फिर खुद ही अपने स्मार्ट फोन में मुब्तिला है।
पता नहीं, स्मार्ट फोन के युग में सरकारी दफ्तरों का क्या हाल है !
मेरा वश चले तो मैं
सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग के अलावा एक और युग की घोषणा कर दूं-- ‘स्मार्ट फोन युग !’
अतिथि-रिश्तेदार तो आपके घर आकर भले देर तक आपको टुकुर-टुकुर ताकते रहंे, पर आप हंै कि अपने स्मार्ट फोन से जल्दी नजरें नहीं हटाएंगे !
अन्य की उपस्थिति के मानसिक दबाव में अंततः हटाएंगे भी तो आपके चेहरे पर सामान्य भाव आने में थोड़ा समय लग ही जाएगा।
हां, इस विपत्ति यानी यूं कहें महामारी का एक सकारात्मक पक्ष भी है।
स्मार्ट फोन में व्यस्तता के कारण खबर है कि सास-पतोहू के फं्रट पर थोड़ी राहत देखी जा रही है।
एक हद तक पति-पत्नी के मोरचे पर भी।
इस कलियुग में बेटे तो बाप से स्मार्ट फोन आने से पहले ही दूर जा चुके हैं।
अपवादों की बात और है।
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