शनिवार, 17 अगस्त 2019

इतने भारत रत्नों के बावजूद अपना देश गरीब क्यों ?
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सौ एकड़ में से 85 एकड़ जमीन बेच कर खा 
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जाने वाले किसी किसान पुत्र को यदि ‘पुत्र रत्न’ नहीं कहा
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जा सकता तो सौ सरकारी पैसों को घिसकर 15 पैसे कर देने 
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वालों को ‘भारत रत्न’ कैसे कहा जाएगा ?
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1954 से 1983 तक 8 गणमान्य व्यक्ति ‘भारत रत्न’
 से सम्मानित किए जा चुके थे।
  अब तो उनकी संख्या 50 पहुंचने वाली है।
  यदि किसी किसान का बेटा अपनी 100 एकड़ पुश्तैनी जमीन में से 85 एकड़  बेच कर खाए तो क्या उसे ‘पुत्र रत्न’ कहा जा सकता है ?
  1985 में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि हम दिल्ली से 100 पैसे भेजते हैं ,पर गांवों तक उसमें से सिर्फ
15 पैसे ही पहुंच पाते हैं।
  पता नहीं कि आज एक रुपया गांव पहुंचते- पहुंचते कितना घिस चुका होता है।
यह निष्पक्ष जांच का विषय है।
 फिर भी ‘भारत रत्नों’ की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
याद रहे कि संविधान निर्माता ऐसे ‘सम्मान’ के सख्त खिलाफ थे। 
संविधान सभा में हृदय नाथ कंुजरू ने कहा था कि ‘पुरस्कारों द्वारा समाज को छोटे -बड़े में बांटने की प्रक्रिया शुरू होगी।
बाद में इन पुरस्कारों का राजनीतिकरण होगा।’
पर, जिन्हें लेना था,उन्होंने बाद में इसका प्रावधान कर ही दिया।
यानी, संविधान की भावना पर वह संभवतः पहली चोट थी।
    सबसे घटिया है इन पद्म सम्मानों का भोंड़ा प्रदर्शन।
नियम है कि पद्म सम्मानों से सम्मानित कोई व्यक्ति इसे अपने नाम के आगे या पीछे नहीं जोड़ सकता।
इसका कोई अन्य तरह से भी इस्तेमाल नहीं कर सकता।
फिर भी देश में इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल होता रहता है।
लोग अपने मकान के गेट पर अपने नेम प्लेट में तथा अपने लेटरहेड में भी लिखवा लेते हैं।
  अब तक दक्षिण भारत के दो फिल्मी अभिनेताओं के अलावा किसी अन्य को इसके दुरुपयोग के कारण दंडित किया गया है, यह मुझे नहीं मालूम।
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पुश्नचः
यदि आपका रसोइया 100 में 85 रोटियां जला दे तो क्या
आप फिर भी उसे अपना नौकर रखेंगे और पुरस्कार भी देंगे ?  
   

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