मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

के.बी. सहाय : खट्टी-मिठी यादें

गोल्ड मेडलिस्ट के.बी. सहाय आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे


सन 1963-67 में बिहार के मुख्यमंत्री रहे के.बी.सहाय के बारे में अनेक खट्टी-मिठी यादें हैं। कृष्ण बल्लभ सहाय अत्यंत मेधावी छात्र थे। उन्हें एक बार स्वर्ण पदक भी मिला था। उन्हें अच्छी से अच्छी नौकरी मिल सकती थी। पर उन्होंने संघर्ष का जीवन चुना। आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।

1937 में संसदीय सचिव व 1946 में राजस्व मंत्री बने। जमीन्दारी उन्मूलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। बाद के वर्षों में वे विवादों में भी रहे। 1957 में चुनाव हार गए। एक अन्य बड़े कांग्रेसी नेता महेश प्रसाद सिंहा भी तब हारे थे।

इस पर जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. श्रीकृष्ण सिन्हा को पत्र लिखा कि आपने महेश प्रसाद सिन्हा को तो खादी बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया, पर के.बी. सहाय को कुछ नहीं बनाया। इसपर दोनों नेताओं के बीच तीखा व लंबा पत्र-व्यवहार हुआ था।

जेपी ने श्रीबाबू पर जातिवाद का आरोप लगाया तो श्रीबाबू ने जेपी पर वैसा ही आरोप लगाया। उन पत्रों पर आधारित एक पुस्तक डा. एन.एम. पी श्रीवास्तव ने लिखी है। खैर, के.बी. सहाय को बहुत ही सफल प्रशासक माना जाता था। ब्यूरोक्रेसी पर उनकी पूरी पकड़ रहती थी। पर, उनके ही कार्यकाल में पहली बार कांग्रेस 1967 में बिहार विधानसभा का चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गई।

कुल मिलाकर सहाय जी को इस रूप में याद किया जा सकता है कि उन्होंने अपने निजी जीवन में सुखमय कैरियर का लोभ छोड़कर आजादी की लड़ाई लड़ी थी। आज तो आम तौर पर किसी को जब कोई नौकरी नहीं मिलती तो वह राजनीति में कूद पड़ता है। अपवादों की बात और है।

वंशवाद-परिवारवाद के आधार पर राजनीति में आए अधिकतर लोगों की योग्यता-क्षमता आज अक्सर सवालों के घेरे में रहती है। इसलिए भी राजनीति व प्रशासन का हाल आज देश भर में असंतोषजनक है।

के.बी. सहाय का जन्म 31 दिसंबर 1898 और निधन 3 जून 1974 को हुआ। एक सड़क दुर्घटना में उनकी जान चली गई।
   दस साल में ही पुल क्षतिग्रस्त, 
   अंग्रेजों का बनाया पुल सही सलामत
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29 दिसंबर, 2019 के दैनिक जागरण में प्रकाशित 
इस खबर की आखिरी दो लाइनें पढि़ए--
‘‘क्षतिग्रस्त पुल लगभग दस साल पहले निर्मित हुआ है।
इससे सौ मीटर की दूरी पर अंग्रेजों का बनाया पुल आज भी सही सलामत है।’’
   यह हमारे सिस्टम में लगे घुन का जीता-जागता नमूना है।
  इस पुल के निर्माण के लिए आबंटित फंड में जो लूट हुई होगी,उसके बारे में अनेक लोग जानते -समझते हैं।
  उन लुटेरे अपराधियों का तो अंततः कुछ बिगड़ने वाला है नहीं।
हां, कोई खबरखोजी पत्रकार उस निर्माण में लगे ठेकदार और अफसरों के नाम जाहिर कर देता तो लोगों को संतोष होता।
कहीं मिलने पर शायद कोई नौजवान उसके मुंह पर स्याही फेंक सकता !! 
   कुछ ही साल पहले उत्तराखंड के मुख्य मंत्री ने नेशनल हाईवे घोटाले की जांच का भार सी.बी.आई.को सौंपा तो केंद्रीय मंंत्री नाराज हो गए।
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार मंत्री ने मुख्य मंत्री को लिखा कि इससे एन.एच.के अफसरों में पस्तहिम्मती आएगी।
पता नहीं ,अंततः उस केस का क्या हुआ ! 
 31 दिसंबर 2019

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

   ताजा इतिहास से भी नहीं सीखते कुछ लोग
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‘‘मेरी सुरक्षा छोटी बात हैं।’’
सुरक्षा संबंधी प्रोटोकल के उलंघन के उन पर आरोप के बारे में जब पूछा गया तो प्रियंका गांधी का यही जवाब था।
  लगता है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ने सुरक्षा से संबंधित पिछली चूकों और उनके भयंकर परिणामों से कुछ नहीं सीखा।
याद रहे कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की जो जानें गईं थीं, उन दुखद घटनाओं के पीछे भी ऐसी ही चूकें थीं।
चूकें उनकी खुद की थीं।
प्रियंका से अधिक तो राहुल सुरक्षा नियमों उलंघन करते रहे हैं। 
  जिस बात को प्रियंका छोटी बात कह रही हैं,यदि कोई बड़ी घटना हो जाए तो क्या वह छोटी ही बात रह जाएगी ?
क्या देश भी उसका खामियाजा नहीं भुगतेगा ?
  1984 में सिख संहार के रूप में देश ने तो भुगता था।
  अकाल तख्त पर कार्रवाई के बाद आम सिखों की भावना आहत हुई थी।
कुछ अतिवादी सिख प्रधान मंत्री की जान के प्यासे हो गए थे।
 खुफिया सूत्रों ने आगाह किया।
सुरक्षा काम मेंं लगे अफसरों ने प्रधान मंत्री के आवास से सिख संतरियों को हटा दिया।
पर जब इंदिरा गांधी को पता चला तो उन्होंने दुबारा सिख सुरक्षाकर्मियों को ड्यूटी पर लगवा दिया।
उन्हीं सुरक्षाकर्मियों ने प्रधान मंत्री की जान ले ली।
   अब राजीव गांधी का हाल जानिए।
तमिलनाडु के श्रीपेरूम्बुदूर की सभा में भारी भीड़ थी।
धनु यानी मानव बम राजीव गांधी के करीब जाने की कोशिश कर रही थी।
वहां तैनात सतर्क महिला अफसर ने उसे एकाधिक बार रोका।
दूर से राजीव गांधी ने एक लड़की को रोके जाते देखा।
राजीव ने उस अफसर को निदेश दिया कि उसे आने दो।
उसने जाने दिया।
उसने राजीव की जान ले ली।
  आश्चर्य है कि जानबूझ कर लगातार सुरक्षा नियम तोड़ने वाले इस परिवार ने अपनी पारिवारिक विपत्ति से भी नहीं सीखा।
   एक तरफ वे लोग एस.पी.जी.से वंचित किए जाने पर आसमान सर पर उठाते हैं,दूसरी तरफ यह हाल है कि प्रियंका स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ कर कहीं चल देती हैं !!
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  सुरेंद्र किशोर--30 दिसंबर 2019


देश की अर्थ व्यवस्था को काला 
धन चलाए या सफेद धन ?
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‘‘काले धन का आकार देश के सकल घरेलू उत्पाद का 60 प्रतिशत हो चुका है।
60 के दशक में 3 फीसदी था।
आज सालाना 33 लाख करोड़ रुपए की काली कमाई हो 
रही है।..........
‘‘......जिन पर व्यवस्था चलाने का दारोमदार है, वे भ्रष्ट लोगों के साथ खड़े हो गए हैं।
यदि सरकार जल्दी नहीं चेती तो विकास की गति शिथिल पड़ जाएगी।’’
            ---- अरुण कुमार, अर्थशास्त्री, जेएनयू,
                        प्रभात खबर, 4 जून 2011
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   2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने काले धन के खिलाफ कार्रवाई शुरू की तो अब देखिए एक नोबेल विजेता क्या कहते हैं--
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‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,शायद --भारत की--भ्रष्टाचार अर्थ व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था।
पर इसे काट दिया गया है।
मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’
                 -- नोबल विजेता अभिजीत बनर्जी,
              दैनिक हिन्दुस्तान, 23 अक्तूबर 2019
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प्रतिपक्षी दल आरोप लगा रहा है कि मोदी सरकार की गलत नीतियों के कारण देश में आर्थिक सुस्ती आ गई है।
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अब आप ही बताइए,कोई .अरुण कुमार की सुने या अभिजीत बनर्जी की ?
देश की अर्थ व्यवस्था काले धन पर आधारित होनी चाहिए या सफेद धन पर ?
  मैं खुद तो आर्थिक मामले समझने में दिमाग से पैदल हूं।
इसलिए सबकी सुनता हूं और कूढ़ता रहता हूं।
आखिर अपना देश आज कहां जा रहा है ?
दिशा सही है या गलत ?
मोदी राज में अर्थ व्यवस्था का अंततः क्या होगा ?
आप ही कुछ बताइए।
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सुरेंद्र किशोर--29 दिसंबर 2019



रविवार, 29 दिसंबर 2019


 सन 2014 में हरिवंश जी जब बिहार से राज्य सभा के सदस्य चुने गए थे तो मैंने लिखा था कि संविधान निर्माताओं ने ऐसे ही लोगों को ध्यान में रखते हुए राज्य सभा का गठन किया था।
  अब उन पर 
‘‘पांच सालों का संसद सफर’’
नामक पुस्तक आई है।
पुस्तक न सिर्फ नयनाभिराम है,बल्कि जानकारियों से भरी हुई हैं। 
जो लोग उनके बारे में जानने में रूचि रखते हैं ,इस पुस्तक में  मोटा -मोटी वह कुछ मिलेगा--
उनकी जीवन यात्रा,उनके योगदान तथा विचार।
  हरिवंश जी को मैं एक बहुत अच्छे लेखक,उतने ही अच्छे संपादक और वक्ता के रूप में दशकों से जानता रहा हूं।
सबसे बड़ी बात यह कि वह निराभिमानी और सहृदय भी हैं।
 नीतीश कुमार एक पढ़ने -लिखने वाले नेता नहीं होते तो शायद हरिवंश जी का राज्य सभा के लिए चयन नहीं होता।
डा.राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि संसद एक ऐसी ऊंची जगह है जहां से कुछ कहने पर वह आवाज दूर -दूर तक सुनी जाती है।
हरिवंश जी ने भी सदस्य के रूप में अपनी गरिमापूर्ण भूमिका के कारण राजग के राष्ट्रीय नेतृत्व को भी प्रभावित किया। राजग ने उन्हें उप सभापति पद के अनुकूल पाया।
अपने कार्यकाल के प्रारंभिक दिनों में तो हरिवंशजी राज्यसभा में लगातार हो रहे भारी हंगामा और शोरगुल के कारण परेशान से दिखे।
इसके खिलाफ उनका एक सख्त लेख ‘फस्र्टपोस्ट’ पर आया भी था।
पर शुक्र है कि अब उस सदन का माहौल भी धीरे -धीरे बदल रहा है।फिर भी वह गरिमा नहीं लौटी है जो 50-60 के दशकों में थी।  
    इस यशस्वी पत्रकार को सम्मानित जगह मिलने से मेरे जैसा पत्रकार भी गौरवान्वित हुआ है।
उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ-
--सुरेंद्र किशोर--28 दिसंबर 2019


अपने ही वादे से मुकरती कांग्रेस--सुरेंद्र किशोर 
 बंगला देशी नागरिकों की  घुसपैठ की समस्या से प्रभावित  राज्यों का एक सम्मेलन सितंबर, 1992 में हुआ था।
तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री एस. बी. चव्हाण ने  इस सम्मेलन में प्रभावित राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों को दिल्ली बुलाया था।
  इसमें असम, बंगाल, बिहार, त्रिपुरा, अरुणाचल और मिजोरम के  मुख्यमंत्री और मणिपुर, नगालैंड एवं दिल्ली के प्रतिनिधि भी  थे।
  सम्मेलन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि सीमावर्ती जिलों के सभी निवासियों को परिचय पत्र दिए जाएं।
सम्मेलन की राय थी कि बांग्ला देश से बड़ी संख्या में अवैध प्रवेश से देश के विभिन्न भागों में जनसांख्यिकीय परिवत्र्तन सहित अनेक गंभीर समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं।
  इस समस्या से निपटने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा मिलकर एक समन्वित कार्य योजना बनाने पर भी सहमति बनी।
बिहार के तब के मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने घुसपैठियों द्वारा अचल संपत्ति की खरीद पर रोक लगाने के लिए कानून बनाने का सुझाव दिया था।
  उन्होंने यह भी कहा था कि सीमावर्ती जिलों में भारतीय नागरिकों को पहचान पत्र जारी किए जाने चाहिए।
लेकिन लगता है कि उस संकल्प को भुला दिया गया।
समय के साथ घुसपैठियों की समस्या बढ़ती ही चली गई।
   तथ्य यह भी है कि धार्मिक प्रताड़ना से पीडि़त शरणार्थियों को नागरिकता देने का वादा कांग्रेस ने 1947 से 2003 तक लगातार किया,पर इन दोनों मसलों के समाधान के लिए जब मोदी सरकार ने पहल की तो कांग्रेस सहित कुछ दलों ने   एक वर्ग में भ्रम फैला कर उकसाने की हर संभव कोशिश की,
जिसका नतीजा जगह -जगह हिंसक विरोध प्रदर्शन के रूप में दिखा।
धीरे -धीरे कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों का भंडाफोड़ हो रहा है।
  आने वाले दिनों में इसका राजनीतिक खामियाजा विरोधी दलों को भुगतना पड़ सकता है।
 नागरिकता कानून के विरोध में जिस तरह की हिंसक घटनाएं हुईं और अब  भी लोगों को झूठ के सहारे बरगलाया जा रहा है, उसे सारा देश देख -सुन रहा हे।
धीरे- धीरे इस हिंसा से जुड़े लोग खुद ही बेनकाब हो रहे हैं।  
हिंसक तत्वों को बेनकाब करने वाले तथ्य लगातार सामने भी आ रहे हैं।
जैसे कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के कुलपति तारिक मंसूर ने स्वीकार किया कि हमें परिसर में पुलिस बुलाने का दुखद निर्णय इसलिए लेना पड़ा क्योंकि समाजविरोधी तत्व घुस आए थे।
हालांकि यही काम दिल्ली में जामिया विश्व विद्यालय के प्रबंधन ने नहीं किया।
इससे पहले दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने संयम बरतने की अपील करते हुए कहा कि नागरिकता संशोधन कानून, 2019 का भारतीय मुसलमानों से कुछ लेना -देना ही नहीं  है।
     नागरिक संशोधन कानून, 2019 से वैसे शरणार्थियों को नागरिकता मिलनी है जो वर्षों से यहां रह रहे हैं।
पर उनको नागरिकता देने के लिए बने कानून का विरोध हो रहा है।
यह विरोध तब हो रहा है जब पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यक समुदायों के शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए दिसंबर, 2003 में प्रतिपक्ष के नेता मन मोहन सिंह ने वाजपेयी सरकार में उप प्रधान मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी से सदन में आग्रह किया था ।
यह भी ध्यान रहे कि नवंबर, 1947 में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भी इसी आशय का प्रस्ताव पारित किया गया था।
  नागरिकता संशोधन कानून नेहरू-लियाकत समझौता, 1950 की भावना के भी अनुकूल है।
पर दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि हमारे अधिकतर नेता समय के साथ राजनीतिक सुविधानुसार अपना रुख बदलते रहते हैं।
इतना ही नहीं ,वे लोगों को या तो भड़काते हैं या फिर उनकी हिंसा से मुंह मोड़ लेते हैं।
देशव्यापी हिंसक घटनाओं के मामले में ऐसी खबरें आ रही हैं कि इन घटनाओं के पीछे प्रतिबंधित सिमी और पाॅपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया जैसे संगठनों का हाथ है।
 माना जाता है कि इन संगठनों को उन्हीं राजनीतिक शक्तियों से बढ़ावा मिला जिन्होंने देशव्यापी हिंसक घटनाओं की निंदा तक नहीं की।
उल्टे पुलिस कार्रवाइयों की आलोचना की।
जो लोग हिंसा कर या करा रहे हैं उन्हें पता होना चाहिए कि देशव्यापी स्तर पर एन.आर.सी.की अभी कोई पहल नहीं हुई है।
और सरकार ने वादा किया है कि जब भी यह कवायद की जाएगी उसमंे इसका पूरा ध्यान रखा जाएगा कि कोई भारतीय नागरिक इसमें शामिल होने से रह न जाए।
   और सभी विदेशी घुसपैठियों की पहचान भी हो जाए।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि किसी भी भारतीय को उसके माता-पिता या दादा- दादी के 1971 के पहले के जन्म प्रमाण पत्र जैेसे दस्तावेज दिखा कर नागरिकता साबित करने के लिए नहीं कहा जाएगा।
  ऐसी बातें लगातार कहीं जा रही हैं,पर स्वार्थीा तत्व इसकी अनदेखी कर रहे हैं।
इस अनदेखी या नासमझी का खामियाजा देर -सवेर उन दलों को भी भुगतना पड़ सकता है जो अतिवादियों को बढ़ावा दे रहे हैं ।
क्योंकि वे देश के शांत बहुमत की सहानुभूति तेजी से खो रहे हैं।
यह बहुमत यह भी देख रहा है कि किस तरह एक के बाद एक मसले पर दुष्प्रचार हो रहा है।
यह हास्यास्पद है कि अब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को लेकर भी दुष्प्रचार हो गया है।
जबकि ऐसे रजिस्टर तैयार करने की पहल कांग्रेस के समय हुई थी।
 क्या कांग्रेस नेता यह कहना चाह रहे हैं कि जो काम हमने किया,वह तो ठीक,लेकिन वही काम और कोई करे तो गलत।
  दुर्भाग्य है कि इन दिनों वैसे लोग देश एवं सरकार पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं जो देश को धर्मशाला समझ रहे हैं।
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का कार्यान्वयन इस देश के मौजूदा स्वरूप की रक्षा के लिए अत्यंत जरूरी है।
यह देश के जीवन -मरण का प्रश्न है।
इस मामले में पहले ही देरी हो चुकी है।
अब और देरी अत्यंत घातक साबित होगी।
 इस समस्या पर समय- समय पर विचार तो हुए,समस्या की गंभीरता को भी स्वीकार किया गया, कुछ निर्णय भी हुए,
पर कितना लागू हुआ ?
यह एक यक्ष प्रश्न हे।
दरअसल वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए नेता और दल इस पर रुख बदलते रहे।
आज अधिकतर देशाों के पास उनका अपना राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर है।अब यदि भारत में रजिस्टर नहीं बना तो आगे की स्थिति इतनी खराब हो चुकी होगी कि इसे संभालना असंभव हो जाएगा।
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--दैनिक जागरण-26 दिसंबर 2019 में प्रकाशित 



   




   बेहतर शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने की सख्त जरूरत-सुरेंद्र किशोर 
  देश-प्रदेश में शिक्षा स्तर गिरने के अनेक कारण हैं।
पर,सबसे बड़ा कारण यह है कि योग्य शिक्षकों की दिनानुदिन कमी होती जा रही है।
बेहतर शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित कराना आज ऐतिहासिक आवश्यकता बन गई है।
उसके कई उपाय हो सकते हैं।
उनमें से एक उपाय की यहां चर्चा मौजूं होगी।
महंगी होती शिक्षा के बीच शिक्षा ऋण का महत्व इधर बढ़ा है।
पर रोजगार की कमी के कारण शिक्षा ऋण चुकाना सबके लिए संभव नहीं हो पा रहा है।
इस पृष्ठभूमि में शिक्षा ऋण के नियमों में बदलाव की जरूरत महसूस हो रही है।1963 का एक नमूना हमारे सामने है।
तब  केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय ऋण स्काॅलरशिप शुरू की थी।
प्रथम श्रेणी में पास जिन छात्रों को मेरिट स्काॅलरशिप नहीं मिल पाती थी,उनके लिए ऋण स्काॅलरशिप का प्रावधान किया गया था।
शत्र्त थी कि जो पढ़-लिखकर शिक्षक बनेंगे,उन्हें वह कर्ज नहीं लौटाना पड़ेगा।
आज इस देश में लगभग हर स्तर पर अच्छे शिक्षकों की भारी कमी है।
  यदि भावी शिक्षकों के लिए यह नियम बने कि उन्हें बड़ा से बड़ा शिक्षा ऋण नहीं लौटाना पड़ेगा तो शायद बेहतर शिक्षक उपलब्ध हों।
 --नीम के पौधों की हो मजबूत घेराबंदी--
बिहार सरकार ने यह निर्णय किया है कि वह शहरों में सड़कों के किनारे पीपल,नीम, कदम्ब और जामुन के पौधे लगाएगी।
यह बहुत अच्छी बात है।
प्र्यावरण संतुलन के लिए  पीपल और नीम का तो खास महत्व है।
पर नीम को लेकर कुछ अधिक ही सावधानी बरतने की जरूरत पड़ेगी।
उसके पौधों की मजबूत और ऊंची घेरेबंदी होनी चाहिए।
एक बार पटना के एक मुहलले में नीम के पौधे लगाए गए।
पर वे जैसे ही थोड़ा बड़े हुए,उन पर अत्याचार शुरू हो गए।
कोई दतवन के लिए डाल तोड़ने लगा तो कोई खाने के लिए कोमल पत्तियां को नोंचने लगा।
इस तरह  नीम के पेड़-पौधों को लोगों ने ठूंठ बना डाला।
उससे सबक लेते हुए सरकार नीम के पौधों को दस फीट ऊंचाई तक घेरेबंदी करे।
  सौ की जगह दस ही पौधे लगंे,पर जो लगें,उन्हें बचाने का पक्का इंतजाम तो हो ! 
--सेके्रट सर्विस फंड की दयनीय कहानी--
 केरल पुलिस के सेक्रेट सर्विस फंड के दुरुयोग की खबर आई है।
कुछ साल पहले झारखंड पुलिस पर भी
ऐसा ही आरोप लगा था।
हाल में पटना के कारगिल चैक पर राज्य भर से जुट कर 
हिंसक लोगों ने भारी उत्पात मचाया और उसकी पूर्व सूचना बिहार पुलिस को नहीं थी।
उस घटना से लग गया कि बिहार में भी सेके्रट सर्विस फंड का या तो सदुपयोग नहीं हो रहा है या फिर जरूरत के अनुपात में कम मात्रा में फंड का आबंटन हो रहा है।
  सेके्रेट फंड के सदुपयोग के साथ -साथ एक बात  और जरूरी है।
आतंक और सामान्य हिंसा के बढ़ते खतरे के बीच देश-प्रदेश  की सुरक्षा के लिए इस बात की भी सख्त जरूरत है कि सी.सी.टी.वी.कैमरों का  विस्तार हो।
साथ ही,उन कैमरों की गुणवत्ता भी ठीकठाक हो।
कैमरे को लोहे की छड़ों से घेरना भी जरूरी होगा।  
  खुफिया सूत्रों के लिए आबंटित सरकारी धन के दुरूप्योग की जानकारियां दशकों से मिलती रही है।
इन पैसों का गोलमाल आसान है क्योंकि इसका कोई अंकेक्षण नहीं होता।
 --झारखंड के बाद बिहार का सपना!--
झारखंड में चुनावी जीत के बाद कुछ लोग बिहार फतह करने का भी सपना देखने लगे हैं।
पर बेहतर होगा कि वे लोग सपना देखने से पहले  बिहार विधान सभा के पिछले चुनावी आंकड़े देख लें।
लोक सभा चुनाव तो कई बार राष्ट्रीय मुद्दे पर होते हैं।इसीलिए कई बार अलग -अलग रिजल्ट आते हैं।
1967 में बिहार की अधिकांश लोकसभा सीटें कांग्रेस जीत गई थी।
पर उसी के साथ हुए चुनाव में बिहार विधान सभा की अधिकांश सीटों पर  गैर कांग्रेसी दल जीत गए। 
इन दिनों बिहार में मुख्यतः तीन प्रमुख राजनीतिक दल हैं-
भाजपा,जदयू और राजद।
हाल का चुनावी इतिहास बताता है कि इन तीन में से जो दो दल एक साथ हुए ,वे ही जीत गए।
 2015 का  बिहार विधान सभा चुनाव रिजल्ट एक नमूना है। तब राजद और जदयू मिल कर लड़े थे।
कांग्रेस भी उनके साथ थी।
फिलहाल जदयू के भाजपा से अलग होने के कोई संकेत नहीं है।
ऐसे में 2020 के विधान सभा चुनाव में राजग सरकार पर कोई खतरा नजर नहीं आता। 
    --किया गया था आगाह-- 
जब अल्पवयस्क के साथ बलात्कार करने वालों के 
लिए फांसी की सजा का प्रावधान किया जा रहा था तो कुछ कानून विशेषज्ञों ने यह आशंका जताई थी कि तब तो आरोपी अपराधी पीडि़ता की हत्या ही कर देगा।
 वह आशंका सच साबित हो रही है।
न सिर्फ बलात्कार के बाद हत्या, बल्कि बलात्कार की कोशिश में विफल होने पर भी हत्या की खबरें आती रहती हंै।
ऐसे जघन्य अपराध से निजात पाने के कौन से उपाय हो सकते हैं,इस पर गहन सोच-विचार जरूरी है। 
   --और अंत में--
नीलगाय से फसल बचाने की समस्या का अंत होता नजर नहीं आ रहा है।
इस कड़ाके की ठंड में भी  बिहार के कई हिस्सों के किसान रात में अपने खेतों की मचान पर सोने को विवश हैंं।
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--27 दिसंबर 2019 को प्रभात खबर--पटना-- में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से


दोहरे मापदंड की पराकाष्ठा
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           दृश्य -1
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16 नवंबर, 2019 के न्यूयार्क टाइम्स के अनुसार चीन के 
राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा है कि 
‘‘इस्लामिक कट्टरवाद एक ड्रग की तरह है।’’
राष्ट्रपति ने सभी अफसरों से कहा है कि ‘‘इस्लामिक आतंकियों से निपटने के लिए तानाशाही रवैया अपनाएं।’’
   चीन के उइगर मुसलमानों को डिटेंशन सेंटर्स में मिल रही प्रताड़नाओं पर न्यूयार्क टाइम्स ने सनसनीखेज रपट छापी है।
  वैसे उस तरह की खबर भारत में पहले से पहुंचती रही है।
  पर यहां का कोई ‘‘सेक्युलर’’ नेता,लेखक,पत्रकार या  बुद्धिजीवी यह आरोप नहीं लगाता कि चीन में ‘हान’-जाति के वर्चस्व को कायम करने या रखने के लिए वहां की सरकार यह सब कर रही है जैसा आरोप वे मोदी सरकार और आर.एस.एस. पर आए दिन लगाते रहते हैं। 
याद रहे कि चीन में सबसे बड़ी आबादी हान जाति की है।
याद रहे कि जिन शियांग प्रांत के मुसलमान हथियारों के बल पर इस्लामिक शासन कायम करने के लिए प्रयत्नशील हैं।
इस उद्देश्य से वे भारी मारकाट कर चुके हैं।
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पर, ऐसे मामलों में भारत कहां  है  ????
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यहां आतंकियों के पक्ष में कुछ समूह क्या -क्या नाटक कर रहे हैं ,सब देख -समझ रहे हैं।
 सिमी जैसा जेहादी संगठन अखबारों में बयान देकर यह घोषणा करता है कि ‘‘हम हथियारों के बल पर भारत में इस्लामिक शासन कायम करना चाहते हैं।’’-टाइम्स आॅफ इंडिया--2001
इस देश में हुई हाल की भीषण हिंसा में सिमी और पी.एफ.आई.की संलिप्तता सामने आई है।
उसके कुछ सदस्य  गिरफ्तार भी हुए हैं।
पर क्या किसी ‘सेक्युलर’ नेता ने सिमी या पी.एफ.आई. के खिलाफ एक शब्द मुंह से निकाला ?  
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     दृश्य-2
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अमेरिकी संसद ने इस साल जनवरी में मैक्सिको सीमा पर दीवार बनाने के लिए बजट उपलब्ध नहीं कराया तो राष्ट्रपति टं्रप ने देशहित में आपातकाल लगाकर बजट निकाल लिया।
टं्रप  घुसपैठ निरोधक योजना को पूरा करने के लिए तीन अरब डालर जुटा चुके हैं।
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टं्रप की इस कार्रवाई को ‘‘उग्र राष्ट्रवाद’’ की संज्ञा दी गई ?
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पर भारत मंे ???
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यहां से करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठियों को निकाल बाहर करने के लिए भारत सरकार राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करना चाहती थी तो कुछ राजनीतिक दलों  और जेहादियों ने मिलकर भारत की मुख्य भूमि में कश्मीर के पत्थरबाजों -जेहादियों के कारनामों की याद दिला दी।
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दृश्य-3
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एक सप्ताह पहले मेरठ की हिंसक जेहादी भीड़ ने सार्वजनिक रूप से ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा लगाया।
उस पर एस.पी.ने कहा कि तुम भारत से घृणा करते हो,तुम्हंे पाक चले जाना चाहिए।
  इस पर कांग्रेस महा सचिव प्रियंका गांधी ने कहा कि ‘‘भाजपा ने संस्थाओं में इस कदर सांप्रदायिक जहर घोला है कि आज अफसर को संविधान की कसम की कोई कद्र ही नहीं हैं।’’
  यानी प्रियंका के पास तो उस अफसर के खिलाफ कड़े 
शब्द हैं,पर ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा लगाने वालों के लिए हल्की झिड़की भी नहीं।क्या यह साठगांठ का नमूना नहीं है तो क्या है ?
  इस प्रसंग में उमा भारती ने लिखा है कि 
‘‘मेरठ के एस.पी.सिटी अखिलेश नारायण सिंह का पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा रहे ,पुलिस को मां-बहन की गालियां दे रहे पत्थर फेंक रहे ,आगजनी कर रहे दंगाइयों से यह कहना कि तुम पाकिस्तान चले जाओ ,एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।
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     दृश्य-4
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इन दिनों कुछ इलेक्ट्राॅनिक चैनलों के एकपक्षीय व्यवहार अच्छे- भले-निष्पक्ष  लोगों को खल रहे हैं।
 हिंसक घटनाओं की खबर देते समय कुछ खास रुझान वाले चैनल सिर्फ यह दिखाते हैं कि पुलिस किस तरह आंदोलनकारियों की बेरहमी से पिटाई कर रही है।
 दूसरे रुझान वाले चैनल सिर्फ यह दिखाते हैं कि हिंसक दंगाई भीड़ किस तरह पुलिसकर्मियों की पिटाई कर रही है।
   अरे भई, वास्तव में होता यह है कि पहले भीड़ पुलिस पर हल्का या भारी हमला करती है और बाद में पुलिस हिंसा पर उतारू दंगाई भीड़ की जम कर ठुकाई करती है।कभी- कभी पुलिस जरूरत से कम और कभी-कभी जरूरत से अधिक ताकत का इस्तेमाल करती है।ऐसा हमेशा होता रहा है।
निष्पक्ष लोग यह चाहते हैं कि न्यूज चैनल  दोनों पक्षों की कार्रवाइयों को लोगों के सामने लाएं।
  क्या ऐसा कभी हो पाएगा ?
--सुरेंद्र किशोर-29 दिसंबर 2019

सरकार ने सरकारी बैंकों में काफी पूंजी डाली है।
लेकिन संचालन सुधारों के मामले में सरकार को 
सुदृढ़ीकरण के अलावा कई कदम उठाने होंगे।
   जरूरी है कि बैंकों की बैलेंस शीट में गड़बडि़यां 
दूर की जाए।
और, सरकारी बैंकों का संचालन बेहतर बनाया जाए।
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   ---जयंतीलाल भंडारी-राष्ट्रीय सहारा-28 दिसंबर 2019


शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

    केक-पाव रोटी अब गांव से भी !
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कुछ साल पहले जब हमलोग गांव जाते थे तो वहां रह -रहे परिजन के लिए कुछ -कुछ लेते जाते थे।
अब भी ले जाते हैं।
पर, अब गंगा उल्टी दिशा में भी बहने लगी है।
पत्नी इस बार गांव से जलेबी के साथ- साथ पाव रोटी, केक और लाई भी ले आईं।
वैसे बता दूं कि खुद मैं केक -पाव रोटी वगैरह नहीं खाता।
पर उसकी खबर तो दे ही सकता हूं !!
बेहतर सड़क और बिजली की उपलब्धता के कारण मेरे गांव का बाजार विकसित हो रहा है।
यानी केक स्तर तक तो अभी ही पहुंच गया।
यदि प्रस्तावित पटना रिंग रोड बन जाए तो पटना और मेरे गांव में कम ही अंतर रह जाएगा।
  सत्तू का तो बेहतर विकल्प अब पटना में उपलब्ध हो गया है ,भले वह महंगा है।
पर शुद्ध है।
वह है कि ‘नाइन टू नाइन’ माॅल  में उपलब्ध ‘आद्या सत्तू।’
अन्यथा, सत्तू भी पहले यदाकदा गांव के बाजार से ही आता था।
वह सत्तू भी पटना शहर के सत्तू से बेहतर होता है।हालांकि  पूर्ण शुद्ध नहीं।
--सुरेंद्र किशोर--27 दिसंबर 2019


निहितस्वार्थियों के हाथों 
बंधक बनता यह देश !
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सन 1992 में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के गोपनीय नोट 
के आधार पर 31 अगस्त, 1993 के ‘प्रभात खबर’ में अरूण शौरी ने लिखा था कि 
‘‘पश्चिम बंगाल सरकार के पास 1987 में उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक इस राज्य में बांग्ला देशी घुसपैठियों की संख्या 44 लाख थी।’’
तब पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार थी।
केंद्र में कांग्रेस की।
याद रहे कि घुसपैठ की समस्या सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही नहीं है।
  सवाल है कि इस देश में 2019 में घुसपैठियों की संख्या बढ़कर कितनी हो चुकी होगी ?
अरूण शौरी जैसे पत्रकार सक्रिय होतेेे तो बता देते।
पर कोई अन्य भी उसका असानी से अनुमान लगा ही सकता है।
  पर, उन घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई करने की चर्चा मात्र से ही पश्चिम बंगाल के अनेक राजनीतिक दल व नेता गुस्से में अपना सुधबुध खो देते हैं।
अन्य राज्यों के भी।
 तय हुआ है कि सी ए ए और प्रस्तावित एन. आर. सी. के खिलाफ वाम दल 1 से 7 जनवरी तक विरोध प्रदर्शन करेंगे और 8 को आम हड़ताल करेंगे।
आशंका है कि उस दौरान बेशुमार हिंसा करने के लिए कुछ भी दूसरे तत्व मौजूद रह सकते हैं।
   ममता बनर्जी ऐसे विरोध के काम मंें पहले से ही मजबूती से लगी हुई हैं।
--उन सबका अघोषित नारा है--‘
‘प्राण जाए, पर घुसपैठियों के वोट न जाए !’’
कुल मिलाकर देश की स्थिति यह है कि कुछ दलों को सिर्फ वोट और सत्ता चााहिए,भले देश अंततः भांड़ में चला जाए !
मुदहूं आंखि,कतहूं कछु नाहीं !!
यानी, हमारे जीवन काल में हमारी सत्ता घुसपैठियों के बल पर बनी रहे।
भले ही मेरे बाद यह देश ,देश नहीं बल्कि सिर्फ एक धर्मशाला बच जाए।
इस्लामिक देश पाकिस्तान और बांग्ला देश में नागरिक रजिस्टर बन सकता है ,पर भारत नामक अर्ध धर्मशाला में ऐसा कुछ भी संभव नहीं है।
  यह सब कब तक चलेगा ?
पता नहीं, इस देश की कुंडली में और क्या -क्या लिखा हुआ है !
   --सुरेंद्र किशोर--26 दिसंबर 2019

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

     तब के पैसे आज भी काम आ रहे हैं ?!
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  देश के एक नामी-गिरामी  पत्रकार ने एक पूर्व मुख्य मंत्री से कभी 5 करोड़ रुपए ‘ठग’ लिए थे। 
देश के एक बड़े संपादक ने करीब 15 साल पहले मुझे 
यह सनसनीखेज बात बताई थी।
संपादक को वह बात उस पूर्व मुख्य मंत्री ने शिकायत के लहजे में बताई थी।
‘ठगना’ शब्द उस ‘पीडि़त’ नेता  का ही था।
पर, उसे पीडि़त भी कैसे मानें ?
   खुद को ठगवा लेने के लिए उसके पास 5 करोड़ रुपए तो थे !
अन्य जायज -नाजायज काम के लिए पता नहीं और कितने होंगे ! 
वैसे जिस स्तर की वह बात थी,उसे सनसनीखेज नहीं माना
जाता है।
पर, मुझे तो वह बात सनसनीखेज लगी।
वैसे मेरी हैसियत ही क्या है कि पांच करोड़ को पांच 
हजार रुपए की तरह मान लूं ?
मैं तो लेख लिख -लिखकर उसके छपने व हजार-दो हजार पारिश्रमिक पाने की प्रतीक्षा में जीवन बिता रहा हूं।
 कुछ दशक पहले लखनऊ से पत्रकारों की एक लिस्ट आई थी।
लिस्ट सनसनीखेज थी।
हालांकि रकम में कोई सनसनीखेज बात नहीं थी।
दर्जनों  पत्रकारों को तब के मुख्य मंत्री ने हजारों-लाखों रुपए दिए थे।
इसे आप जो भी कहिए--शुकराना, नजराना या पटाना !!!
फिर भी उनमें से किसी को एक करोड़ नहीं मिल सके थे। 
  खैर, 5 करोड ़को लेकर असली बात अब आगे।
वह ‘‘पांच करोड़ी पत्रकार’’ इन दिनों यानी देश पर आए इस संकट के दौर में अपनी खास भूमिका निभा रहा है।
क्या यह सिर्फ संयोग  है कि उस पत्रकार की भी वही भूमिका है जो भूमिका उस नेता की है।
क्या मतलब हुआ ! ?
थोड़ा कहना, बहुत समझना !!! 
  वैसे ताजा खबर यह है कि वह पत्रकार अब पांच करोड़ की हैसियत से बहुुत ऊपर जा चुका है। 
मुझे किसी पत्रकार की किसी तरह की भूमिका से कोई शिकायत नहीं।
यह लोकतंत्र है।
सबको अपनी पृष्ठभूमि, समझदारी  व निष्ठा के अनुसार अपनी भूमिका तय करने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए।
पर, पैसे इस बीच न आए और लेखन-बोलन में तथ्य रहे तो पत्रकार और पत्रकारिता की साख बनी रहेगी !!
--सुरेंद्र किशोर --25 दिसंबर 2019

चैधरी चरण सिंह की याद में 
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पूर्व प्रधान मंत्री चैधरी चरण सिंह का कल जन्म दिन था।
 उन्हें कुछ बातों के लिए याद रखा जाएगा।
1.-आरक्षण का आधार जाति बनाने के बदले वे चाहते थे कि किसानों की संतान के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण हो।
2.-चैधरी साहब पूंजीपतियों से पैसे नहीं लेते थे।
धनी किसान उन्हेेंे मदद करते थे।
उनके चुनाव में कोई खास खर्च भी नहीं हेाता था।
3.- चरण सिंह जब प्रधान मंत्री थे तो राजनाराण जी यानी ‘नेता जी’ उनके बड़े करीबी थे।
उन दिनों यह खबर आई थी  कि देश के एक पूंजीपति नेता जी के यहां गए थे।
उनसे कहा कि हमारे हिन्दी अखबार के लिए कोई संपादक आपके ध्यान में हो तो बताइए।
राजनारायण जी उद्देश्य समझ गए।
उन्होंने कहा कि मेरे पास कोई नाम नहीं हैं
ऐसा इसलिए कह दिया क्योंकि चैधरी साहब तो सेठ जी की कोई पैरवी सुुनेंगे नहीं।
  उन दिनों दिनमान और धर्मयुग के कारण समाजवादी विचारधारा के अनेक पत्रकार मुख्य धारा की पत्रकारिता में थे।
 जनसंघ से जुड़े उतने पत्रकार मुख्य धारा में तब नहंी थे।
 कुछ समाजवादी पत्रकार बड़े पद के आकांक्षी थे।
वे मन ही मन नेता जी से नाराज भी हो गए।
उनको लगा कि हमारी आगे की राह रोक ली गई।
  4.-चरण सिंह कहते थे कि यदि उद्योग को बढ़ावा देना हो तो पहले कृषि को बढ़ावा दो।
क्योंकि देश की  अधिकतर आबादी यानी कृषक की आय जब तक नहीं बढ़ेगी, तब तक करखनिया माल खरीदेगा कौन ?
नहीं खरीदेगा तो कारखाने चलेंगे कैसे ?
5.-चरण सिंह ने राजनीति को रुपया कमाने का जरिया नहीं बनाया।
6.-कुछ कमियां चैधरी साहब में भी थीं।
पर थोड़ी -बहुत कमी तो हर मनुष्य में होती है।
उनकी कमियों पर उनके गुण हावी थे।
 फिर भी मेरा मानना है कि उन्हें देखने का अनेक बुद्धिजीवियों का नजरिया पूर्वाग्रहग्रस्त ही रहा ।
सुरेंद्र किशोर--23 दिसंबर 2019 

वाजपेयी जी के जन्म दिन पर
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जब मैंने अटल जी के हाथों से बना आमलेट खाया
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4 नवंबर 1974 को पटना में एक जुलूस पर हुए पुलिस लाठी
चार्ज में नाना जी देशमुख घायल हो गए थे। 
    पटना मेडिकल काॅलेज  के राजेंद्र सर्जिकल वार्ड में घायल नानाजी को देखने अटल बिहारी वाजपेयी  दिल्ली से आए।
 गंभीर रूप से घायल अन्य अनेक जेपी आंदोलनकारी भी
तब अस्पताल में थे।
 एक पत्रकार के रूप में मैं भी वहां यदाकदा जाया करता था।
उन दिनों मैं साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ का बिहार संवाददाता था।
  संयोग से जिस दिन अटल जी आए थे , मैं भी वहां था।
अटल जी ने खुद आमलेट बना कर नानाजी को खिलाया।
न सिर्फ नाना जी को बल्कि मेरे सहित वहां जो भी थे, सबके लिए अटल जी ने बारी -बारी से बनाया और खिलाया।
हमारे मना करने के बावजूद अटल जी नहीं माने।
बनाते रहे और बारी -बारी से किचेन से ला-ला कर सबको खिलाते रहे। 
 याद रहे कि नाना जी ही थे जिन्होंने जनसंघ में तब के बड़े नेता बलराज मधोक को दरकिनार करके अटल जी को आगे किया।
मधोक जी थोड़ा अतिवादी थे,पर  अटल जी समन्वयवादी।
जनसंघ के संगठन मंत्री नाना जी को संभवतः यह लगता था कि इस देश में मधोक के बदले वाजपेयी ही चलेंगे।
चले भी।
गुजरात दंगे की पृष्ठभूमि में अटल जी ने नरेंद्र मोदी से भी राज धर्म निभाने के लिए कहा था।
--सुरेंद्र किशोर--25 दिसंबर 2019
              





चाहे व्यक्ति का जीवन हो या देश का ।
कभी -कभी संकट आना ही चाहिए !!
अपन-पराए आसानी से पहचान लिए जाते हैं।
जिन लोगों ने मध्यकालीन भारत की सच्ची कहानियां नहीं जानी-पढ़ी हैं,उन्हें अब कोई अफसोस नहीं होना चाहिए।
वे इन दिनों सजीव देख सकते हैं।
  मध्य काल का सच्चा इतिहास किताबों के अधिक दंत कथाओं में है।
  कहते हैं कि हमारे कतिपय इतिहासकारों ने तो लिखा कम , छिपाया अधिक !
सुरेंद्र किशोर--25 दिसंबर 2019

    भारत की एक तस्वीर यह भी 
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  दृश्य--एक
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राजस्थान के उदय पुर जिले के पटेला गांव में गरीबी की मार झेल रही मंगली गुजरात के मेहसाणा में आॅइल मिल में 100 रुपए दिहाड़ी पर काम करने गई थी।
मशीन में पैर फंसा,जिसे अस्पताल में काटना पड़ा।
अपंग होकर वापस घर लौटी।
अब उसे कोई दिहाड़ी पर भी नहीं रखता।
काम करते वक्त पैर कटने पर मालिक द्वारा भारी मुआवजा देने का कानून है,पर शायद गरीब के लिए नहीं।
  --संपादकीय, दैनिक भास्कर, 25 दिसंबर, 2019
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   दृश्य-दो
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मुकेश अंबानी की संपत्ति एशिया में सबसे तेज बढ़ी
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रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी की संपत्ति में इस साल 1.21 लाख करोड़ रुपए का इजाफा हुआ है।
          ----हिन्दुस्तान-25 दिसंबर 2019
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  अब जरा अपना संविधान पढ़ लें !
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भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्व वाले अनुच्छेद में 
लिखा गया है कि 
‘‘राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि
सुनिश्चित रूप से आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि
 जिससे धन और उत्पादन -साधनों का 
ऐसा संकेंद्रण न हो
जो सर्व साधारण के लिए अहितकारी हो। 
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अब और क्या लिखूं ?
कम लिखना,अधिक समझना !! 
.....सुरेंद्र किशोर--25 दिसंबर 2019

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

ऐसे प्रतिबंधित आतंकी संगठन ‘सिमी’ को बढ़ावा दिया ‘सेक्युलर’ नेताओं ने

‘‘इंटरनेशल बिजनेस टाइम्स ने खुफिया सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि नागरिक संशोधन कानून को लेकर हो रही हिंसा के पीछे प्रतिबंधित उग्रवादी कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों -सिमी और पाॅपुलर फ्रंट आफ इंडिया --का हाथ है।’’

अब सिमी के बारे में कुछ बातें।

2001 में जब सिमी पर केंद्र सरकार ने पाबंदी लगाई तो प्रतिबंध के खिलाफ सलमान खुर्शीद सिमी के वकील थे। तब वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। 1977 में स्थापना के समय सिमी, जमात ए इस्लामी हिंद से जुड़ा तथाकथित छात्र संगठन था। पर जब 1986 में सिमी ने ‘इस्लाम के जरिए भारत की मुक्ति’ का नारा दिया तो जमात ए इस्लामी हिंद ने उससे अपना संबंध तोड़ लिया।

30 सितंबर 2001 के टाइम्स आफ इंडिया के अनुसार सिमी के अहमदाबाद के जोनल सेक्रेटरी साजिद मंसूरी ने कहा था कि ‘‘जब भी हम सत्ता में आएंगे तो हम इस देश के सभी मंदिरों को तोड़ देंगे और वहां मस्जिद बनवाएंगे।’’  

याद रहे कि 2001 में जब केंद्र सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध लगाया तो सिमी के नेताओं ने 2002 में इंडियन मुजाहिददीन बना लिया। केरल पुलिस सूत्रों के अनुसार सिमी के लोगों ने ही 2006 में पाॅपुलर फ्रंट आफ इंडिया बनाया।

2018 में केरल सरकार ने केंद्र सरकार से सिफारिश की कि वह पी.एफ.आई. पर प्रतिबंध लगा दे। कांग्रेस के एक महासचिव डा. शकील अहमद ने कहा था कि आई.एम. का गठन गुजरात दंगे की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। यह सिमी के बचाव का उनका एक तरीका था। 

अहमदाबाद धमाकों के बाद पकड़े गए सिमी सदस्य अबुल बशर ने बताया था कि ‘सिमी की इस नीति से प्रभावित हूं कि लोकतांत्रिक तरीके से इस्लामिक शासन संभव नहीं है। उसके लिए एकमात्र रास्ता जेहाद है।’

याद रहे कि 26 जुलाई 2008 को अहमदाबाद में एक साथ 21 बम विस्फोट हुए थे जिनमें 56 लोगों की जानें गयीं थीं। इंडियन मुजाहिदीन ने विस्फोट की जिम्मेदारी ली थी। याद रहे कि सिमी के सदस्य ही आई.एम. में सक्रिय हो गये थे। सितंबर, 2017 में पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी केरल के कोझीकोड में आयोजित महिलाओं के एक सम्मेलन में शामिल हुए। उस महिला संगठन का पाॅपुलर फ्रंट आफ इंडिया से संबध है। उस पर तब काफी विवाद हुआ था।

कर्नाटक के चुनाव में पी.एफ.आई. से जुड़े राजनीतिक संगठन ने अपने उम्मीदवार हटाकर कांग्रेस की एक खास इलाके में मदद की। इससे भाजपा को वहां राजनीतिक लाभ हुआ। याद रहे कि बिहार-उत्तर प्रदेश के अनेक सेक्युलर दलों के बड़े नेताओं और दिल्ली के बुद्धिजीवियों ने समय -समय पर सिमी को निर्दोष संगठन बताया। सारे बयान अखबारों में छपे।

इस तरह समय-समय पर सिमी को बढ़ावा मिला।

आज जब भीषण हिंसक गतिविधियों में उसकी संलिप्तता की खबरें आ रही हैं तो उन बढ़ावा देने वालों में से कोई नेता या बुद्धिजीवी उस हिंसा की निंदा तक नहीं कर रहा है। अरे भई, पुलिस की जहां ज्यादती है तो उसकी भी निंदा करो। पर जो लगातार भीषण व अभूतपूर्व हिंसा कर रहे हैं, उन घटनाओं पर तुम्हारी चुप्पी देश को कहां ले जाएगी ?

साठगांठ का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है? एक बात याद रखने की है कि मनमोहन सिंह के शासनकाल में भी सिमी पर से प्रतिबंध से  नहीं हटा था।

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सुरेंद्र किशोर ..दिसंबर 2019

सोमवार, 23 दिसंबर 2019

 न बिजली की तरह कौंधे,
न सूरज की तरह स्थायी हो सके  !!
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डा.राम मनोहर लोहिया की पहल पर 1966-67 में कुछ गैर कांग्रेसी दलों की आपसी चुनावी एकता हुई थी।
1967 के चुनाव के तत्काल बाद सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गयीं।
कुछ ही समय बाद दल -बदल के कारण उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की कांग्रेसी सरकारें भी गिर गर्इं।
  बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्यों में सी.पी.आई.और जनसंघ एक साथ मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे।
ऐसा पहली और आखिरी बार हुआ।
हां, 1989-90 में वी.पी.सिंह की केंद्र सरकार को दोनों ने बाहर से एक साथ समर्थन जरूर दिया था।
जो कम्युनिस्ट समय -समय पर यह आरोप लगाते रहते हैं कि समाजवादियों ने सांप्रदायिक तत्वों को बढ़ावा दिया,वे 1967 और 1989 की  कहानी ध्यान से पढ़ लें।
यह डा.लोहिया का ही कमाल था कि उन्होंने इन दोनों परस्पर विरोधी दलों को सरकार तक में साथ बैठा दिया ।
  पर, डा.लोहिया की एक बात उन सरकारों ने भी नहीं सुनी।
 उन्होंने उन गैर कांगे्रसी राज्य सरकारों से कहा था कि 
‘‘बिजली की तरह कौंध जाओ और सूरज की तरह स्थायी हो जाओ।’’
यानी जनहित में जल्दी -जल्दी चैंकाने वाले काम करो।
 वे सरकारें वैसा नहीं कर सकीं।
 नतीजतन धीरे- धीरे उन राज्यों में भी कांग्रेसी सत्ता में वापस आ गए।
    डा.लोहिया का नाम लिए बिना नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर  बिजली की तरह कौंधे, इसलिए सूरज की तरह --फिलहाल--स्थायी हो गए।
मोदी आजाद भारत के पहले नेता हैं जिन्होंने अपने बूते लगातार दूसरी बार प्रधान मंत्री की कुर्सी पाई,सीटें अधिक लेते हुए।
पर,उनके दल की राज्य सरकारें ऐसा नहीं कर सकीं।
नतीजतन एक -एक करके राज्य हारते जा रहे हैं।
संघ,भाजपा और नरेंद्र मोदी के त्रिस्तरीय ‘अनुशासन’ में रहने के कारण  मुख्य मंत्रियों को  मोदी शैली अपनाने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सका।
  कुछ दशक पहले तक बिहार में देखा गया था कि यदि किसी  एस.पी.या दारोगा ने ईमानदारी से अपराधियों को सबक सिखा दिया तो जनता उसकी बदली होने के बाद रोने लगती थी।
यदि वोट से एस.पी.बनना होता तो वैसा एस.पी.कभी नहीं बदला जाता ।
दूसरी ओर तो मुख्य मंत्री के पास तो बहुत पावर होते हैं।
भाजपा यानी यूं कहें कि किसी अन्य दल का शायद ही कोई मुख्य मंत्री अपनी सरकार में भ्रष्टाचार से निर्णायक लड़ाई करता हुआ नजर आता है।
जबकि देश भर में थानों और अंचल कार्यालयों तक में खुली घूसखोरी का बोलबाला है।
भ्रष्टाचार से लड़ते नेता जनता को बहुत भाते हैं।
 ढीले -ढाले मुख्य मंत्री न तो अपना भला कर पाते और न पार्टी का और न ही राज्य का। 
सरकार बचाने की चिंता में रहने वालों की सरकार जल्दी ही चली जाती है।
अब नतीजा सामने है 
....................
किसी संविधान संशोधन के लिए कम से कम आधे राज्यों की विधायिकाओं की सहमति की जरूरत होती है।
 राजग के पास आधे राज्य अब बचे रह पाएंगे ? 
 लगता है कि मुख्य मंत्रियों की विफलता के कारण नरेंद्र मोदी की ‘रफ्तार’ अब कम हो जाएगी।
--सुरेंद्र किशोर--23 दिसंबर 2019

देश की एकता पर राजेंद्र माथुर के विचार
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मैं ‘समकालीन जनमत’ की फाइल उलट रहा था।
20 मई, 1990 के अंक में राजेंद्र माथुर का जिक्र आया तो उसे पढ़ने लगा।
दिल्ली प्रेस क्लब में आयोजित गोष्ठी की रपट पत्रिका में छपी है।
 उसमें प्रकाशित माथुर साहब की कुछ टिप्पणियां यहां उधृत कर रहा हूं,
‘‘श्री माथुर ने अपनी पसंद बताई कि वे लोकतंत्र की कीमत पर देश की एकता को और पत्रकारिता की कीमत पर सरकार को बचाना ज्यादा पसंद करेंगे।
तर्क था कि यदि एकता बनी रहे तो किसी तरह लोकतंत्र हासिल  किया जा सकता है।
मगर लोकतंत्र बना भी रहे और देश टूट जाए तो उसे वापस जोड़ना असंभव होगा।’’
 आज की स्थिति में माथुर साहब की टिप्पणी अधिक मौजूं है।
   माथुर साहब किसी राग-द्वेष और लाभ-हानि की परवाह किए बिना जो ठीक समझते थे,वही लिखते थे।
 उनसे भी लोग कई बार असहमत होते थे।
पर,इसके बावजूद उनका नाम आज भी बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है।
  नई पीढ़ी के  जिन लोगों ने राजेंद्र माथुर का नाम
नहीं सुना है,उनके लिए दो शब्द।
माथुर साहब अंग्रेजी के प्राध्यापक थे।
फिर भी हिन्दी पत्रकारिता में आए।
उनका मानना था कि यह देश अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी का है।यानी अधिक लोगों तक पहुंचने के लिए हिन्दी में लिखना जरूरी है। 
उन्होंने अपने जमाने में अपने वरीय व कनीय सहकर्मियों के साथ मिलकर इंदौर के दैनिक नईदुनिया को देश का सबसे अच्छा अखबार बना दिया था।
नवभारत टाइम्स में प्रधान संपादक बन कर दिल्ली गए तो उस अखबार में उन्होंने विचारों की ताजगी भी ला दी।
ईश्वर जब ऐसे लोगों को  कम ही आयु में अपने पास बुला लेता है तो लगता है कि  ईश्वर ने भी उसे पसंद किया।
--सुरेंद्र किशोर.--.22 दिसंबर 2019

रविवार, 22 दिसंबर 2019

उधार प्रेम की कैंची
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दशकों से एक विनोदपूर्ण कहावत सुनता रहा हूं
‘‘जो किसी को पुस्तक उधार दे,वह मूर्ख।
जो उस पुस्तक को वापस कर दे,वह महामूर्ख।’’
  अब उस कहावत में समय के हिसाब से एक नया तत्व जुड़ गया है।
यदि आप अपनी पुस्तक लौटाने को कहेंगे तो हो सकता है कि वह यह कहते हुए आपस झगड़ पडे़ कि आपको तो पहले ही लौटा चुका हूं।
आप फिर क्यों मांग रहे हैं ?़
ऐसा हो भी रहा है।
सही कहा गया है कि
‘‘उधार प्रेम की कैंची है !’’
--सुरेंद्र किशोर -- 21 दिसंबर 2019
  

चहारदीवारी ,दरवाजा और अंधा !
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पहले गलती की और बाद में पछताए।
इस देश के इतिहास में नाजुक मोड़ जब-जब आए,
उनमें से अधिकतर ऐतिहासिक अवसरों पर 
कुछ दलों ,नेताओं और समूहों ने पहले गलतियां  कीं 
और बाद में पछतावा किया।
कुछ ने लिखकर, कुछ ने बोलकर और कुछ ने प्रस्ताव 
तक पास करके पछताया।
  आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक ऐसा होता
 रहा है।
आज के ऐतिहासिक अवसर पर भी कुछ दल,नेता और 
समूह वही सब कुछ दुहरा रहे हंै।
संभवतः कल वे भी पछताएंगे।
पर, तब तक उनके खेत को चिडि़या चुग चुकी होगी।
खुशी की बात है कि इस देश के अधिकतर लोग 
अधिकतर अवसरों पर सही रहे।
--सुरेंद्र किशोर--22 दिसंबर 2019

    

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

विषयुक्त रासायनिक खेती से 
विषमुक्त जैविक खेती की ओर 
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1.-बाजरा
2.-जौ
3.-चना
4.-मूंग
5.-सोयाबीन
6.-मक्का
7.-रागी
8.-मंडुआ 
और 9.-सफेद तिल।
यानी नवान्न।
सामान्यतः ये अन्न ऐसे हैं जिनके फूल रासायनिक खाद बर्दाश्त नहीं कर पाते।
अतः ये सारे अन्न प्रायः पूर्णतः जैविक यानी 
विषमुक्त ही होते हैं।
सभी को बराबर मात्रा में मिलाकर पिसवा कर आटा और दरवा कर दलिया बना सकते हैं।
आटे की रोटी, पराठा, हलवा, लड्डू आदि बना सकते हैं।
दर्रा का दलिया, खिचड़ी, भात, खीर आदि बना सकते हैं।
ज्यादा करारा चाहिए तो बाजरे की मात्रा दुगुनी कर दें।
 यदि साॅफ्ट चाहिए तो जौ की मात्रा बढ़ा दें।
   पाव रोटी या बिस्कुट बनाने के लिए खमीर उठाने के लिए दही में आटा गंूध कर रात भर छोड़ देने से अच्छा रहेगा।
  ऊपर लिखी पूरी सूचना मुझे भाजपा के राज्य सभा सदस्य आर.के.सिन्हा से मिली है।
जैविक खेती के क्षेत्र में वह अनुकरणीय काम कर रहे हैं।
वे खुद नवान्न ही खाते हैं।लोगों को भी प्रेरित करते हैं।
सत्तर के दशक में  मैंने तेज -तर्रार पत्रकार रवींद्र किशोर की पत्रकारिता से प्रभावित होकर ही अपने नाम के आगे ‘किशोर’ लगाया था।तब तक मेरा उनसे कोई परिचय भी नहीं था।
मुझे अकेला को हटाकर कोई एक शब्द जोड़ना था।
अब उनके नवान्न को अपनाने का निश्चय मैंने किया है।
उन दिनों के रवींद्र किशोर ही आज के आर.के.सिन्हा हैं जो राज्यसभा में भाजपा सदस्य भी हैं।
मेरा मानना है कि जैविक खेती के क्षेत्र में जो काम वह  कर रहे हैं, वह  किसी सांसदी से अधिक बड़ा काम है।
यह काम लोगों को विष ग्रहण करने से रोकने का है।
बिहार के भोजपुर जिले के कोइलवर से साढ़े चार किलोमीटर दक्षिण स्थित उनके पुश्तैनी गांव बहियारा में आर.के.सिन्हा का करीब 50 बीघे का फार्म हाउस है।
  जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि वहां वे पूरी तरह जैविक खेती करवाते हैं।
अनाज से लेकर आम और अनार तक और सहजन से लेकर ओल तक उपजाया जाता है।
सिन्हा ने बहुत पहले मुझे चेताया था कि ‘‘बाजार में मिलने वाले चावल -गेहूं में आर्सेनिक है।उसे मत खाइए।’’
आज के ‘संडे टाइम्स’ की रपट भी सिन्हा की बात की पुष्टि करती है।
जांच के बाद तैयार रपट के अनुसार पटना सहित बिहार के गंगा से सटे छह जिलों में आटे की रोटियों में आर्सेनिक पाया गया है।
उनमें से तीन जिलों में तो बहुत अधिक आर्सेनिक है।
वे जिले हैं-बक्सर,भोजपुर और भागल पुर।
अर्सेनिक से कैंसर सहित कई बीमारियां होती हैं।
  आर.के.सिन्हा कहते हैं कि ‘‘खेत तो सबके पास नहीं है,पर लोग  गमलों में तो जैविक विधि से सब्जी उपजा ही सकते हैं।यदि कोई चाहे तो हम उन्हेें प्रशिक्षण देने को तैयार हैं।’’




शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

सन 2002 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह ने कहा था कि 
‘‘......मैं जानता हूं कि अगर कोई मुख्य मंत्री चाहे तो दंगा   होता है और न चाहे तो दंगा नहीं हो सकता।
जब मैं यह बात कहता हूं तो पूरी जिम्मेदारी से कहता हंू।
 नौ साल से मुख्य मंत्री हूं और अच्छी तरह जानता हूं कि शासन और प्रशासन कैसे चलता है।’’
   ---मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह    
      आउटलुक साप्ताहिक --23 दिसंबर 2002
जिन राज्यों के मुख्य मंत्री अपने राज्य में ताजा दंगाई हिंसा को रोकना चाहते हैं,वे दिग्गी राजा से गुरू मंत्र ले सकते हैं।
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वैसे दिग्विजय सिंह की इस टिप्पणी पर उन कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों की पता नहीं क्या प्रतिक्रिया थी जिनके राज्य में बड़े -बड़े दंगे हुए थे ?

  जो बोया,वही तो काट रहे
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आजादी के तत्काल बाद की सरकार ने कई अच्छे काम भी
किए।
पर, साथ ही उसने हमारी कुछ प्रमुख समस्याओं के साथ खिलवाड़ भी किया।कुछ जाने में तो कुछ अनजाने में ।
उनमें सुरक्षा,भ्रष्टाचार और घुसपैठियों की समस्याएं शामिल थीं।
1.-सेना को एक करोड़ रुपए की सख्त जरूरत थी।
सरकार ने नहीं दिया।
उसके बाद चीन ने हम पर हमला कर दिया।
क्या हाल हुआ,वह प्रमुख पत्रकार मन मोहन शर्मा के शब्दों में पढ़ लीजिए, 
‘एक युद्ध संवाददाता के रूप में मैंने चीन के हमले को कवर किया था।
  मुझे याद है कि हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।
 हमारी सेना के पास अस्त्र,शस्त्र की बात छोडि़ये,कपड़े तक नहीं थे।
 तब अंबाला से 200 सैनिकों को एयर लिफ्ट किया गया था।
उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं।
उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया
जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था।
वहां पर उन्हें गिराए जाते ही ठंड से सभी बेमौत मर गए।
2.-जिस नेता पर जीप घोटाले का आरोप लगा,उसे बाद में केंद्र  मंत्री बना दिया गया।
भ्रष्टाचार को ऐसे प्रोत्साहन देने का नतीजा क्या हुआ,उसे जानने के लिए तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डी.संजीवैया का 1963 का इंन्दौर का भाषण पढि़ए,
‘‘ ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।@ 1963 के एक करोड़ की कीमत आज कितनी होगी ?@
गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने  यह भी कहा था कि ‘झोपडि़यों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’ 
3.-
कुछ साल पहले की बात है।
डी.वी.पर डिबेट चल रहा था।उन दिनों के डिबेट में वक्ताओं की बातें आप सुन भी सकते थे और समझ भी सकते थे।
आज की तरह ‘‘कुत्ता भुकाओ कार्यक्रम’’ नहीं होता था।
हालांकि आज भी सभी चैनलों पर ऐसा नहीं होता।
खैर एक तरफ भारतीय विदेश सेवा के पूर्व सदस्य थे तो दूसरी ओर शिवसेना के सांसद।
घुसपैठियों की समस्या और सीमा पर बाड़ लगाने की बात चली।
नेहरू युग के उस अफसर ने कहा कि ‘यदि हम सीमा पर बाड़ लगाएंगे तो दुनिया में हमारे देश की छवि खराब हो जाएगी।
उस पर शिवसेना के सांसद ने उनसे पूछा  कि ‘आप भारत के विदेश सचिव थे या बंगला देश के ?’
   ऐसे बढ़ती गईं हमारी समस्याएं !!!
आज आप देश भर में क्या हिंसा देख रहे हैं !!! 
आगे की राह तो और भी कठिन लगती है ???????

भारत के नागरिकता संशोधन विधेयक की चर्चा करते हुए पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान ने आर.एस.एस.के हिन्दू राष्ट्र की ओर एक कदम बढ़ाने का आरोप लगाया है।
    इमरान का बयान राजनीतिक है।
 भारत को कोई हिन्दू राष्ट्र नहीं बना सकता।
कोई जिम्मेदार  पार्टी या सरकार बनाना भी नहीं चाहेगी।उसकी जरुरत भी नहीं है।
हां,मेरा जहां तक अध्ययन है,उसके अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार 
उन तत्वों के मनसूबे को विफल करना जरूर चाहती है जो भारत का एक और बंटवारा या यहां  एक बार फिर  इस्लामिक शासन कायम करना चाहते हैं।वैसे तत्व कश्मीर में तो इसकी सार्वजनिक रूप से घोषणा भी करते रहते हैं।पर उनका निशाना अंततः पूरा देश है।
वे लोग चीन में लाखों मुसलमानों की हो रही सरकारी उत्पीड़न के खिलाफ आवाज भी इसीलिए नहीं उठा रहे हैं ताकि चीन सरकार भारत में उनके धार्मिक मनसूबा पूरा करने में मदद करे।
20 दिसंबर 2019 

गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

हिंसा होने पर गांधी जी अपना आंदोलन-सत्याग्रह स्थगित कर दिया करते थे।
पर गांधी का नाम लेने वाली आज की कांग्रेस जेहादी मानसिकता वालों की हिंसा के सहारे एक बार फिर सत्ता हासिल करना चाहती है। 
   क्या वह सफल होगी ? 
सुरेंद्र किशोर --19 दिसंबर 2019



पूर्वी दिल्ली के सीलम पुर में नागरिकता कानून के खिलाफ 
विरोध प्रदर्शन नहीं,बल्कि सरेआम  गुंडागर्दी है।
   कानून हाथ में लेकर कोई प्रदर्शन नहीं होता।
देश का लोकतंत्र आपको चुनी हुई सरकार से सवाल पूछने का हक देता है।
हिंसा का नहीं....
हिंसा होगी ..
पुलिसवालों पर हमला होगा 
तो फिर पुलिस की लाठियां खाने को तैयार रहो।
              ----  समीर अब्बास,दैनिक जागरण  
18 दिसंबर 2019

शाही इमाम को मालूम है ‘जन्नत की हकीकत’
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दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने कहा है कि 
नागरिक संशोधन कानून का भारतीय मुसलमानों से कुछ लेना -देना नहीं है।इसलिए वे संयम बरतें।
दूसरी ओर, पूरे देश के लिए एन.आर.सी.कानून अभी बना ही नहीं है।
    संभवतः शाही इमाम इस बात को समझ गए हैं कि मौजूदा हिंसक आंदोलन ,सामान्य आंदोलन नहीं, बल्कि जेहाद है।
इससे भाजपा को ही अंततः राजनीतिक और चुनावी फायदा होगा।
वह शायद यह भी समझ गए हैं कि आज का भारत 1947 का भारत नहीं है।
यहां की सेना अब बहुत मजबूत और साधन संपन्न है।
आम हिन्दुओं में भी इस बीच जागरूकता बढ़ी है।
दूसरी ओर, मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा अब भी सिमी,
आई.एम. और पाॅपुलर फं्रट आॅफ इंडिया के प्रभाव से दूर है।
  जिस तरह ओवैसी, आइ.एस.के खिलाफ हैं,उसी तरह शाही इमाम मौजूदा हिंसक आंदोलनकारियों के खिलाफ हैं।
अरविंद केजरीवाल भी घबराए हुए हैं।उन्होंने आशंका जाहिर की है कि ऐसे आंदोलन से ‘आप’ को नुकसान हो सकता है।
  इस बीच दो बातें और हुई हैं।
खबर आ रही है कि कश्मीर में 370 और 35 ए को स्थगित किए जाने और राज्य के बंटवारे के बाद वहां के स्थानीय जेहादियों की हालत वही हो गई है जो हालत 1971 की हार के तत्काल बाद पाकिस्तान की हो गई थी।
 गत अक्तूबर में बगदादी पर जब अमरीकी टुकड़ी का हमला हुआ तो वह गिड़गिडाते हुए प्राण की भीख मांग रहा था।चूंकि उसने किसी को कभी ऐसी भीख नहीं दी,इसलिए उसे भी नहीं मिली।
 याद रहे कि जबकि खुद बगदादी जेहाद के लिए खुशी- खुशी जान दे देने के लिए दुनियां के मुसलमानों को  उकसाता रहा।  
--सुरेंद्र किशोर 19 दिसंबर 19

पुण्य तिथि पर कामरेड विनोद मिश्र की याद में
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कामरेड विनोद मिश्र उन थोड़े से कम्युनिस्ट नेताओं में थे जिनसे एक बार मिलने के बाद बार -बार मिलने का जी करे।
  दरअसल कम्युनिस्ट होते हुए भी उनमें बौद्धिक अहंकार नहीं था।व्यवहार में भी सौम्यता थी।
कम ही लोग जानते हैं कि साठ के दशक में सर्वोदय आंदोलन से भी उनका थोड़ा संपर्क रहा।
सौम्यता शायद वहीं से आई हो।
  उनकी राजनीति से आप असहमत हो सकते हैं,पर लक्ष्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता संदेह से परे थी।
   देश के कई स्थानों से उनका संबंध रहा।सन 1947 में जबल पुर में उनका जन्म हुआ।
1998 में लखनऊ में निधन हुआ।
इस बीच पिता के कार्य स्थल कानुपर में रहे।
दुर्गा पुर में  इंजीनियरिंग की पढ़ाई की।
  बिहार के भोजपुर को अपना सघन कार्य क्षेत्र बनाया।
विनोद मिश्र अपने जीवन काल में ही किंवदंती बन चुके थे।
1975 से 1998 तक सी.पी.आई.एम-एल-लिबरेशन के महासचिव रहे कामरेड मिश्र उर्फ राजू से जब भी मैंने बात की ,लगा कि वह सही बोल रहे हैं।
 यदि बिहार में उनके काॅडर का एक हिस्सा 1990 के मंडल आंदोलन के प्रभाव में आकर उन्हें छोड़ दिया ,तो उन्होंने इसे भी सार्वजनिक रूप से स्वीकारा।
   माले आंदोलन में 22 साल तक भूमिगत रहने के बाद वे 21 दिसंबर 1992 को कलकत्ता में खुले में आए थे।
  उससे पहले बिहार के एक बड़े पुलिस अफसर ने मुझसे कहा था कि पुलिस के पास भी विनोद मिश्र का फोटो तक नहीं है।
जब भूमिगत थे,तभी उन्होंने इंडियन पीपुल्स फं्रट बनाया। 
फ्रंट चर्चित हुआ।
उन दिनों मैं दैनिक ‘आज’ में काम करता था।
 मैंने ही यह न्यूज ब्रेक किया कि आई.पी.एफ.के पीछे माले है।
इस पर माले के तीन-चार  दबंग कार्यकत्र्ताओं ने  मेरे आॅफिस में आकर मुझे धमकाया।
कहा कि यह लिखना बंद करिए अन्यथा ठीक नहीं होगा।
वे तब तक इस बात को छिपाना चाहते थे।
 खैर, धमकाने वालों में से एक युवक बाद में लालू प्रसाद के दल से विधायक बन गया था।  
  विनोद मिश्र के निधन पर मुझे भी दुख हुआ।
क्योंकि एक पत्रकार के रूप में उनसे बात करके मुझे स्थिति का साफ -साफ पता चल जाता था।
  हां,उनके और मेरे बीच एक ही चीज बाधक थी--वह उनकी चेन-स्मोकिंग।
बात करते समय धुएं से बचने के लिए जब मैं नाक पर रूमाल रख लेता था तो वे लिहाजवश तुरंत सिगरेट बुझा  देते थे।
पर जैसे ही कुछ समय बीतता था तो वे सुलगा लेते थे।
  मैं सोचता था कि जिस नेता को लाखों लोग प्यार करते हैं,उनके कहने पर मरने -मिटने पर उतारू हो जाते हैं,बड़ी उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं,उसे कम से कम लोगों के लिए तो अपना स्वास्थ्य ठीक रखना चाहिए।
मेरी यह बात अन्य नेताओं पर भी लागू होती है। 
....सुरेंद्र किशोर--18 दिसंबर 2019

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

20 जनवरी, 2013 को देश के तत्कालीन गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जय पुर में कहा था कि 
‘‘भाजपा और आर.एस.एस.आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों का संचालन कर रहे हैं 
और वे हिन्दू आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं।’’
   शिंदे साहब, इन दिनों देश के कई हिस्सों में मुस्लिम अतिवादी आतंक मचाए हुए हैं।जबकि सीएए से उन्हें कोई नुकसान नहीं होने वाला है।
 फिर भी, आपकी कल्पना के उन शिविरों से निकल कर कोई उनका मुकाबला करने के लिए सड़कों पर क्यों नहीं 
आ रहा है ?
यदि वे शिविर हैं तो वे किस दिन के लिए हैं ?
आप ही इसका जवाब दे दीजिए।
वैसे आपको और दिग्विजय ंिसंह को छोड कर किसी अन्य को वे शिविर कहीं नजर नहीं आ रहे हैं।़
  दूसरी ओर इस देश  की अधिसंख्य आबादी में इस बात को लेकर भी नाराजगी देखी जा रही है कि मोदी सरकार उन अतिवादियों को सड़कों पर करारा जवाब क्यों नहीं दे रही है।
   इस बात को लेकर भी गुस्सा है कि आपकी पार्टी की एकतरफा सोच एक बार फिर प्रकट हो रही है जिससे आपके दल को और देश को ही नुकसान हो जाने का खतरा है।
आपके दल कोे नुकसान होगा तो भाजपा ही को तो फायदा होगा !
आप भाजपा के प्रचारक क्यों बने हुए हैं ?
2014 के लोस चुनाव के बाद आई ए.के. एंटोनी कमेटी की रपट को एक बार पढ़ लीजिएगा।
उस पर अमल करने के लिए हाईकमान को कहिए।उससे आपका व देश का भला होगा।  
18 दिसंबर 2019




मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

   अपने ही पैरों पर  कुल्हाड़ी !!!
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मध्य युग का अपने देश का इतिहास हमने पढ़ा हैं।
ब्रिटिश इतिहासकार सर जे.आर सिली की पुस्तक भी मेरे पास है। 
सिली की किताब का नाम है ‘हमने भारत को कैसे जीता।’ 
 सिली के अनुसार भारतीयों ने भारत को हमारे लिए जीत कर हमारी थाली में रख दिया।
   सी.ए.ए. और एन.आर.सी. पर हो रही ताजा घटनाओं को देखते-समझते हुए मुझे लगता है कि
इस देश में इस मामले में कुछ भी नहीं बदला है।
---सुरेंद्र किशोर ......17 दिसंबर 19

 वी.वी.आई.पी.के लड़खड़ाने की कहानी
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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी कानपुर के अटल घाट की सीढि़यों पर लड़खड़ा गए थे।
वह तस्वीर कल के अखबार में छपी।
कई साल पहले तत्कालीन बुजुर्ग राष्ट्रपति डा.शंकर दयाल शर्मा भी लड़खड़ाए थे,वह भी बुरी तरह।
तब ‘जनसत्ता’ ने पहले पेज पर फोल्ड के ऊपर लड़खड़ाते राष्ट्रपति की तस्वीर छाप दी थी।
  पता नहीं, मौजूदा प्रधान मंत्री  को वैसा फोटो छपना बुरा लगा या नहीं !
पर, तब के राष्ट्रपति को तो बुरा लग गया था।
डा.शर्मा ने जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी को फोन किया था।
कहा था कि क्या भई,बाह्मण होते हुए भी आपने मुझे नहीं बख्शा ?’
यह बात मुझे बाद में जोशी जी ने ही बताई थी।
मैं अंदाज लगा सकता हूं कि जोशी जी ने उन्हें क्या जवाब दिया होगा।
क्योंकि एक बात मैं पक्के तौर पर उनके बारे में जानता था।
जोशी जी खबरों के मामले में न तो अपनी जाति का ध्यान रखते थे और न अपने किसी मित्र का।
यदि खबर है तो वह छपेगी ही।
  जनसत्ता में यदि अखबार के किसी अन्य सहकर्मी के खिलाफ भी कोई शिकायत आती थी तो उसे वे खुद पर ले लेते थे।
 जैसे सती प्रथा पर छपी संपादकीय।
उसे उनके प्रमुख सहकर्मी ने लिखा था।
16 दिसंबर 2019
       

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

   लंबे सघर्ष के संकेत
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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कल दुमका में कह दिया
कि 
‘‘सरकार ने नागरिकता कानून में जो बदलाव किए हैं,वे देश
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को बचाने के लिए हैं।’’
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 अब आप इसके निहितार्थ को समझ कर लंबे ‘संघर्ष’ के लिए कम से कम मानसिक रूप से तैयार हो जाइए।
यह संदेश दोनों पक्षों के संघर्षशील लोगों के लिए है।
मोदी के समर्थक-प्रशंसक बताते  हंै कि जिस काम को प्रधान मंत्री ‘देश को बचाने वाला’ काम मानते हैं,उसे वे बीच में कभी नहीं छोड़ते।
वैसे भी उनका कार्यकाल 2024 तक है।
यानी उनके पास समय भी है।
इस बीच वे बड़े- बड़े खतरे उठाकर भी क्या -क्या कर गुजरेंगे , इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। 
और उसकी प्रतिक्रिया में भी क्या -क्या होगा,
इसका भी कोई अंदाज नहीं लगा सकता।
पर, होनी को भला कौन टाल सकता है !!
16 दिसंबर 2019
    

  दिल्ली की हिंसक घटना--तथ्य बनाम बयान
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 कल दिल्ली के जामिया मिलिया के आसपास क्या -क्या हो
रहा था ?
वहां कौन-कौन  क्या-क्या  कर रहा था ?
कौन शांत था ?
कौन उत्तेजना फैला रहा था ?
कौन शांति की अपील कर रहा था ?
कौन हिंसा कर रहा था ?
पुलिस क्या कर रही थी ?
क्या पुलिस बर्बरता कर रही थी ?
क्या भीड़ हिंसक  थी ?
वह सब कुछ लोगबाग घर बैठे अपने टी.वी.चैनलों 
पर सांस रोके देख रहे थे।
इसके अलावा और भी नंगी सच्चाई घटनास्थल पर लगे सीसीटीवी कैमरों की आंखों ने देखी।
फिर भी उस घटना पर हमारे देश के विभिन्न 
दलों के बडे़ -बड़े नेताओं ने क्या -क्या बयान दिए ?
मुझे लगा कि अधिकतर नेताओं के बयान तथ्य से अलग और राजनीति प्रेरित थे।मैं सिर्फ एक पक्ष के नेताओं की बात नहीं कर रहा हूं।
यानी, चैनलों ने उन नेताओं के सफेद झूठ का एक बार फिर भंडाफोड़ कर दिया। 
16 दिसंबर 2019

रविवार, 15 दिसंबर 2019

कई दशक पहले की बात है।
देश के एक बड़े  
पत्रकार के दिल्ली स्थित आवास पर उनसे मिलने 
मैं गया था।
बात- बात में उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘‘मेरा लेखन आपको कैसा लगता है ?’’
मैंने कहा कि ‘‘बहुत अच्छा लगता है।क्योंकि आप सूक्ष्म दृष्टि से चीजों को देखते हैं।राजनीति को लेकर आपका आॅबजरवेटरी रडार बहुत शक्तिशाली है।
पर आप एकतरफा लिखते हैं।आप भाजपा की ओर झुके लगते हैं।’’  
  उन्होंने कहा कि ‘‘आप सही कह कर रहे हैं।मैं झुका हुआ हूं।
दरअसल जो किसी राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा नहीं है,वह आम तौर पर पैसों से जुड़ा होता है।वैसे इसके अपवाद भी हैं।’’ 
 पंचायतों के अधिकतर मुखिया के बारे में यही बात कही जा सकती है।
  अधिकतर पैसों से जुड़े होते हैं।दलीय आधार पर चुनाव हो तो शायद थोड़ी स्थिति बदले !
ऐसा नहीं कि राजनीति में पैसों का खेल नहीं होता।पर निचले स्तर के नेता-कार्यकत्र्ता ऊपरी डर से कुछ सहमते भी हैं।
पर जहां डर नहीं, अंकुश नहीं, वहां की कल्पना कर लीजिए।
बहुत बातें तो आपकी जानकारी में भी होंगी।

सर्दी हो या गर्मी अखबार का हाॅकर जरूर आता है !
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‘‘आपने मेरे बारे में ऐसा सोचा,यह देखकर मुझे अच्छा लगा।पर, मेरा काम इस गमछे से ही चल जाएगा।’’
इस अत्यंत खराब मौसम में भी जब सुबह-संबह  अखबार लेकर हाॅकर आज आया तो मैंने उससे कहा कि ‘‘मैं तुमको एक ऊनी मंकी कैप देना चाहता हूं।खराब मौसम में ही तुम्हारे महत्व का पता चलता है।’’
  पर हाॅकर स्वाभिमानी निकला और
अपने सूती गमछे को अपने कान में लपेटते हुए उपर्युक्त बातें कह दी।
खैर, उसकी बातों से अखबारी दुनिया का पूरा दृश्य मेरी आंखों के सामने घूम गया जहां मैंने दशकों बिताए हैं।
  हाॅकर तो अखबार का आखिरी पात्र होता है।
  उससे पहले किसी अखबार की कहानी कहां से शुरू होकर कहां अंत होती है,इसकी लंबी व संघर्षपूर्ण गाथा है।
अखबार का कोई मालिक होता है।उसमें वह अपनी पूंजी लगाता है।
खतरा उठाता है।
रामनाथ गोयनका जैसे इक्के दुक्के अभियानी मालिकों की बात छोड़ दें तो कोई भी पूंजीपति यही चाहता है कि उसकी पूंजी बनी रहे, साथ- साथ मुनाफा भी हो।
वह क्रांति करने के लिए अखबार नहीं निकाल रहा होता है।
   उसके समझदार स्टाफ को मालिक के इस लक्ष्य को ध्यान में रखना होता है।
  खैर,पत्रकारों के बारे में कम से कम एक बात जान लेनी चाहिए।
अधिकतर अखबार स्टाफ की कमी की समस्या झेलते रहते हैं।
संवाददाता मेहनत करके और कई बार खतरों से खेल कर  भी ऐसी खबरें लाता है जो पठनीय हों।
  डेस्क के लोग उसे पन्नों पर सजाते हैं।
अन्य पात्रों की बात अभी छोड़ भी दीजिए तो नाइट ड्यूटी वालों को अलग से श्रेय देना पड़ेगा।
   आपको सुबह-सुबह अखबार पहुंचाने  के लिए नाइट ड्यटी वाले स्टाफ करीब- करीब रात भर जग कर काम करते हैं।
परिवार से दूर और अपनी नींद की सामान्य अवधि बदल कर।
उनका बाॅडी क्लाॅक ही बदल जाता है।
  जरा कठिन काम है।इसीलिए सेवाकाल में खुद मैं हमेशा नाइट ड्यूटी से भागता रहा।
ऐसा कोई पद स्वीकार कभी नहीं किया जिसमें कम से कम 10 बजे रात तक भी काम करने की मजबूरी हो।मैं नौ बजे सो जाता हूं।
हाॅकर से लेकर नाइट ड्यूटी वाले तक  न जाने कितना काम करके आपको सुबह -सुबह अखबार पहुंचाते हैं।
उधर अखबार की प्रसार शाखा के लोग तो भोर में ही बिक्री केंद्रों पर पहुंच जाते हैं। 
 अंत में,एक जरूरी सूचना।
अखबार ही दुनियां का एकमात्र प्रोडक्ट है जो अपनी लागत खर्च से कम दाम पर  बिकता है।
  विज्ञापनों से उसका घाटा पूरा होता है।विज्ञापन अखबारों की रक्त धमनियां होती हैं।