रविवार, 1 दिसंबर 2019

बहुमत सुनिश्चित किए बिना शपथ दिलाना लोकतंत्र के हक में नहीं-सुरेंद्र किशोर



देवेंद्र फडणवीस को कुछ ही घंटों में महाराष्ट्र का मुख्य मंत्री पद छोड़ना पड़ा।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि राज्यपाल ने बहुमत की गारंटी सुनिश्चित किए बिना ही उन्हें शपथ दिला दी थी।
ऐसा इस देश में पहली बार नहीं हुआ ।
ऐसा केंद्र में भी हुआ है और राज्यों में भी।
  ऐसे प्रकरणों से न सिर्फ राजनीति की साख खराब होती है बल्कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की गरिमा भी कम होती है।
  उम्मीद है कि भविष्य में ऐसी नौबत फिर से न आए। 
पहले बहुमत सुनिश्चित हो,तभी शपथ दिलाई जाए।
 --शराबबंदी को लेकर 
  प्रतिबद्धता सराहनीय--
शराब बंदी के प्रति बिहार सरकार की प्रतिबद्धता 
सराहनीय है।
कोई निर्णय करिए तो उस पर डटे रहिए।
इससे निर्णयकत्र्ता की साख बढ़ती है।
शराब बंदी के अनेक फायदे हैं।
कुछ फायदे तो साफ नजर आ रहे हैं।
फिर भी समाज के एक छोटे हिस्से की ओर से इसका  विरोध
 अदूरदर्शिता है।
  सन 1977 में भी आंशिक शराबबंदी हुई थी।
 उसका इतना विरोध नहीं हुआ था।
उसके दो कारण थे।
एक तो देश भर में शराबबंदी पहले साल सिर्फ एक चैथाई से शुरू करके चार साल में वह पूरी होनी थी।
  कुछ छूट भी मिली थी।
मेडिकल आधार पर कुछ लोगों को शराब खरीदने की छूट मिली हुई  थी। उसके लिए आबकारी विभाग परमिट जारी करता था।
  इस सुविधा के कारण भी मुखर वर्ग की ओर से तब विरोध कुंद पड़ गया था।
   --अधिकार का इस्तेमाल करे सुप्रीम कोर्ट--  
     प्रदूषण पर सुनवाई करते हुए गत 4 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘‘सरकारें नागरिकों के जीने के अधिकार का हनन कर रही है।’’
 25 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘‘लोगों को गैस चैम्बर में रहने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है ?
अच्छा होगा कि बम विस्फोट कर उन्हें एक बार में ही मार दो।’’
  अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के हाल के निर्णय से देश की सबसे बड़ी अदालत के प्रति अधिकतर लोगों का विश्वास बढ़ा है।
नतीजतन  उम्मीद भी बढ़ी है।
 ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की निरीह टिप्पणी से लोगों में निराशा फैलेगी।
 सुप्रीम कोर्ट को संविधान ने अनुच्छेद-142 के जरिए बहुत ही महत्वपूर्ण अधिकार दिया है।
प्रदूषण से लोगों की प्राण रक्षा  के लिए सुप्रीम कोर्ट उस अधिकार का इस्तेमाल करे।
जान से बड़ी चीज और भला क्या हो सकती है ?
 उस अनुच्छेद की याद दिला दूं।
उसके अनुसार,
‘‘उच्चत्तम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश दे सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो।’’
  --नाजुक मामले पर
 अधिक सतर्कता जरूरी--
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एन.आर.सी.पर जदयू में राय-मशविरा जारी है।
लगता है कि इस बात पर पार्टी जल्द ही अपनी राय बताएगी कि बिहार में ऐसा रजिस्टर तैयार होना चाहिए या नहीं।
कौन नहीं जानता कि बिहार में भी बड़े पैमाने पर अवैध घुसपैठिए मौजूद हैं।मैंने खुद पूर्वोत्तर बिहार के गांवों जाकर घुसपैठियों की मौजूदगी देखी है।
   पर अनेक राजनीतिक दलों के लिए इस नाजुक मुद्दे पर कुछ कहने में कठिनाई होती है।कारण राजनीतिक है।
  रजिस्टर तैयार करने के राजनीतिक लाभ भी हैं तो घाटे भी।
  पर मेरी समझ से जो कोई दल रजिस्टर के प़क्ष में अपनी राय जाहिर करेगा,उसे अंततः कुल मिलाकर घाटा बहुत कम और लाभ बहुत अधिक होगा।
  केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह देशव्यापी रजिस्टर के पक्षधर हैं।
बेहतर होगा,इस संबंध में संसद कानून बनाए या सुप्रीम कोर्ट से कोई आदेश आए।
वैसे संसद कोई कानून पास करेगा तो भी उसे अदालत में चुनौती दी ही जा सकती है।
याद रहे कि देश का आम जन मानस एन.आर.सी.के पक्ष में है।यहां तक कि बिहार के एक मुस्लिम विधायक ने भी
एन.आर.सी.के पक्ष में अपनी राय जाहिर की है।
-- खाली पदों को खाली 
रखने का नुकसान--
केंद्र सरकार ने गुरुवार को संसद में बताया कि भारत सरकार के विभिन्न विभागों में करीब सात लाख पद खाली हैं।
इन्हें भरने का प्रयास चल रहा है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि ये पद भर दिए जाएंगे।
पर सवाल है कि इतनी संख्या में पद खाली ही क्यों रखे जाते हैं ?
 यदि वेतन देने के पैसे नहीं हों तो राजस्व वसूली में कड़ाई बरतिए।
भ्रष्टाचार कम करने से राजस्व बढ़ेगा।
  पदों के भरे रहने पर सरकारी दफ्तरों से आप बेहतर कार्य कुशलता की भी उम्मीद कर सकते हैं।
 साथ ही, लाखों नए परिवारों में जब वेतन के पैसे जाएंगे तो उसका अनुकूल असर कुल मिलाकार देश की अर्थ-व्यवस्था पर भी पड़ेगा।
  बिहार में 1990-91 में राज्य सरकार के करीब 3 लाख पद खाली थे।यानी पहले से ही खाली थे।
तब के राज्य सभा सदस्य डा.रंजन प्रसाद यादव ने कई बार जनता दल सरकार से कहा कि वह उन पदों को भरे।
पर कई कारणों से वे पद नहीं भरे जा सके।
कल्पना कीजिए कि यदि वे भर दिए गए होते ।
जानकार लोगों का कहना है कि तब तो उसका बिहार की अर्थ व्यवस्था पर जरूर सकारात्मक असर पड़ता।
         --और अंत में--
 प्रज्ञा सिंह ठाकुर को उसी समय भाजपा से निकाल दिया जाना चाहिए था जब उन्होंने गत मई में पहली बार नाथूराम गोड्से को राष्ट्रभक्त बताया था।
 अयोध्या जजमेंट के बाद देश में निर्मित बेहतर माहौल को बरकरार रखना जरूरी है ।
पर इसके लिए यह भी जरूरी है कि जिस दल में भी  प्रज्ञा सिंह ठाकुर जैसे नेता सक्रिय हैं, संबंधित दल उनसे मुक्ति पा लें। याद रहे कि ऐसे अतिवादी तत्व अल्पसंख्यकों में भी हैं और बहुसंख्यकों में भी।
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--कानोंकान-प्रभात खबर-29 नवंबर 2019 से ।

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