देश की एकता पर राजेंद्र माथुर के विचार
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मैं ‘समकालीन जनमत’ की फाइल उलट रहा था।
20 मई, 1990 के अंक में राजेंद्र माथुर का जिक्र आया तो उसे पढ़ने लगा।
दिल्ली प्रेस क्लब में आयोजित गोष्ठी की रपट पत्रिका में छपी है।
उसमें प्रकाशित माथुर साहब की कुछ टिप्पणियां यहां उधृत कर रहा हूं,
‘‘श्री माथुर ने अपनी पसंद बताई कि वे लोकतंत्र की कीमत पर देश की एकता को और पत्रकारिता की कीमत पर सरकार को बचाना ज्यादा पसंद करेंगे।
तर्क था कि यदि एकता बनी रहे तो किसी तरह लोकतंत्र हासिल किया जा सकता है।
मगर लोकतंत्र बना भी रहे और देश टूट जाए तो उसे वापस जोड़ना असंभव होगा।’’
आज की स्थिति में माथुर साहब की टिप्पणी अधिक मौजूं है।
माथुर साहब किसी राग-द्वेष और लाभ-हानि की परवाह किए बिना जो ठीक समझते थे,वही लिखते थे।
उनसे भी लोग कई बार असहमत होते थे।
पर,इसके बावजूद उनका नाम आज भी बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है।
नई पीढ़ी के जिन लोगों ने राजेंद्र माथुर का नाम
नहीं सुना है,उनके लिए दो शब्द।
माथुर साहब अंग्रेजी के प्राध्यापक थे।
फिर भी हिन्दी पत्रकारिता में आए।
उनका मानना था कि यह देश अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी का है।यानी अधिक लोगों तक पहुंचने के लिए हिन्दी में लिखना जरूरी है।
उन्होंने अपने जमाने में अपने वरीय व कनीय सहकर्मियों के साथ मिलकर इंदौर के दैनिक नईदुनिया को देश का सबसे अच्छा अखबार बना दिया था।
नवभारत टाइम्स में प्रधान संपादक बन कर दिल्ली गए तो उस अखबार में उन्होंने विचारों की ताजगी भी ला दी।
ईश्वर जब ऐसे लोगों को कम ही आयु में अपने पास बुला लेता है तो लगता है कि ईश्वर ने भी उसे पसंद किया।
--सुरेंद्र किशोर.--.22 दिसंबर 2019
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मैं ‘समकालीन जनमत’ की फाइल उलट रहा था।
20 मई, 1990 के अंक में राजेंद्र माथुर का जिक्र आया तो उसे पढ़ने लगा।
दिल्ली प्रेस क्लब में आयोजित गोष्ठी की रपट पत्रिका में छपी है।
उसमें प्रकाशित माथुर साहब की कुछ टिप्पणियां यहां उधृत कर रहा हूं,
‘‘श्री माथुर ने अपनी पसंद बताई कि वे लोकतंत्र की कीमत पर देश की एकता को और पत्रकारिता की कीमत पर सरकार को बचाना ज्यादा पसंद करेंगे।
तर्क था कि यदि एकता बनी रहे तो किसी तरह लोकतंत्र हासिल किया जा सकता है।
मगर लोकतंत्र बना भी रहे और देश टूट जाए तो उसे वापस जोड़ना असंभव होगा।’’
आज की स्थिति में माथुर साहब की टिप्पणी अधिक मौजूं है।
माथुर साहब किसी राग-द्वेष और लाभ-हानि की परवाह किए बिना जो ठीक समझते थे,वही लिखते थे।
उनसे भी लोग कई बार असहमत होते थे।
पर,इसके बावजूद उनका नाम आज भी बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है।
नई पीढ़ी के जिन लोगों ने राजेंद्र माथुर का नाम
नहीं सुना है,उनके लिए दो शब्द।
माथुर साहब अंग्रेजी के प्राध्यापक थे।
फिर भी हिन्दी पत्रकारिता में आए।
उनका मानना था कि यह देश अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी का है।यानी अधिक लोगों तक पहुंचने के लिए हिन्दी में लिखना जरूरी है।
उन्होंने अपने जमाने में अपने वरीय व कनीय सहकर्मियों के साथ मिलकर इंदौर के दैनिक नईदुनिया को देश का सबसे अच्छा अखबार बना दिया था।
नवभारत टाइम्स में प्रधान संपादक बन कर दिल्ली गए तो उस अखबार में उन्होंने विचारों की ताजगी भी ला दी।
ईश्वर जब ऐसे लोगों को कम ही आयु में अपने पास बुला लेता है तो लगता है कि ईश्वर ने भी उसे पसंद किया।
--सुरेंद्र किशोर.--.22 दिसंबर 2019
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