शनिवार, 14 दिसंबर 2019

बाहुबलियों के प्रभाव वाले इलाके मेंं बेहतर कानून-व्यवस्था की जरूरत--सुरेंद्र किशोर



बिहार के कई बाहुबली इन दिनों विभिन्न जेलों में हैं।
उनमें से कुछ के निकट भविष्य में जेल से बाहर आने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है।
  वे समय -समय पर जन प्रतिनिधि भी रहे हैं।
लोक सभा या विधान सभा के चुनाव में उनके विजयी होने के कई कारण थे ।
पर, उनमें से एक महत्वपूर्ण कारण की यहां चर्चा मौजूं है।
चुनावों मेंे उनकी जीत के पीछे सिर्फ उनका बाहुबल ही कारगर नहीं होता था।
बल्कि उनमें से कुछ की शैली ‘‘रोबिनहुड’’ वाली भी थी।
यानी मतदाताओं का एक हिस्सा उन्हें खुशी -खुशी भी वोट दे देता था।
क्योंकि उसे ‘नेता जी’ से वैसी  मदद मिलती थी जैसी मदद शासन नहीं दे पाता था। 
बिहार में जहां -जहां और जब -जब पुलिस-प्रशासन एकतरफा या निकम्मा होता गया,वहां-वहां  समानान्तर निजी सेनाएं  उभर कर सामने आती रही ।सत्तर के दशक से ही यह होता रहा।
वैसे आजकल सेनाओं का प्रभाव घटा है।
पर बाहुबली नेताओं के
प्रभाव का अवशेष बचा हुआ है।
  ऐसी जमात का नेतृत्व वे बाहुबली नेता करते रहे जो अभी वहां से अनुपस्थित हंै।वे कम से कम एक पक्ष की मदद तो करते  रहे।अब उस पक्ष की मदद कौन कर रहा है ?
  क्या इस बीच उन इलाकों में पुलिस -प्रशासन की कार्य कुशलता बढ़ी है ?
यदि नहीं तो बढ़नी चाहिए।
यदि वैसे खास इलाकों में शासन -प्रशासन में सिर्फ एक ही पक्ष या समाज के एक हिस्से की ही सुनवाई होगी तो दूसरा पक्ष वहां अपने बीच से कोई अन्य बाहुबली पैदा कर लेेगा।
 याद रहे कि वैसे  इलाके बाहुबलियों के लिए उर्वर भूमि रही  है।
  कोई अन्य बाहुबली पैदा न हो,इसलिए जरूरी है कि वहां कानून के शासन की जरूरत पर अन्य जगहों की अपेक्षा कुछ अधिक ही सतर्कता बरती जाए।
 -- ऐसे पैदा होते हैं रोबिनहुड--
बात थोड़ी पुरानी है।
बिहार के एक खास इलाके में खेतिहर मजदूरों का कुछ अधिक ही शोषण हुआ।
वहां ‘नक्सल गोत्र’ के कम्युनिस्ट सक्रिय हो गए।
उन्होंने मजदूरों को एक हद तक न्याय दिलवाया।
  पर उस सिलसिले में वहां हिंसा भी हुई।कम्युनिस्टों की ओर से हुई  हिंसा के जवाब में भूमिपतियों ने भी हिंसा की।
 भूमिपतियों की अघोषित सेना का ‘लीडर’ कुछ अधिक ही ‘कारगर’ साबित हुआ।
वह बाहुबली बनकर चुनाव लड़ गया।जीत भी गया।अब वह अपने चुनाव क्षेत्र से दूर है।
 सवाल है कि जो काम वहां वह बाहुबली करता था,उसकी कमी कौन दूर करेगा ?
  अब शासन की जिम्मेवारी है कि वह बाहुबली का  आतंक भी रोके और नक्सलियों के उपद्रव को भी। 
  --दलों के भीतर से बेसुरा राग-- 
 बेसुरा राग अलापने वाले कई दलों में नेता लोग मौजूद हैं।
बड़ी पार्टी है,इसलिए कांग्रेस में ऐसे लोग अपेक्षाकृत अधिक पाए जाते हैं।भाजपा मेंं तो कुछ नेता यदाकदा पार्टी की परेशानी के कारण बन जाते हैं।इधर जदयू में भी स्वर उभरने लगे हैं। 
बेसुरा राग यानी दलीय नेतृत्व की जो राजनीतिक लाइन है,उससे अलग हट कर बयान देना।
  बेसुरा राग अलापने वालों में कुछ तो अपनी आदत से लाचार हैं।
कुछ से तो शीर्ष नेतृत्व ही अंटशंट बोलवाता है।
कुछ बड़े नेता जो बात खुद नहंीं बोलना चाहते ,वे बातें अपने दल के किसी अन्य नेता से बोलवा देते हैं।कुछ मामलों में पद -वंचित नेता भी अपना महत्व बढ़ाने या नेतृत्व का भयादोहन करने के लिए पार्टी की लाइन के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर बोल देते हैं।
  पर कुल मिलाकर इसका असर आम कार्यकत्र्ताओं व मझोले दर्जे के नेताओं पर अच्छा नहीं पड़ता।
  यदि किसी दल में अधिक बेसुरे राग आने लगें तो यह धारणा बनती है कि शीर्ष नेतृत्व की पार्टी पर पकड़ ढीली पड़ने लगी है।ऐसी धरणा किसी भी दल के लिए ठीक नहीं।
इसलिए आदतन बेसुरों पर अंकुश लगाना दल हित में उठाया गया कदम ही माना जाएगा।    
  --कार्य कुशलता बढ़ाए बिना
 लोक उपक्रमों का भविष्य नहीं-- 
सामरिक महत्व के क्षेत्रों में विदेशी निवेश को भारत सरकार बढ़ावा नहीं देगी।
यह बहुत अच्छी बात है।
पर, सामरिक महत्व के दूर संचार और निर्माण क्षेत्रों मेें व्याप्त भ्रष्टाचार पर कड़ाई से रोक लगाने 
का भी उपाय केंद्र सरकार को करना चाहिए।
इससे लोगों का उन उपक्रमों पर विश्वास बढ़ेगा।
पब्लिक सेक्टर के अनेक प्रतिष्ठानों की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण काहिली और भ्रष्टाचार ही रहे हैं। 
हालांकि कुछ लोक उपक्रम अच्छा काम भी कर रहे हैं।
 --अश्लीलता पर काबू  
के लिए कड़ी सेंसरशिप जरूरी-- 
बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के लिए अश्लीलता का प्रचार-प्रसार भी जिम्मेवार है।
 ऐसे में भारत सरकार यह सुनिश्चित करे कि सभी भाषाओं की फिल्मों पर कठोरता से सेंसरशिप नियम लागू किए जाएं।
सेंसर बोर्ड के  विभिन्न पदों पर ठीकठाक लोगों को बैठाया जाए।
अभी सेंसरशिप बिलकुल लागू नहीं है।इस  बात में जिन्हें शक हो वे सेंसरशिप नियमों को पढ़ें और फिर आज की फिल्मों को उस कसौटी पर कसें। 
इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया पर भी गहराई से नजर रखी जाए।
--और अंत में--
 सन 2003 में राज्य सभा में कांग्रेस दल के नेता व पूर्व वित्त मंत्री मन मोहन सिंह ने कहा था कि बंगला देश के अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए हमें उदार होना चाहिए।
  पर अब पूर्व प्रधान मंत्री श्री सिंह और कांग्रेस ने नागरिकता के सवाल पर अपनी राय बदल ली है।
समय -समय पर अपनी राय बदलने वाले नेताओं की इस देश में भरमार है।
ऐसे नेता  सिर्फ किसी एक दल में नहीं हैं।
  ऐसे लोगों के  लिए भोजपुर इलाकांे में एक कहावत है-
‘‘जब जइसन,तब तइसन,
ना करे सो मरद कइसन !’’
.........................................................
13 दिसंंबर, 2019 के प्रभात खबर-पटना-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से।

कोई टिप्पणी नहीं: