सोमवार, 30 सितंबर 2019

अमरीकी राजनीतिक वैज्ञानिक सैम्युअल पी. हंटिग्टन
@1927-2008@ ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि शीत युद्धोत्तर संसार में लोगों की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान, संघर्षों का मुख्य कारण बनेगी।
  पाक प्रधान मंत्री इमरान खान के ताजा भाषण से लगता है कि वे हंटिंग्टन की स्थापना को सच साबित करने की कोशिश कर रहे हैं।
पर इमरान की राह में सबसे बड़ी बाधा अधिकतर मुस्लिम देश ही बने हुए हैं।
 लगता है कि वे देश यह नहीं चाहते कि परलोक के सुख के लिए यहां की सुख -शांति को दांव पर लगा दिया जाए।   

प्रवत्र्तन निदेशालय ने अदालत से कहा है कि राॅबर्ट वाड्रा 
अपने बैंक खातों और परिवार की संपत्ति का विवरण नहीं दे 
रहे हैं।
क्यों वाड्रा जी ?
आपके इस इनकार के तरह -तरह के अर्थ लगाए जा रहे हैं। 
 30 सितंबर 2019

जल जमाव से परेशान पटना--कौन जिम्मेवार ?
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अति वर्षा से पटना के लोहिया नगर यानी कंकड़बाग की से आज जो कष्टदायक स्थिति बनी है,यह तो होना ही था।
 निचली भूमि यानी ‘खाल’ जमीन में नालों की समुचित व्यवस्था किए बिना काॅलोनी बसा देंगे तो वही होगा, जो हो रहा है। सन 1967 में बिहार सरकार ने यह काॅलोनी बसाई थी।
 पहले वह धान के खेत और आम के बगीचे वाला इलाका था।
तब के  संबंधित लोहियावादी मिनिस्टर भोला प्रसाद सिंह ने इसका नाम लोहिया नगर रखवाया था।पर आज भी लोगबाग इसे कंकड़बाग ही कहते हंै।
जल निकासी की व्यवस्था में गड़बड़ी के कारण पटना के कई अन्य मुहल्ले के लोग भी पीडि़त हो रहे हैं।
यही हाल पश्चिम पटना स्थित दानापुर -खगौल रोड के आसपास के इलाकों का भी एक दिन  होने वाला है।
  निर्माणाधीन आठ लेन वाली दानापुर -खगौल सड़क के बाएं-दाएं बड़ी आबादी बड़ी संख्या में बसती जा रही है।
पर,जल निकासी की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है।
उस काम में कम से कम 25  हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है।
 कब इतने पैसे आएंगे ? कहां से आएंगे ?
    मुहल्ले बसाने की जिम्मेदारी से राज्य सरकार ने खुद को मुक्त कर लिया है।
परिणामस्वरुप अब लोगबाग खुद ही जहां- तहां छोटे -छोटे भूखंड खरीद कर बसते जा रहे हैं।वहां न तो सड़क है ,न बिजली और न नाले।
ऐसी बेतरतीब बस्तियों में सामान्य दिनों में भी नालियों का मैला जल पड़ोस के घर में घुस जाता है और मारपीट की नौबत आ जाती है।
  बाढ़ और अति वर्षा अक्सर लोगों को यह अवसर देती है कि वे देख लें कि नगर में कौन सी जगह नीची है और कौन बसने लायक है।
फिर भी मकान बनाने से पहले भला कौन इन बातों पर ध्यान देता है !  
  बाद में तो कोसने के लिए सरकार है ही !

  

मुख्य पटना के बिलकुल पास के गांव में स्थित मेरा घर
जल जमाव की समस्या से अभी मुक्त है।
पर कब तक ?
अभी मुक्त इसलिए है क्योंकि यहां कम मकान हंै और खाली जमीन बहुत अधिक है।
  पर यह इलाका भी इस समस्या से अधिक दिनों तक मुक्त नहीं रह पाएगा।
  क्योंकि यहां भी मकान बेतरतीब ढंग से धीरे -धीरे बनते जा रहे हैं।
सड़क -नाला आदि का कोई प्रबंध नहीं हो रहा है।
राज्य सरकार का भी इस ओर कोई ध्यान नहीं है।
  कुछ साल बाद किसी बरसात में हमारे इलाके का नाम और 
नाव चलता दृश्य मीडिया में आएगा। 
 तब लगेगा कि कम से कम एक मामले में हम भी मुख्य पटना 
के मुकाबले में कम नहीं हैं !!!!्
29 सितंबर 2019

शनिवार, 28 सितंबर 2019

बिहार में कुछ नेता लोस चुनाव में निपटे,बाकी विधान 
सभा चुनाव नतीजे के बाद हाशिए पर होंगे
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बिहार के कुछ राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने अपने बारे में टिटहरी जैसा ही गुमान पाल रखा था। 
उन्हें लगता था कि आसमान उनके ही बल पर टंगा हुआ है।उनकी औकात का पता उन्हें गत लोक सभा चुनाव में चल गया।
  पर राज्य स्तर के कुछ नेताओं को उनकी औकात का पता अगले बिहार विधान सभा चुनाव में चल जाएगा।
  राजनीति में कुछ लोगों को कई दफा बेल के पेड़ के नीचे आम मिल जाया करता है।
  उन्हें हर दम आम की चाहत होती है।चाहत पूरी नहीं होती तो वे छटपटाते रहते हैं।
उनकी भी छटपटाहट 2020 के विधान सभा चुनाव नतीजे के बाद शांत हो जाएगी।
     
   

--बाढ़-बाद आई महामारी--सुरेंद्र किशोर 
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शरद पवार से लेकर पी.चिदंबरम तक।
सोनिया गांधी से लालू प्रसाद तक।
वीरभद्र सिंह से रमण सिंह के रिश्तेदार तक।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा से मुकुल राय तक !!
देश के जिस कोने में नजर दौड़ाइए, कोई न कोई बड़ा राज नेता कानून की गिरफ्त में नजर आ जाएगा।
अब तो आई.ए.एस.अफसर व कुछ अन्य हलकों के दिग्गज भी  इससे अछूते नहीं हैं।
किसी ने ठीक ही कहा है कि लगता है कि देश में भ्रष्टाचार की महामारी फैली हुई है।
कोई सजा पाकर जेल में है तो कोई विचाराधीन कैदी है।कोई जेल के रास्ते में है  तो कोई जमानत पर है । अन्य अनेक तो  जमानत के लिए कचहरियों की दौड़ लगा रहे हंै।यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नया व ताजा चेहरा है।
  दरअसल राजनीति-प्रशासन-व्यापार जगत को  भ्रष्टाचार के कैंसर ने बुरी तरह ग्रस लिया है।कभी -कभी तो लगता है कि इस देश में भ्रष्टाचार के अलावा और कुछ होता ही नहीं है !
  वैसे  जितना कुछ दिखाई पड़ रहा है,वह तो आइसबर्ग का सिरा मात्र है।
वैसे इस भ्रष्टाचार के समुद्र में ईमानदारी के टापू भी जहां- तहां मौजूद हैं। 
 भ्रष्टाचार के जो दृश्य आज दिखाई पड़ रहे हैं,वह सब एक दिन में पैदा नहीं हुआ।
आजादी के तत्काल बाद ही उसकी नींव पड़ चुकी थी।
आजादी के तत्काल बाद प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि ‘कालाबाजारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए।’
पर वे उस पर अमल नहीं कर सके।
उल्टे वी.के.कृष्ण मेनन और प्रताप सिंह कैरो के खिलाफ आरोपों को उन्होंने नजरअंदाज किया ।
इस व इस तरह के अन्य कदमों से भ्रष्टाचारियों का मनोबल बढ़ता चला गया।
सत्ताधीशों ने भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों वाले चैप्टर को भी नजरअंदाज करना शुरू कर दिया ।
उसमें लिखा है कि ‘राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संंचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन के साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी केंद्रीकरण न हो।’
पर हुआ क्या ?
  जो कुछ हुआ, वह जल्द ही एक बड़े नेता की जुबान से सामने आ गया।
सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस  अध्यक्ष डी.संजीवैया को  इन्दौर के अपने भाषण में यह कहना पड़ा  कि ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।
गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने  यह भी कहा था कि ‘झोपडि़यों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’ 
सन 1971 के बाद तो सरकारी पैसों की लूट की गति तेज हो गयी।अपवादों को छोड़कर सरकारों में भ्रष्टाचार ने संस्थागत रूप ले लिया।1976 में सांसदों के लिए पेंशन की व्यवस्था कर दी गई।यानी जन सेवा, नौकरी में बदल गई।
समय बीतने के साथ सरकारें बदलती गयीं और सार्वजनिक धन की लूट पर किसी एक दल एकाधिकार नहीं रहा।
अपवादों को छोड़कर लूट में गांधीवाद  और नेहरूवाद के साथ -साथ समाजवाद ,लोहियावाद ,  ‘राष्ट्रवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’, आम्बेडकरवाद से जुड़े लोग तथा अन्य तत्व  भी शामिल होते चले गए।
1985 में प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा कि केंद्र सरकार के सौ में से 85 पैसे जनता के यहां जाने के रास्ते में  ही लुप्त हो जाते हैं।
1991 के उदारीकरण के दौर के बाद तो राजनीति में धन के अश्लील प्रदर्शन को भी बुरा नहीं माना जाने लगा। 
  अब तो इस देश के कई दलों के अनेक बड़े नेताओं के पास    अरबों-अरब  की संपत्ति इकट्ठी हो चुकी है और वे बढ़ती ही जा रही है।
2014 के चुनाव में सत्ताधारी यू.पी.ए.की शर्मनाक हार का सबसे
बड़ा कारण सरकारी भ्रष्टाचार और घोटाले -महा घोटाले थे। 
नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के साथ ही यह घोषणा की कि ‘हम न खाएंगे और न खाने देंगे।’
  मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ तेज कार्रवाइयां शुरू कर दीं।कई केस पहले से चल रहे थे।कई नए केस हुए।कुछ अदालतों के आदेश से चले।
  नतीजतन इन दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच एजेंसियां जितनी सक्रिय हैं,उतनी इससे पहले कभी नहीं थीं।अदालतों का रुख भी भ्रष्टाचार के खिलाफ फिलहाल सख्त नजर आ रहा है। इसलिए भी यह उम्मीद बढ़ी है ।चल रहे मामलों को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया जाए तो राजनीति व प्रशासन की एक हद तक सफाई हो जाएगी।
 पर लगता है कि फिर भी सफाई के कुछ काम बाकी रह जाएंगे।
आरोप है कि राजग से जुड़े वैसे अधिकतर महारथियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो पा रही है जिनके खिलाफ भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं।हालांकि कुछ पर जरुर हो रहे हैं।
देर-सवेर इस सवाल का जवाब सत्ताधारी जमात को देना पड़ेगा। 
मौजूदा सत्ताधारियों के नजदीकी आरोपियों के खिलाफ भी यदि इसी तरह की कार्रवाइयां हों तो देश की संस्थाओं की सफाई का काम काफी हद तक पूरा हो सकेगा।
  देश की  विभिन्न संस्थाओं में भ्रष्टाचार की जो बाढ़ आई है,उस 
पर प्रारंभिक दिनों में ही काबू पाया जा सकता था।
पर ऐसा नहीं हुआ।भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलने के कई उदाहरण समय- समय पर सामने आए।
  बोफर्स घोटाले में किसी को सजा नहीं होने दी गई।
झामुमो रिश्वत कांड में भी वही हुआ।
इस कांड की सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिन सांसदों ने रिश्वत ली है,उनके खिलाफ हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते।क्योंकि संविधान के अनुच्छेद-105-2 उसमें बाधक है।
संसद को चाहिए था कि उस अनुच्छेद में संशोधन करती।पर नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया।
  नब्बे के दशक में ही जैन हवाला रिश्वत कांड सामने आया।
कम्युनिस्टों को छोड़ दें तो यह लगभग वह सर्वदलीय घोटाला था।
इसलिए किसी के खिलाफ कुछ नहीं हुआ।
सांसद क्षेत्र विकास फंड ने राजनीति के साथ -साथ ब्यूरोक्रेसी को भी भ्रष्ट कर दिया है।
अपवादों को छोड़कर इस फंड से कमीशन के बिना कोई काम नहीं होता।इस फंड को समाप्त करने के अनेक प्रयास विफल ही रहे।
बिहार के आई.ए.एस.अफसरों के बारे में केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एन.सी.सक्सेना ने 1998 में बिहार सरकार के मुख्य सचिव को भेजे अपने नोट में कहा था  कि ‘बिहार के बड़े अफसरों और उगाही करने वाले नेताओं ,इंस्पेक्टरों और बाबुआंे में फर्क करना असंभव हो गया है।’
सक्सेना की यह टिप्पणी अन्य कितने राज्यों के मामले में सच  है,यदि इसकी उच्चस्तरीय जांच करवा कर केंद्र सरकार तभी कार्रवाई करती तो आज जो दिन देखने पड़ रहे हैं,शायद न देखने पड़ते।
  फिर तो घोटालों-महा घोटालों की बाढ़ सी आ गई।
अन्ना हजारे का आंदोलन भी उस बाढ़ को नहीं रोक सका।
बाढ़ के बाद अक्सर महामारी आती है।वही आई हुई है।
देखना है कि वह कैसे और  कब थमती है !!
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--मेरे इस लेख का संपादित अंश आज के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

हिंदी का विस्तार ! 
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इमरजेंसी में मैं मेधालय में था।
वहां की पहाडि़यों के बीच की झील में नौका विहार 
के लिए कभी -कभी  जाया करता था।
 साथ में एक दुभाषिया होता था जो फुलबाड़ी के  मेरे मेजबान का पड़ोसी था।
एक दिन नाव पर सवार एक गारो लड़का अमिताभ बच्चन की किसी फिल्म का गाना
गा रहा था।
  उच्चारण में कोई अशुद्धि नहीं लगी।
मुझे लगा कि वह हिंदी जानता ही होगा।
मैंने उससे हिंदी में एक सवाल किया।
उसने कोई जवाब नहीं दिया।
साथ के दूसरे युवक ने कहा कि वह हिंदी नहीं जानता।
मुझे आश्चर्य हुआ कि उसे बोलचाल की टू्टी -फूटी हिंदी भी नहीं आती और हिंदी फिल्मों के गाने सहज ढंग 
से गा लेता है ! 
 ---सुरेंद्र किशोर--26 सितंबर 2019

पितृपक्ष में माता-पिता की याद
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आप इसे मेरा अंध विश्वास मान सकते हैं।
पर,यह तो मेरे साथ घटित हुआ है !
जब तक मेरे परिवार ने गया में पिंडदान नहीं किया,
तब तक मेरे बाबू जी अक्सर मेरे सपनों में आते थे।
पिंडदान के बाद नहीं आते।
  गया का बहुत  महत्व है ।बताते हैं कि राम-सीता ने अपने पूर्वज की आत्मा की शांति के लिए गंया में पिंडदान किया था।
 खैर, इस अवसर पर कुछ दूसरी बातें भी।
मैंने इसके साथ लगे अपने माता-पिता के चित्र के साथ  उस समय का अपना एक छोटा फोटो भी दिया है ।यह तब का है जब मैंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास किया था।उस पर बाबू जी  मुझसे बहुत खुश थे।
  बाबू जी मुझे जूनियर इंजीनियर बनाना चाहते थे।
पर मेरी लाइन अलग थी।इसलिए बाद में मुझसे निराश हुए।
उनकी इच्छा के अनुसार मेरे छोटे भाई नागेंद्र ने पटना विश्व विद्यालय के लाॅॅ कालेज से   
कानून की डिग्री ली।
बड़े भाई को मुजफ्फर पुर में पृथ्वीनाथ त्रिपाठी के घर रखकर पढ़ाने की कोशिश की।
पर उनके लगातार अस्वस्थ रहने के कारण उनकी पढ़ाई अधूरी रह गई।
त्रिपाठी जी बहुत ही अच्छे शिक्षक थे।बी.बी.कालेजिएट स्कूल के प्राचार्य थे।
मेरे ही गांव के थे।मेरे बाबू जी के देास्त थे।
  यानी अपनी संतान को शिक्षित बनाने की एक किसान की तीव्र इच्छा देखिए।
अपनी जमीन बेच कर शिक्षा पर खर्च किया।आने वाले जमाने का उन्हें पूर्वानुमान था।
जमींदारी जा चुकी थी।समय बदल रहा था।
आजाद भारत में शिक्षा का महत्व बढ़ा रहा था।
बाबू जी लंबे-चैड़े कसरती शरीर के स्वामी थे।बातचीत में दबंग थे।
लघुत्तम जमींदार थे।एक बड़े जमींदार के तहसीलदार भी थे।
उनका जन्म 1898 और निधन 1986 में हुआ।
 मेरे जन्म के समय बाबू जी  22 बीघा जमीन के मालिक थे।
स्कूल में पढ़ने लगा तो देखा कि घर में दो नौकर
दो गाय,दो या तीन बैल ,एक भैंस रहते थे।
सघन आबादी वाले सारण जिले में इतनी जमीन-जायदाद  होने पर हमारे आसपास के गांवों के अन्य किसान संतुष्ट थे।
खेत बेच कर अपने बच्चों को पढ़ाने के बारे में उन लोगों ने सोचा भी नहीं।
उल्टे वे मेरे बाबू जी के इस काम को अदूरदर्शी मानते थे।
पर,अब जब कभी गांव जाता हूं तो देखता हूं कि हमारे बराबर जमीन के मालिक की  हम उम्र संतान  आज भी किसानी करती  है और अच्छी हालत में नहीं हैं।
 एक बार मेरे एक स्कूल सहपाठी गया राय ने कहा कि तू लोग त पहले भी जमींदार थे और पढ़ाई -लिखाई के कारण अब भी जमींदार हो।
इस तुलनात्मक अध्ययन से लगता है कि मेरे बाबू जी कितने दूरदर्शी थे।
यदि वैसा नहीं होते तो हम भी आज गांव में किसानी ही कर रहे होते।
किसानी की हालत यह है कि हमारे सामूहिक परिवार का एक सदस्य यानी मेरा भतीजा जो गांव पर रहता है,वह सारी जमीन में खेती नहीं कर पाता।क्योंकि अधिक खेती यानी अधिक घाटा।
अब भी हमारे संयुक्त परिवार के पास बेच -बाच कर दस-ग्यारह बीघा जमीन बची है।
पर जो हैं,सब पक्की सड़क पर है।
  यानी बाबू जी की अन्य बातों के साथ -साथ शिक्षा के प्रति उनकी तीव्र लालसा की याद आती है।
इस कहानी का मेारल यह है कि अभिभावकों को चाहिए कि वे तकलीफ उठाकर भी अपने बच्चों को शिक्षित जरुर करें।
--सुरेंद्र किशोर--27 सितंबर 2019

    

गुरुवार, 26 सितंबर 2019

   पक्ष या निष्पक्ष ?
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आज की कांग्रेस, ए.डब्ल्यू ह्यूम वाली कांग्रेस नहीं है।
आज का संघ, ‘बंच आॅफ थाॅट’ के रचयिता  गुरू गोलवालकर  
वाला संघ नहीं है।
  यह कहना सही नहीं है कि सावरकर कालापानी की सजा भुगत रहे थे और जवाहर लाल नेहरू आराम से जेल में पुस्तकें लिख रहे थे।या फिर इससे उलट।
  सबने अपने -अपने ढंग से योगदान किए।
न तो कोई विचारधारा पूर्ण है और न ही कोई नेता या कोई दल।
इसीलिए सबकी , उनके गुण -दोष के आधार पर प्रशंसा या आलोचना होनी चाहिए।
ऐसी आलोचना या प्रशंसा जो करता है,वही निष्पक्ष व्यक्ति है।
वैसे जो किसी दल में है, वह निष्पक्ष कैसे रह सकता है ? 
उसे पक्ष लेने की छूट रहनी ही चाहिए।
 पर, फेसबुक पर मैं देखता हूं कि कई लोग परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से यह फतवा देते रहते हैं कि यदि आप मेरे विचार से सहमत नहीं हैं तो आप निष्पक्ष नहीं हैं।

नरेंद्र मोदी को ‘फादर आॅफ इंडिया’ कहा जाना सही नहीं है।
ऐसा कहने के पीछे अमरीकी राष्ट्रपति की भावना भले सही हो,पर शब्दों का चयन गलत है।
  मेरी नजर में मोदी जी प्रधान मंत्री के रुप में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं,सड़ी-गली राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था के बावजूद।
  पर, उनके लिए किसी दूसरी शब्दावली का इस्तेमाल किया जा सकता था।
--सुरेंद्र किशोर--26 सितंबर 2019


बुधवार, 25 सितंबर 2019

हमारे यहां आदिकाल से नीम, पीपल और तुलसी का विशेष महत्व रहा है।
पर 68 साल पहले सरकार ने सरकारी खर्चे पर पीपल के पौधरोपण का काम बंद कर दिया।
  संभवतः सरकार को लगा होगा कि उससे अल्ट्रा सेक्यूलरिस्ट्स खफा हो जाएंगे।
दरअसल जहां पीपल का पेड़ होता है,वहां लोग पूजा करने लगते हैं।
सरकार चाहती थी कि हमें  ‘पूजा स्थल’ बनाने के आरोप से बचना चाहिए।
याद रहे कि हाल में एक विशेषज्ञ ने कहा  कि यदि 500 मीटर की दूरी पर पीपल के वृक्ष लगा दिए जाएं तो पर्यावरण असंतुलन की समस्या समाप्त हो जाएगी।
25 सितंबर 2019

  

    कभी ऐसा भी सलूक किया गया था प्रेस के साथ !
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‘इंडियन एक्सप्रेस’ की खबर के अनुसार पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने सितंबर 1979 में बंबई में कहा था कि 
‘मैं इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकती कि मेरे  फिर से सत्ता में आने के बाद प्रेस पर सेंसरशिप लागू नहीं की  जाएगी।’
  ‘सभी देशों मेंं किसी न किसी स्वरूप में सेंसरशिप मौजूद है।
मैं कैसे कोई गारंटी दे सकती हूं ?’
‘हां, इमरजेंसी में कुछ पत्रकारों को अन्यायपूर्ण तरीके से दंडित किया गया।
पर, अपने ढाई साल के कार्यकाल में पूर्व सूचना मंत्री एल.के.आडवाणी ने ए.आई.आर.,दूरदर्शन और अधिकतर अखबारों में आर.एस.एस. के लोगों को बहाल करवाया।’
  याद रहे कि 1980 में सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी ने प्रेस सेंसरशिशप लागू तो नहीं किया,पर अगले प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने 1988 में प्रेस मानहानि विधेयक लाया जिसे देशव्यापी विरोध के कारण वापस ले लिया था। 
  याद रहे कि इमरजेंसी में प्रेस सूचना ब्यूरो की अनुमति के बिना किसी अखबार में एक लाइन भी नहीं छप सकती थी।
उन दिनों प्रतिपक्षी नेताओं के नाम अखबारों से गायब थे।वे बिना सुनवाई के जेलों में बंद थे।उनके नाम छपते भी थे तो उनकी निंदा करने के लिए।
हर शाम अखबार के संपादकीय विभाग के सदस्य अगले दिन छपने वाले पूरे अखबार की सामग्री लेकर स्थानीय पी.आई.बी.आॅफिस में जाते थे । केंद्र सरकार के उस सरकारी आॅफिस से पास करवा कर उस पर मुहर लगवा लाते थे।तभी अखबार छपता था।
  संजय गांधी ने सूचना मंत्री से कहा था कि वे आकाशवाणी के हर बुलेटिन को पहले  दिखा लें ,फिर वह प्रसारित  हो।
ऐसा करने से जब सूचना मंत्री आई.के.गुजराल ने मना कर दिया तो उन्हें हटा कर वी.सी.शुक्ल को उस पद पर बैठाया गया।संजय गांधी तब संविधानेत्तर सत्ता के सबसे ताकतवर व बड़े केंद्र थे।
  ऐसा था कांग्रेसी सरकारों का प्रेस प्रति सलूक !
है इसका कोई जोड़ा ??? 

 एडमिट कार्ड और इंटरव्यू लेटर वालों की जांच शाम में हो
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नियम तोड़ने पर सांसद ,विधायक और केंंद्रीय मंत्री की गाडि़यों पर जुर्माना होना बहुत बड़ी बात है।
ठीक उसी तरह, जिस तरह किसी पूर्व मुख्य मंत्री  द्वारा किए गए सड़क की जमीप पर अतिक्रमण को हटाना। 
इन सब कार्रवाइयों का असर अन्य क्षेत्रों के नियम-कानून तोड़कों पर भी पड़ सकता है।
पटना की सड़कों पर तो अब दिखने ही लगा है।
यहां किसी निक्सन की बेटी और मार्गरेट थेचर के पुत्र पर जुर्माने की परंपरा नहीं रही है।
याद रहे कि उन पर मामूली अपराध के आरोप थे।
यहां तो आजादी के तत्काल बाद के एक केंद्रीय मंत्री के हत्यारे पुत्र को जमानत दिलवा कर विदेश भगा देने का प्रबंध  एक दूसरे प्रभावशाली केंद्रीय मंत्री ने ही कर दिया था।
इस देश में कमोवेश वही परंपरा जारी रही है। 
  पर,ट्राफिक नियमन को लेकर बिहार सहित देश में इन दिनों अच्छा काम हो रहा है।
किन्तु  किसी भी नियम-कानून  को लागू करने के लिए अति पर उतरना प्रति -उत्पादक साबित हो सकता है।
उससे जन भावना आहत होती है।
  जिनके पास परीक्षा के  एडमिट कार्ड हैं या नौकरी के लिए इंटरव्यू लेटर मौजूद हंै,उनकी गाडि़यों की जांच उनके लौटते समय भी हो सकती है।,  

मध्यस्थता की गुंजाइश है कहां ?
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अमरीकी राष्ट्रपति कश्मीर पर बार -बार मध्यस्थता की
पेशकश कर रहे हैं।
 पर, सवाल है कि मध्यस्थता की गुंजाइश है कहां ?
1994 में भारतीय संसद ने सर्वसम्मत से यह प्रस्ताव पास किया कि पी.ओ.के.सहित पूरा कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।
कांग्रेस सरकार या बाद की किसी भी सरकार को उस प्रस्ताव से पीछे हटकर कोई समझौता करने की न हिम्मत थी और न ही जरुरत।
   अब मोदी सरकार ने 370 और 35 ए को निष्प्रभावी बना दिया है।
क्या इस निर्णय से मोदी सरकार पीछे जा सकती है ?
न तो उसकी जरुरत है और न ही हिम्मत। 
  उधर कश्मीर के अलगाववादी व दुनिया के कुछ जेहादी गिरोह कश्मीर को भारत से अलग करके वहां इस्लामिक शासन कायम करना चाहते हैं।
वे भी उस लक्ष्य से पीछे हटने को कत्तई तैयार नहीं।
  फिर तो मध्यस्थता के नाम पर अमरीकी राष्ट्रपति आखिर करंेगे क्या ?
वे सिर्फ इतना ही कर सकते हैं कि फिलहाल वे फुर्सत के क्षणों में सेम्युअल पी. हंटिंग्टन की ‘क्लैस आॅफ सिवलाइजेशन’ वाली किताब पढ़ सकते हैं।

भारत के बारे में अमरीकियों की बदलती धारणा
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अस्सी के दशक में माइकल टी.काॅफमैन पटना आए थे।
वे उन दिनों नई दिल्ली में न्यूयार्क टाइम्स के ब्यूरो प्रमुख
थे।
मैं तब दैनिक ‘आज’ में था।
जार्ज फर्नांडिस ने उन्हें कहा था कि पटना में पूरे बिहार का हाल सुरेंद्र तुम्हें बता देगा।
 मुझसे उनकी लंबी बातचीत हुई।
मैंने यूंहीं उत्सुकतावश उनसे पूछा कि अमेरिका के लोग भारत के बारे में क्या सोचते हैं ?
उन्होंने कहा कि सोचने की फुर्सत ही कहां है ?
मैंने जोर डाला -कुछ तो सोचते हैं ?
खास कर भारत के विशेषज्ञ भी तो होंगे।
फिर वे पाटलिपुत्र अशोका के अपने कमरे की दीवाल पर टंगे दुनिया के नक्शे की ओर अपनी कलम घुमाई और पूछा, ‘किधर है इंडिया !
और जोर देने पर उन्होंने कहा कि आपको बुरा लगेगा,इसलिए मैं नहीं बताऊंगा।
मैंने फिर जोर दिया।
फिर उन्होंने कहा कि भारत के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि वहां के एक तिहाई लोग कचहरियों में रहते हैं।
अन्य एक तिहाई लोग अस्पतालों में।
बाकी एक तिहाई लोग मनमौजी हैं।
काॅफमैन ने कहा कि यदि आप अमेरिका में होते तो सबसे पहला काम यह होता कि आपको किसी निकट के अस्पताल में भर्ती करा दिया जाता।
याद रहे कि मैं उन दिनों और भी दुबला-पतला था ।
वे कहना चाहते थे कि अस्पताल जाने लायक स्थिति तो एक तिहाई भरतीयों की है,पर वे जा नहीं पाते।
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इतने वर्षों के बाद अमेरिका के लोग भारत के बारे में आज क्या सोचते होंगे ?   .
कोई आयडिया ?
मैंने सुना है कि अब सिर्फ सपेरों का देश नहीं माना जाता। 

रविवार, 22 सितंबर 2019

स्मार्ट सिटी तभी जब सिटिजन भी स्मार्ट

स्मार्ट सिटी भी जरुरी है। पर, उस सिटी को स्मार्ट बनाए रखने के लिए स्मार्ट सिटिजन की भी जरुरत है। अनेक सिटिजन स्मार्ट हैं भी। पर, अधिकतर नहीं हैं। ऐसे लोगों को हेलमेट तक पहनाने के लिए जुर्माना बढ़ाना पड़ता है। उसे लागू करने के लिए कमिश्नर व कलक्टर तक को सड़कों पर उतरना पड़ता है।

अपने देश में सभी या कम से कम अधिकतर सिटिजन स्मार्ट तभी बनेंगे जब देश में ‘कानून का शासन’ होगा। जिस देश में औसतन 55 प्रतिशत आरोपित अदालती सजा से बच जाते हैं, वहां ‘कानून का शासन’ है,ऐसा कैसे कहा जा सकता है ?

शनिवार, 21 सितंबर 2019

हल्की कड़ाई या देश की बर्बादी ?

अमेरिका से यह अपुष्ट खबर आई थी कि राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद बराक ओबामा प्रायवेट जाॅब कर रहे हैं। दूसरी ओर हाल की खबर है कि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की कुल संपत्ति करीब 100 करोड़ यू.एस. डाॅलर की है। लंदन में चार फ्लैट ‘उपार्जित’ करने के आरोप में पाक नेता नवाज शरीफ जेल में हैं।

इधर अपने प्रिय देश के अनेक बड़े -बड़े नामी-गिरामी नेताओं के सैकड़ों-हजारों करोड़ रुपए की जायज-नाजायज संपत्ति के बारे में अखबारों में सनसनीखेज खबरें छपती ही रहती हैं। उनके खिलाफ सरकारी जांच एजेंसियों ने पड़ताल जारी रखी है। उनमें से कुछ जेलों में हैं तो कुछ अन्य जेल के दरवाजे पर।

ली कुआन यू 1959 से 1990 तक सिंगापुर के प्रधानमंत्री थे। उन्होंने थोड़ी प्रशासनिक व राजनीतिक कड़ाई करके भ्रष्टाचार पर काबू पा लिया। नतीजतन सिंगापुर के आम लोगों की आय सालाना 500 डॉलर से बढ़कर 55 हजार डॉलर हो गई। उन्होंने खुद यदि निजी संपत्ति बढ़ाई होती तो शेख हसीना की तरह उसका विवरण भी छप गया होता।

कुछ लोग सवाल करेंगे कि आप इस देश में ली कुआन जैसा तानाशाह पैदा करना चाहते हैं ? पर इस देश के अनेक लोग कड़ाई के बिना ट्रैफिक नियमों का भी पालन करने को तैयार नहीं हैं जबकि रोड दुर्घटनाओं के कारण हर साल यहां करीब डेढ़ लाख लोग अपनी जान गंवा देते हैं।

फिर इस देश की बेहतरी के क्या उपाय है ? पहले यहां यह कल्पना की जाती थी कि यदि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री खुद घूसखोर नहीं हो तो उसका सीधा सकारात्मक असर ब्यूरोक्रेसी पर पड़ेगा। पर, यह कल्पना भी साकार नहीं हुई है।

जैन हवाला कांड, कश्मीर के आतंकियों को पहुंचाते थे पैसा



इन दिनों देश भर के जितने बड़े नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के तहत मुकदमे चल रहे हैं, लगभग उतने नेताओं के नाम हवाला घोटाले में नब्बे के दशक में आए थे। यदि हवाला घोटालेबाजों को सजा हो गई होती तो आज के आरोपी और आरोपित नेतागण चेत गए होते।

आज जिनपर मुकदमे चल रहे हैं, यदि उन्हें सजा नहीं होगी तो भविष्य में इस गरीब देश में इससे भी बड़े -बड़े घोटाले-महाघोटाले हो सकते हैं।

आज की कहानी तो सबको मालूम ही है। नई पीढ़ी के लिए हवाला घोटाले की कहानी संक्षेप में -- 

नब्बे के दशक में चर्चित व घृणित जैन हवाला कांड हुआ था। जो जैन बंधु भारत विरोधी विदेशी ताकतों से पैसे लेकर कश्मीर के आतंकियों को पहुंचाते थे, उन्हीं जैन बंधुओं ने उसी पैसों में से इस देश के 115 बड़े नेताओं और नौकरशाहों को भी भारी रकम तब दी थी। लाभुकों में भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति, दो पूर्व प्रधानमंत्री, कई पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व—वर्तमान केंद्रीय मंत्री स्तर के अनेक नेता शामिल थे। वह बहुदलीय घोटाला था।

पैसे पाने वालों में खुफिया अफसर सहित 15 बड़े -बड़े अफसर भी थे। आरोप लगा था कि पैसे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. ने भिजवाए थे। जिस घोटाले में लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेता लिप्त हों, उन्हें सजा कैसे होगी ? नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सी.बी.आई. ने तो हवाला घोटाले की कोई जांच ही नहीं की।
जार्ज बर्नार्ड शाॅ ने कहा था कि 
‘सारी आत्म कथाएं झूठी होती हैं।
मेरा मतलब अचेतन और गैर इरादतन झूठ से नहीं, 
बल्कि सुविचारित झूठ से है।’

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

अयोध्या के राम मंदिर को 
तोड़कर उस पर बाबरी मस्जिद बनाई गई थी।
यदि इस तथ्य पर फिर भी जिन्हें कोई शक हो तो वे काशी की मौजूदा  ज्ञानवापी मस्जिद की तस्वीर गुगल पर देख लें।

बुधवार, 18 सितंबर 2019

धोखा दे गई छोटी दुकान ?


देश के एक बड़े उद्योगपति ने मनमोहन सिंह के प्रधान मंत्रित्वकाल में कहा था कि कांग्रेस मेरी बड़ी दुकान है और भाजपा छोटी। यानी वे कहना चाहते थे कि जहां से जो चाहूं, निर्णय खरीद सकता हूं। पर, छोटी दुकान ने उन्हें अंततः धोखा दे दिया। 28 मार्च, 2019 को ब्लैक मनी एक्ट के तहत आयकर महकमे ने उन्हें नोटिस भेज  दिया। (इंडियन एक्सप्रेस-14 सितंबर 2019)

उद्योगपति महोदय ने गत मई के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट दे दिया। शायद नोटिस मिलने की प्रतिक्रिया थी। इतना ही नहीं, मतदान केंद्र से बाहर निकलकर उन्होंने मीडिया को बता भी दिया कि मैंने कांग्रेस उम्मीदवार को वोट दिया है।

मैं तो इसके लिए उस उद्योगपति को शाबासी दूंगा। वास्तव में उनकी हिम्मत की सराहना करनी पड़ेगी। अब तक किसी छोटे उद्योगपति ने भी सार्वजनिक रूप से यह नहीं कहा था कि उसने प्रतिपक्षी दल को वोट दिया है। या फिर उस बड़े उद्योगपति का 2019 के चुनाव नतीजे के बारे में पूर्वानुमान गलत निकला?

तब कार स्टेट्स सिम्बल हुआ करती थी, अब ओला और उबेर बेहतर


कोटक महिंद्रा बैंक के एम.डी. उदय कोटक ने कहा है कि मैंने जब अपना कैरियर शुरू किया था, तब कार स्टेट्स सिम्बल हुआ करती थी। पर, मेरे पुत्र को ओला और उबेर बेहतर लगते हैं।
ओला की सेवाएं इस देश के 63 नगरों-महा नगरों  में उपलब्ध हैं। उबेर 36 छोटे -बड़े नगरों में उपलब्ध हैं।

यदि इनकी सेवाओं का विस्तार होता गया तो सड़कों पर भीड़ कम होगी। मेरे पड़ोसी भी ओला या उबेर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनके घर तक पहुंचाने के लिए तो ये सेवाएं उपलब्ध हैं। पर, घर से ले जाने के लिए नहीं। जो व्यक्ति एक बार ओला या उबेर को अपना घर दिखा दे, उसके बुलाने पर ओला उबेर को पिकअप करने के लिए पहुंचे, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।

वैसे कुछ नगरों में तो अब ओला बाइक भी उपलब्ध हैं।

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

भारत के प्रधानमंत्री का जन्मदिन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर दो-तीन बातें जनहित में कही ही जा सकती हैं। क्योंकि किसी प्रधानमंत्री के अच्छे या बुरे चरित्र का जनहित पर सीधा सकारात्मक या नकारात्मक असर पड़ता ही है। विवाद तो इस पोस्ट पर भी होगा, पर उसका ठोस आधार शायद ही मिले।

इतने लंबे समय तक मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी मोदी पर भ्रष्टाचार-घोटाले का कोई सीधा आरोप नहीं लगा। यह बहुत बड़ी बात है। नाजायज तरीके से निजी संपत्ति उन्होंने नहीं बढाई। हालांकि वे अपनी अफसरशाही को अब तक भ्रष्टाचारमुक्त नहीं बना सके। मुक्त बनाना तो असंभव लगता है, पर यदि कम भी कर सके तो कितना ? नहीं कर सके तो क्यों ?

2014 के 15 अगस्त को मोदी ने कहा था कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा। पहला वादा तो उन्होंने पूरा किया, पर दूसरा क्यों नहीं कर सके? नरेंद्र मोदी पर परिवारवाद का आरोप नहीं लगा। उनपर जातिवाद का भी कोई आरोप नहीं है। एक साथ ये तीनों गुण इस देश के बहुत ही कम नेताओं में रहे हैं।

ध्यान देने लायक बात है कि इतने लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के बावजूद ये गुण कायम रहे। मोदी की उपलब्धियां तो और भी हैं। उन उपलब्धियों के कारण ही दूसरी बार अपेक्षाकृत अधिक लोगों ने उनके नाम पर वोट दिए। यह भी कहा जा सकता है वे इस देश के एक मात्र नेता हैं, जिन्होंने अपने बल पर लगतार दो -दो बार लोकसभा के चुनाव जीते। 

अपने इस पोस्ट पर मैं आलोचनाएं झेलने को तैयार हूं। यदि जवाब से मेरा ज्ञानवर्धन होगा, नई जानकारियां मिलेंगी तो मुझे खुशी होगी। सिर्फ आलोचना के लिए ही आलोचना नहीं करनी चाहिए। मेरा तो मानना है कि लोकतंत्र में मोदी के अंधभक्तों के लिए भी गुंजाइश होनी चाहिए और मोदी के अंधविरोधियों के लिए भी। हजारों फूल खिलने दो!
जनसत्ता के पूर्व संपादक राहुल देव ने लिखा है कि
‘‘हमारे मंत्री, उच्चाधिकारी, मठाधीश हिंदी को सबकी, हर भारतीय की मातृभाषा कहना कब बंद करेंगे ?
यह तथ्य नहीं है। भारत में कई हजार मातृभाषाएं हैं।
यह बात उनकी भाषा संतानों को चुभती है।
हिंदी देश व देशवासियों की संपर्क भाषा है, राजभाषा है 
इतना काफी है।’’

सोमवार, 16 सितंबर 2019

डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा था कि  ‘‘मैं संघर्षशील व्यक्ति हूं। सुरा, सुंदरी और दौलत में मेरी आसक्ति नहीं है। दूसरे नेता राजनीति और अपनी  रखैलों में व्यस्त रहते हैं तो मैं राजनीति में व्यस्त रहता हूं।’’
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डा.स्वामी के बारे में अरुण नेहरू की राय थी कि
‘‘सुब्रह्मण्यम स्वामी की बातों और कामों से यह साफ पता चलता है कि हार्वर्ड विश्व विद्यालय भी भयंकर भूलें कर सकता है।’’ 
   (इंडिया टूडे - हिंदी-31 जनवरी, 1991 -पेज-15) 

वोट अधिक जरुरी या जान ?



नए ट्रैफिक नियम लागू होने के बाद से मृतकों की संख्या घटी

नए ट्रैफिक नियमों को लागू करने वाले पुलिसकर्मियों से सड़कों पर झगड़ा करने वाले आखिर कितने लोग हैं ? उधर प्रदूषण प्रमाण पत्र और ड्राइविंग लाइसेंस आदि के लिए लाइनों में खड़े कितने लोग हैं ?

नए नियम के बाद सड़क दुर्घटनाओं में मृतकों की संख्या घटी है या बढ़ी है? कोई भी देख सकता है कि कहां क्या हो रहा है और कहां अधिक लोग हैं। यानी हकीकत यह है कि अधिक लोग कानून का पालन करना चाहते हैं।

खबर है कि मृतकों की संख्या घटी है। इसके ताजा आंकड़े सरकारों को जारी करने चाहिए।
सड़कों पर कम लोग ही झगड़ा करना चाहते हैं। सवाल है कि वोट अधिक जरुरी है या जान ?
इस देश के जो मुख्यमंत्री यह सोचते हैं कि वोट अधिक जरुरी है, इसलिए नए नियमों को लागू न किया जाए या उसे ढीला किया जाए क्योंकि लोग इससे खुश होंगे तो वे गलतफहमी में हैं।
उन्हें उल्टा पड़ेगा। क्योंकि अधिकतर लोग मरना नहीं चाहेंगे। जानबूझकर तो कोई मरना नहीं चाहेगा। हां, अपनी अर्धसामंती ऐंठ दिखाने के चक्कर में या मोदी विरोध की अंधता में कोई अपनी जान खो दे तो बात अलग है।

याद रहे कि ट्रैफिक अराजकता के कारण इस देश में 2016 में डेढ़ लाख लोगों की जान चली गई। यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा था। पर नए ट्रैफिक नियम लागू होने के बाद सड़क दुर्घटनाओं में मृतकों संख्या घटी है, ऐसी खबरें आ रही हैं। ट्रैफिक नियमों की अवहेलना या नजरअंदाज करने वाली सरकारें कम से कम मृतकों की संख्या पर तो ध्यान दें।

जमानत और जेल झेल रहे नेताओं की और भी बढ़ेगी



इस देश में जमानत और जेल झेल रहे नेताओं की संख्या ने पिछले सारे रिकाॅर्ड तोडे़ यह संख्या और भी बढ़ेगी।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल रांची में कहा कि ‘हमारा संकल्प है जनता को लूटने वालों को उनकी सही जगह पहुंचाने का। इस पर काम हो रहा है। कुछ लोग चले भी गए हैं। खुद को कानून से ऊपर मानने वाले बेल के लिए चक्कर काट रहे हैं।’

मोदी की यह पहल सराहनीय है। यह आज की जरुरत है। भ्रष्टाचार के आरोप में आज इस देश के जितने नेता लोग जेल में हैं या जमानत पर हैं, उतने इससे पहले कभी नहीं थे। इससे देश की अधिकतर जनता खुश है। क्योंकि अपवादों को छोड़कर अधिकांश लोगों को यह लगता है कि नेताओं-अफसरों-व्यापारियों के एक बड़े हिस्से के भीषण भ्रष्टाचार के कारण ही अपना देश अब भी गरीब है।

भ्रष्टाचारी लगभग सभी दलों में हैं। कुछ में अधिक तो कुछ में कम। यह अच्छी बात है कि अपवादों को छोड़ कर अदालतें भी बहुत अच्छे ढंग से अपना काम रही हैं।

आज भ्रष्टाचार और आतंकवाद देश के सामने सबसे बड़े मुद्दे हैं। ‘नकली समाजवाद’ और ‘फर्जी धर्मनिरपेक्षता’ के नारे बेअसर हो चुके हैं। जिन लोगों ने इसे मुख्य मुद्दा बनाया, वे चुनाव हारे।
ऐसा कई बार हो चुका है कि चुनावों में अधिकतर जनता के दिल ओ दिमाग में कुछ अन्य बातें होती हैं, पर कुछ नेता व दल किसी अन्य दिशा में उसे हांकना चाहते हैं। हालांकि वे फेल कर जाते हैं।


1971 चुनाव- इंदिरा गांधी ने 1969 में गरीबी हटाओ का नारा दिया। अधिकतर लोगों को अच्छा लगा। पर तब प्रतिपक्ष कह रहा था कि इंदिरा एकाधिकारवाद की ओर जा रही है। चुनाव में इंदिरा गांधी जीत गईं।

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1977-अधिकतर लोग इमरजेंसी के अत्याचारों से पीडि़त थे। पर कांग्रेस के पास कुछ और ही नारे थे। जैसे--अनुशासन ही देश को महान बनाता है आदि—आदि.....। उस चुनाव में सी.पी.आई. चुनाव सभाओं में कह रही थी कि अमेरिका दियागो ग्रासिया द्वीप में सैन्य अड्डा बना रहा है। वह आज सबसे बड़ी समस्या है।

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2019--कांग्रेस के राहुल गांधी का नारा था-‘चौकीदार चोर है।’

दूसरी ओर जनता देख रही थी कि मोदी सरकार तो एक -एक करके अनेक बड़े—बड़े चोरों के खिलाफ ही कार्रवाई कर रही है। मोदी मंत्रिमंडल का कोई सदस्य किसी घोटाले में नहीं पड़ा।
नतीजतन 2019 के लोकसभा चुनाव का नतीजा सामने हैं। आगे भी क्या होगा,उसके संकेत अभी से मिल रहे हैं।

पुनश्चः-

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हां, आज के प्रतिपक्ष की एक शिकायत जायज लगती है। यह कि क्या भ्रष्ट सिर्फ गैर राजग दलों में ही हैं? इस शिकायत की पृष्ठभूमि में मोदी सरकार का यह कर्तव्य है कि वह अपने दल व जमात के भ्रष्टों के खिलाफ भी उतनी गंभीरता से कार्रवाई करे। यदि वह नहीं करती है तो गैर भाजपा दल के बड़े- बड़े वकीलगण डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी की राह पर चलकर उन्हें जेल भिजवाएं।

ट्रैफिक की तरह ही भ्रष्टाचार के खिलाफ भी सजा में बढ़ोत्तरी जरुरी


यातायात नियमों के उल्लंघन पर जुर्माने की रकम में भारी वृद्धि की जरुरत महसूस की गई थी।
नतीजतन जुर्माना बढ़ाया गया। काफी बढ़ा दिया गया। सरकार को लगा कि कम बढ़ाने से काम नहीं चलेगा। इस कदम का आम तौर पर स्वागत ही हुआ है। उसी तरह भ्रष्टाचारियों के लिए भी सजा में बढ़ोत्तरी जरुरी मानी जा रही है। ट्रैफिक नियम भंग पर जुर्माने में हाल की बढ़ोत्तरी से पहले वाले जुर्माने का कोई असर नहीं हो रहा था। 2016 में देशभर में सड़क दर्घटनाओं में करीब डेढ़ लाख लोग मरे। उसी अवधि में बिहार में करीब 5 हजार लोगों की जानें गईं। 

याद रहे कि इस देश में भ्रष्टाचार के आरोप में दोषियों के लिए सामान्यतः तीन से सात साल तक की कैद की सजा का अभी प्रावधान है। वह सजा बुरी तरह नाकाफी साबित हो रही है। पर, चीन में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप साबित हो जाने के बाद फांसी तक की सजा का प्रावधान है।

हर साल डेढ़ लाख लोगों की जान जाने पर तो यातायात उल्लंघन के मामले में यहां सजा बढ़ा दी गई। पर, सवाल है कि भ्रष्टाचार के कारण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हर साल कितने लोगों की जानें जाती हैं ? निश्चित तौर पर डेढ़ लाख से काफी अधिक लोगों की जानें जाती हैं।

नकली और मिलावटी दवाओं के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जानें जाती हैं। मिलावटी खाद्य व भोज्य पदार्थ और भी अधिक लोगों की जानें लेते हैं। भ्रष्टाचार के कारण मौतों के और भी उदाहरण हैं। संबंधित सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत के बिना इतने बडे़ पैमाने पर नकली सामान तैयार हो ही नहीं सकते जितने अपने देश में तैयार होते हैं।

इस देश में अब कितने ऐसे सरकारी दफ्तर बचे हैं जहां बिना रिश्वत के लोगों के काम हो जाते हैं? यदि भ्रष्टाचारियों के लिए सजा बढ़ा दी जाए तो उसका सकारात्मक असर यातायात पर भी पड़ेगा।




आर्यभट्ट का भव्य स्मारक 





भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट था, जो 19 अप्रैल, 1975 को अंतरिक्ष में छोड़ा गया था। चंद्रमा पर उपस्थित एक बड़ी दरार का नाम आर्यभट्ट रखा गया है। 1976 में यूनेस्को ने आर्यभट्ट की 1500 वीं जयंती मनाई थी। प्राचीन पाटलिपुत्र के वैज्ञाानिक आर्यभट्ट ने जो खोज की, उसने धरती से चांद तक की यात्रा में बड़ी मदद की। यानी मिशन मून का पटना से 1500 साल पुराना रिश्ता है।

इधर आर्यभट् के जन्मस्थान और शोधस्थल पर उनका स्मारक बनाने के लिए भी बिहार सरकार सचेष्ट रही है। ताजा खबर है कि पटना के उपनगर खगौल में आर्यभट्ट का भव्य स्मारक बनाने का प्रस्ताव है। आर्यभट्ट का जन्म पटना में ही हुआ था। पटना का तब नाम कुछ और था। संभवतः खगौल के मोतीचौक पर आर्यभट्ट की एक मूर्ति लगेगी।

एक सामाजिक कार्यकर्ता के अनुसार खगौल को आसपास के मुख्य मार्गों से जोड़ा जाना है।आसपास के इलाकों को विकसित किया जाना है। इसके लिए खगौल और एन.एच.-98 के बीच की सड़क के चौड़ीकरण का प्रस्ताव है। यह सड़क अभी पतली है जो नवरतनपुर और कोरजी होते हुए चकमुसा के पास एन.एच.-98 से मिलती है। आर्यभट्ट की प्रतिष्ठा के अनुरुप किसी स्मारक की लंबे समय से जरुरत महसूस की जाती रही है। 



 बहाल हों ऊर्जा बचत सेवक





यह आम दृश्य है ! सरकारी कार्यालय खाली है, किन्तु बत्तियां जल रही हैं और पंखे चल रहे हैं।
जो सरकारी सेवक सबसे अंत में कार्यालय से निकला, उसका कर्तव्य था कि वह बत्ती -पंखा बंद कर देता। पर, अधिकतर सेवक ऐसा नहीं करते। नतीजतन बिहार में मंत्रियों, अफसरों और कर्मचारियों की सुविधा के लिए चलने वाले बत्ती, पंखे, एसी और बिजली के अन्य उपकरणों पर हर साल 12 सौ करोड़ रुपए खर्च होते हैं। इसे कम करके छह सौ करोड़ रुपए आसानी से किया जा सकता है। पर यह काम भला कौन करेगा ?

इसलिए क्यों नहीं हर सरकारी बिल्डिंग के लिए ‘ऊर्जा बचत कर्मचारी’ की बहाली हो। उसका काम सिर्फ यही हो कि वह घूम -घूम कर यह देखता रहे कि कहां के कमरे -हाॅल में अकारण बिजली का उपयोग हो रहा है।  


और अंत में



राघव बाबा ! संभवतः यही नाम था उनका। वे 1957 में उत्तर प्रदेश के एक विधानसभा चुनाव क्षेत्र में खड़े हो गए। निर्दलीय उम्मीदवार थे। पराजय के बाद उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उनको मतदाताओं पर गुस्सा आया। फिर तो उन्होंने एक अनोखा काम किया। न भूतो ,न भविष्यति!
वैसा काम उससे पहले या बाद में किसी ने नहीं किया। राघव बाबा ने कुछ बच्चों को जुटाया।
एक रिक्शे पर लाउड स्पीकर रखवाया। बच्चों का जुलूस निकला। आगे- आगे राघव बाबा। वे माइक पर खुद नारा लगाने लगे। ‘राघव बाबा जिंदावाद !’ ‘इस क्षेत्र की जनता मुर्दाबाद !!’

राघव बाबा का यह नारा बच्चे दुहराते जाते थे। सड़क के किनारे खड़े दर्शकों का खूब मनोरंजन हुआ। राजनीतिक हलकों में दशकों तक इस रोचक घटना की चर्चा रही। हालांकि आज के पराजित लोग भी अपनी या अपने मनपसंद दल की हार की खीझ कुछ दूसरे तरीकों से निकालते रहते हैं।

(13 सितंबर 2019--कानोंकान-प्रभात खबर-बिहार-से)

चीनी उइगर मुस्लिमों की पीड़ा के बारे में इमरान खान कुछ नहीं जानते !


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प्रश्न-चीन में उइगर मुस्लिमों पर अत्याचार पर आप क्या कहेंगे ?

इमरान खान-उइगर मुसलमानों के साथ चीन क्या कर रहा है, इसके बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं।

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इमरान खान ही नहीं, भारत के उन अतिवादी मुसलमानों को भी उइगर के यातना-नजरबंदी शिविरों-सुधार गृहों के बारे में कुछ भी नहीं पता जो फिलस्तीन के मुसलमानों और डेनमार्क के कार्टून आदि को लेकर भारत की सड़कों पर मरने -मारने पर उतारू हो जाते हैं।

यदि भारत के कम्युनिस्टों को उइगर के 2 करोड़ पीड़ित मुसलमानोंं के बारे में कुछ नहीं पता तो बात समझ में आती है। क्योंकि यहां के कोई कम्युनिस्ट कहता है कि 1962 में चीन ने नहीं बल्कि भारत ने ही चीन पर हमला किया था। दूसरी श्रेणी के कम्युनिस्ट कहते रहे कि चीन का चेयरमैन माओ हमारा चेयरमैन।

एक ही साल पहले केरल माकपा के सचिव ने कहा था कि भारत, अमेरिका और आस्ट्रेलिया मिलकर चीन को घेरना चाहते हैं। क्या आपने कभी सुना या देखा कि राहुल गांधी, ममता बनर्जी, लालू प्रसाद, मुलायम यादव तथा एन. राम जैसे किसी सेक्युलर-समाजवादी पत्रकार नेता -संपादक ने उइगर के यातना-नजरबंदी शिविरों के बारे में कभी कुछ कहा या लिखा ?

हां, वे रोहिंग्या को भारत में बसाने के पक्ष में जरुर रहे।

जो नियम -कानून का पालन करता है, वह महा दब्बू आदमी है

 दृश्य -एक
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छोटा बेटा पार्क से घर लौट कर अपनी मां से कहा, 
‘मां, मैंने आज 100 बचा लिए।’
मां - ‘कैसे बेटा ?’
बेटा- ‘पार्क में लिखा था कि फूल तोड़ना मना है।
तोड़ने पर सौ रुपए का दंड लगेगा। मैंने एक भी फूल नहीं तोड़ा । इस तरह मैंने सौ रुपए बचा लिए न !’
इसी बीच बड़ा बेटा घर आया।
उसने कहा कि  ‘मां, इसने तो सिर्फ सौ रुपए बचाए। मैंने सात  हजार रुपए बचा लिए।’
मां-सो कैसे ?
बड़ा बेटा- वाहनों की जांच हो रही थी। जिसके पास डी.एल.नहीं था, उस पर 5 हजार रुपए दंड लगे। एक दूसरा गाड़ी तेज चलाते पकड़ा गया। उस पर 2 हजार फाइन लगा। मेरी गाड़ी तेज नहीं चल रही थी।
मेरे पास डाइविंग लाइसेंस भी था। इस तरह मैंने सात  हजार बचाए कि नहीं ?
मां ने बेटों को शाबासी दी।

दृश्य-दो 
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आज सड़कों पर वाहन चेकिंग के दौरान जहां -तहां हंगामें क्यों हो रहे हैं ? जिनके पास पूरे कागजात हैं और जो गाड़ी सामान्य गति सही लेन में चलाते हैं,उन्हें तो कोई चिंता है नहीं। चिंता उन्हें है जिन्हें न तो मां-बाप से शाबासी की दरकार रहती है और न ही समाज में अपने मान-सम्मान की परवाह । वे तो दूसरी ही दुनिया में रहते हैं। उनकी धारणा यह है कि जो नियम -कानून का पालन करता है, जो किसी गेट के पास खड़े संतरी को अपना पास दिखा देता है,वह महा दब्बू आदमी है।
वैसा जीवन हमें नहीं जीना है।

पर, हम तो शान से जीने वाले लोग  हैं !!  शान से जिएंगे और शान से मरेंगे। लेकिन हम अपने सिर के बाल खराब करने के लिए हेलमेट कत्तई नहीं पहनेंगेे ! यानी, ‘जुल्फ’ जरुरी है, जान नहीं। 

भारतीय समाज में असहिष्णुता बढ़ी है या घटी है ?

दिलीप कुमार,
अजित,
मधुबाला,
मीना कुमारी ,
निम्मी
संजय,
श्यामा 
और जगदीप ।
इन्हें तो आप जानते ही हैं।
ये अपने जमाने के मशहूर फिल्मी कलाकार रहे ।
इनमें से अधिकतर इस दुनिया में नहीं हैं।
ये सब दरअसल इस्लाम धर्म का पालन करते रहे।
पर, इन्होंने अपने नाम हिन्दुओं जैसे रखे।
या किसी कारणवश रखने को मजबूर हुए।
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क्या आज कोई ऐसा कलाकार हिन्दू नाम रख रहा है जो इस्लाम धर्म का पालन करता है ? अपने मूल नाम के बावजूद शाहरुख खान, सलमान खान और आमीर खान  अत्यंत लोकप्रिय कलाकार हैं।

अब आप ही निर्णय  करें। आम भारतीय  समाज में सहिष्णुता पहले अधिक थी या आज अधिक है ? या हमेशा एक समान रही है ?

आयुक्त को करने पड़ रहे थानेदारों के काम !

पटना की सड़कों से अतिक्रमण हटाने के लिए आज कल  प्रमंडलीय आयुक्त आनंद किशोर को सड़कों पर उतरना पड़ रहा  है। जबकि, पचास -साठ के दशकों में यह काम थानेदार कर देता था। पुलिस आज कारगर क्यों नहीं हो पाती है ? इसके कारण पूर्व डी.जी.पी. अभयानंद और समाजशास्त्री डा. ए.के. वर्मा ने प्रभात खबर (16 सितंबर 2019) से बातचीत में बताए है।

नब्बे के दशक में तो अतिक्रमण हटाने के लिए तो खुद तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद को पटना की सड़कों पर उतरना पड़ा था। लगता है कि नब्बे के दशक में कमिश्नर भी कारगर नहीं हो पर रहे थे।

उसका कारण बताया था केंद्र सरकार के सचिव एन.सी.सक्सेना ने। 5 फरवरी 1998 को  बिहार सरकार के मुख्य सचिव को भेजे अपने एक नोट में केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव सक्सेना ने कहा था कि ‘बिहार के बड़े अफसर और उगाही करने वाले राजनेताओं, इंस्पेक्टरों और बाबुओं में फर्क करना असंभव हो गया है।’

रविवार, 15 सितंबर 2019

ऊर्जा बचत के प्रति जागरुक तीन बड़ी हस्तियों का
जिक्र करना चाहता हूं। जवाहरलाल नेहरू, कर्पूरी ठाकर और आई.पी.एस. अफसर  सुधीष्ठ नारायण सिंह।

कर्पूरी जी से शुरु करता हूं। 1972-73 की बात है। तब मैं राजनीतिक कार्यकत्र्ता की हैसियत से  कर्पूरी जी का निजी सचिव था।
पटना के वीरचंद पटेल पथ के एक बंगले में वे रहते थे।
बड़ा सा हाॅल था।कई पंखे थे।
कर्पूरी जी जब कभी कहीं से आते थे तो पहला काम यही करते थे।अनावश्यक रुप से जल रही बत्तियों  और चल
रहे पंखों को खुद ही आॅफ करते थे।
वे वहां मौजूद किसी को भी ऐसा करने को  कह सकते थे।
पर वे खुद राह दिखाना चाहते थे।
   बिहार काॅडर के आई.पी.एस.अफसर के एक सहकर्मी के अनुसार वे बत्ती -पंखा कौन कहे,अनावश्यक चल रहे नल को भी खुद ही बंद करते थे।
  अब जवाहरलाल जी के बारे में।
पंडित जी  नहीं चाहते थे कि तीनमूत्र्ति भवन के उनके सोने के कमरे में ए.सी.चले।
  दिल्ली की गर्मी में उनके सहकर्मी एक बीच का रास्ता निकालते थे।
प्रधान मंत्री के आॅफिस से लौटने के समय से करीब तीन-चार घंटे पहले उनके सहकर्मी उनके कमरे की ए.सी.चला देते थे।
और उनके पहुंचने के आधा घंटा पहले ए.सी.आॅफ कर देते थे।
सहकर्मी चाहते थे कि पंडित जी की बात भी रह जाए और उन्हें भीषण गर्मी भी न झेलनी पड़े। 
  

प्रथम  अपराध में ही जेल काट लिए होते तो 
बुढ़ापे में जेल यात्रा का कष्ट तो नहीं होता !
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लगता है कि भाजपा नेता स्वामी चिन्मयानंद का भी वही हाल होने वाला है जिस हाल में अभी आशाराम बापू हैं।
यदि जांचकत्र्ताओं को बलात्कार के आरोप में कुछ भी सच्चाई लगेगी तो।
पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री चिन्मयानंद पर यह आरोप है कि उन्होंने एक छात्रा के साथ बलात्कार किया।
छात्रा के पिता ने विशेष जांच दल को दुष्कर्म के साक्ष्य सौंप दिए हैं।
  इससे पहले भी स्वामी पर ऐसा ही एक आरोप लग चुका है।वह केस भी चल रहा है।
राजनीतिक दृष्टि से ताकतवर चिन्मयानंद के खिलाफ उस केस को उठाने की कोशिश भी हुई थी।
पर सरकार सफल नहीं हो सकी थी।
  अब चूंकि ताजा मामला सुप्रीम कोर्ट की नजर में आ गया है,इसलिए इस भाजपा नेता का बचना मुश्किल है,यदि वे दोषी लगे तो।
 बुढ़ापे में जेल काटना पड़ता रहता है या काट चुके होते हैं कुछ आदतन अपराधी।
उनमें नेता व स्वामी आदि शामिल हैं। 
 अच्छा होता कि पहले ही अपराध में जवानी में ही जेल काट लिए होते।
पर जवानी व सत्ता के नशे में तब तो मीडिया को हड़का कर और न्यायिक प्रक्रिया में हेरफेर करके सजा से बच जाते हैं।
पर यदाकदा अगले अपराध में बुढ़ापे में फंस जाते हैं।
इस देश के एक पूर्व मुख्य मंत्री  जवानी के एक अपराध से तो खुद को सजामुक्त करवा लियां था।
उसमें प्रधान मंत्री तक से उन्हें मदद मिल गयी थी।
पर वह आदतन भ्रष्ट नेता एक अन्य घोटाले में बुढ़ापे में सजायाफ्ता हो गया।
बुढ़ापे में जेल का कष्ट हुआ।
फिर तो राम नाम सत्य हो गया !! 

  



मेरी 1970 की ‘तिहाड़ यात्रा’


सन 1970 में समाजवादी आंदोलन के सिलसिले में नई दिल्ली के संसद भवन के पास हुए प्रदर्शन में मैं भी था। गिरफ्तारियां हो गयीं। अनेक नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ मैं भी तिहाड़ जेल पहुंच गया। उस समय जेल जाने वालों में मधु लिमये, राज नारायण, जनेश्वर मिश्र, किशन पटनायक, शिवानंद तिवारी, राजनीति प्रसाद, राम नरेश शर्मा, देवेंद्र कुमार सिंह सहित अनेक छोटे- बड़े नेता-कार्यकर्ता थे।

कुछ ही दिनों तक जेल में रहना पड़ा। रिहा किया तो मुझे छपरा तक का मुफ्त रेल टिकट के लिए जेल प्रशासन ने एक संबंधित कागज भी दिया। दिल्ली स्टेशन के काउंटर पर उस कागज को दिखाने पर मुफ्त में टिकट भी मिल गया। मेरे साथ छपरा से देवेंद्र जी थे। बाद में वे बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग के अफसर बने थे। अब नहीं रहे। 

तब कड़ाके की ठंड थी। संभवतः दिसंबर का महीना था। वह भी दिल्ली की ठंड। फिर भी जेल में नेता जी यानी राज नारायण जी कंबल ओढ़े सुबह-सवेरे सभी बंदियों के पास जाते थे। सबका हाल चाल पूछते थे। किसे चाय मिली या नहीं, इसका वे बड़ा ध्यान रखते थे। मैंने महसूस किया कि व्यक्तिगत रूप से कार्यकर्ताओं का ध्यान रखने में राज नारायण जी अन्य बड़े नेताओं से बहुत  अलग थे।

वैसे जेल में हमें कोई कष्ट नहीं हुआ। छात्र व युवा ही अधिक थे। सबका मनोबल ऊंचा था। जो वार्ड मिला था, वह छात्रावास जैसा ही था। एक कमरे या यूं कहिए कि सेल में तीन लोगों के रहने की व्यवस्था थी। एक सीमेंट का तख्त था। उस कमरे में दो निवाड़ की खाट बाहर से लाकर लगा दी जाती थी। एक मोटा तोशक और एक मोटी रजाई। उसी में शौचालय भी था।
सामने खुला मैदान था।

जाड़े के दिन में मैदान की घास पर हम धूप का आनंद लेते थे। शिवानंद जी के पास एक रेडियो भी था। वे घास पर लेटकर अपने सीने पर रेडियो रख लेते थे और न्यूज सुनते रहते थे। बिस्किट के साथ सुबह -सुबह चाय। उसके बाद अच्छे गुणवत्ता वाला नाश्ता। भोजन आदि। हां, फाइव स्टार भोजन-नाश्ता तो नहीं ही था, जिसकी मांग आज के ‘फाइव स्टार’ नेता करते हैं। भले वे भ्रष्टाचार के आरोप में ही जेल क्यों नहीं गए हों। 

आज के पी.चिंदबरम और हमारी जेल यात्रा का अंतर समझने के लिए एक उदाहरण सुनिए।

जेपी आंदोलन में कई जेल यात्राएं कर चुके एक नेता चारा घोटाले में जेल गए तो संवाददाता उनका हालचाल लेने पहुंच गया। 

पूछा,
‘दोनों जेल यात्राओं में कैसा फर्क महसूस हो रहा है ?’

नेताजी ने कहा,
‘दुर मरदे ! कहां हम तब सीना तानकर जेल जाते थे और सीना तानकर निकलते थे। आज तो चोर बनाकर जेल भेज दिया। दोनों में फर्क आपको नहीं बुझा रहा है ?’

बेचारा चिदंबरम ! !
पता नहीं, वे कैसा महसूस कर रहे होंगे !

शनिवार, 14 सितंबर 2019

जम्मू—कश्मीर मई, 1989 : राज्यपाल की रिपोर्ट — ‘हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं ’


मई, 1989 में जम्मू कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन ने केंद्र सरकार को जो रपट भेजी, उसका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है।

‘हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं। सब कुछ तकरीबन बेकाबू हो गया है। पिछले पांच दिनों में बड़े पैमाने पर हिंसा, आगजनी, हड़तालें, फायरिंग, मौतेें और न जाने क्या -क्या सामने आया है।
हालात सचमुच नियंत्रण से बाहर जा रहे हैं। हर दिन कोई न कोई मसला सिर उठाता रहता है।
कल बारी थी मकबूल बट्ट की, आज सैटेनिक वर्सेज की, कल दमन दिवस होगा और उसके बाद कुछ और।

मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला की कोई विसात नहीं बची। उनका प्रभाव समाप्त हो चुका है--राजनीतिक प्रशासनिक दोनों ही, सिर्फ संवैधानिक खानापूरी की देर है। हालात की मांग है कि तुरंत प्रभावी हस्तक्षेप किया जाए। आज समय है। कल तक हो सकता है बहुत देर हो जाए।’’


‘‘ 8 से 13 मई के दौरान बम विस्फोट की 14 घटनाएं हुईं हैं। फायरिंग और आपस में गोलियां चलने के छह मामले सामने आए हैं। चार लोग मारे गए और 20 घायल हो गए। एक पर्यटन बस पर गोलियां चलीं। चार पर्यटक जख्मी हुए। वर्तमान प्रशासनिक और राजनीतिक ढांचा एक बार फिर नकारा साबित हुआ है।

हड़ताल के दौरान तोड़फोड़ करने वालों के इरादों को नाकाम करने के लिए राजनीतिक हलकों की ओर से कोई ठोस प्रयत्न नहीं हुआ। सबसे चिंताजनतक बात यह है कि हर ‘जीत’ तोड़फोड़ करने वालों के हौसले बुलंद कर रही है। वे केंंद्रीय अधिकारियों के खिलाफ दुश्मनी साधने लगे हैं।
मैंने मुख्यमंत्री को अपनी चिंता से अवगत करा दिया है।

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— याद रहे कि 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जगमोहन को राज्यपाल बनाया और 1989 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें हटा दिया।

— प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने जनवरी 1990 में जगमोहन को जम्मू एंड कश्मीर का राज्यपाल बनाया। उन्होंने ही मई 1990 में उन्हें हटा दिया।

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हाल में गृहमंत्री अमित शाह जगमोहन से उनके आवास पर जाकर मिले थे।

शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

कृषि आय के बहाने अरबों की लूट ः हकीकत या अफसाना ? 
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इस देश के 6 लाख 57 हजार आयकर दाताओं ने जो आयकर रिटर्न फाइल किए,उनके अनुसार 
खेती से उन लोगों की कुल मिलाकर एक साल में  आय 2000 लाख करोड़ रुपए हुई ।
 यह आंकड़ा सन 2011 का है।
आयकर महकमे के रिटायर अफसर विजय शर्मा ने आर.टी.आई.के जरिए उपर्युक्त आंकड़ा हासिल किया  था।
  याद रहे कि कृषि आय पर आयकर नहीं लगता।
काफी संभव है कि 2000 लाख करोड़ रुपए में से अधिकांश राशि काला धन थी जिसे कृषि आय दिखा कर सफेद कर लिया गया।
खैर,व्यावहारिक धरातल पर स्थिति यह है कि खेती आज आम तौर पर मुनाफे का नहीं बल्कि घाटे का सौदा है।ं
विजय शर्मा ही नहीं, इस देश के हर ईमानदार आयकर दाता को यह जानने का हक है कि इन दो हजार लाख करोड़ रुपए में से कितना काला धन था और कितना सफेद धन ?
अन्य वित्तीय वर्षों का क्या आंकड़ा है ?
ताजा स्थिति क्या है ?
मान लीजिए कि इसमें से एक लाख करोड़ रुपए सफेद धन है।
यानी 1999 लाख करोड़ रुपए काला धन है।
इस पर सरकार को कोई टक्स नहीं मिला।
इनमें से कम से कम एक तिहाई राशि टैक्स में जानी चाहिए थी।
यानी, 666 लाख करोड़ रुपए केंद्र सरकार को मिलने चाहिए थे।
  पर नहीं मिले।
एक अपुष्ट खबर के अनुसार उसी अवधि में इस देश के कुछ अत्यंत प्रभावशाली -सत्ताधारी लोगों ने  अपनी छत पर रखे गमलों में कोबी तथा कुछ अन्य चीज उगा कर और उसे बेच कर करोड़ों रुपए आय प्राप्त की और उसे अपने आयकर रिटर्न में शामिल किया।
   खैर, 666 लाख करोड़ रुपए सरकार के यहां पहुंचे होते तो 
देश का कितना विकास व लोगों को कितना कल्याण होता ?
  क्या ऐसी बोगस छूट लेने की परंपरा अब भी जारी है ?
अब मोदी है तब भी यह सब मुमकिन हो रहा है ?
इस संबंध में ताजा व वास्तविक जानकारी लोगों को मिलनी ही चाहिए।
केंद्र सरकार इसकी जांच के काम में देश के सर्वाधिक ईमानदार अफसरों को लगाए।
यह भी जांच कराए कि 2011 का उपर्युक्त  आंकड़ा  कितना सही और कितना गलत है ?कहीं टाइपिंग मिस्टेक तो नहीं !!
 यह जानने की भी उत्सुकता है कि इस संबंध में अदालत में दाखिल विजय शर्मा की जनहित याचिका किस स्टेज में है ? 
याद रहे कि विजय शर्मा ने आर.टी.आई.के जरिए सरकार से यह भी पूछा था कि 6 लाख 57 हजार ऐसे आयकर दाताओं में से ऊपर के सौ लोगों के नाम बताए जाएं जिन्होंने सर्वाधिक राशि का रिटर्न फाइल किया।
पर केंद्र सरकार ने यह सूचना देने से इनकार कर दिया।

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

   पर उपदेश कुशल बहुतेरे !
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गत साल सितंबर में रणदीप सुरजेवाला ने सार्वजनिक रुप से कहा था कि ‘कांग्रेस के खून में ब्राह्मण डी.एन.ए. है।’
  कपिल सिबल ने उस बयान पर तो कुछ नहीं कहा।
पर, वे स्पीकर ओम बिड़ला की एक टिप्पणी पर जरुर  अपनी टिप्पणी दाग दी।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे !
याद रहे कि हाल में लोक सभा  स्पीकर ओम बिड़ला ने
कहा  कि ‘समाज में ब्राह्मणों का स्थान हमेशा ऊंचा रहा है।’  
उस पर स्पीकर को संबोधित करते हुए सिबल साहब ने कहा कि ‘आपका सम्मान जाति के कारण नहीं,बल्कि लोक सभा स्पीकर होने की वजह से है।’

‘अगर इमरान खान मुस्लिमों के मानवाधिकारों को लेकर इतने ही गंभीर हैं तो वह चीन द्वारा यातना केंद्रों में मुसलमानों पर
हो रहे अत्याचारों के खिलाफ भी बोलते।
   वह कश्मीर पर सिर्फ इसलिए बयानबाजी कर रहे हैं ,क्योंकि यह उनके लिए सियासी मसला है।’
                     ----पत्रकार तवलीन सिंह  
किसी और ने कहीं इस चुप्पी का दूसरा ही कारण बताया था।
दरअसल जेहादियों का लक्ष्य है कि पहले चीन की मदद से ‘गजवा-ए-हिन्द’ करना है।
फिर चीन को देख लेना है।
अभी चीन से दुश्मनी नहीं करनी है।
भले शिनजियांग के दो करोड़
मुसलमानों को जो भी पीड़ा झेलनी पड़े।़

सत्तर के दशक में एक खास राजनीतिक दल के बारे में
एक विरोधी नेता ने कहा था,
‘यह न तो कोई पार्टी है और न ही प्लेटफार्म ।बल्कि, यह सत्तालोलुपों का एक घिनौना गिरोह मात्र है।’
आज की स्थिति क्या है ?
पार्टी के नाम पर ऐसे गिरोहों की संख्या आज बढ़ गई है।
यदि वह नेता आज भी जिन्दा होता तो कहता,
‘हमारे देश में कुछ दल ऐसे हैं जो न तो पार्टी हैं और न ही 
प्लेटफार्म,बल्कि सत्तालोलुपों,धन पिपासुओं और वंश-परिवारवादियों के घिनौना गिरोह हैं।
ये दल अपने स्वार्थ में अपने देश के खिलाफ भी बोलते रहते हैं।’  

    ग्लोबल समस्याएं--कल,आज और कल
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1.-कभी की ग्लोबल समस्या--दास प्रथा का उत्पीड़न
2.-कभी की ग्लोबल समस्या-पूंजीवाद का शोषण 
3.-कभी की बड़ी समस्या -एक चैथाई दशक के भीतर ही  दो -दो विश्व युद्ध
4.-कभी की ग्लोबल समस्या --साम्राज्यवाद
5.-कभी की समस्या-कम्युनिस्ट जकड़न व बंद दरवाजे
6.-आज की ग्लोबल समस्या--इस्लामिक आंतकवाद व जेहाद
7.-कल की ग्लोबल समस्या-वायु प्रदूषण और जल संकट 
इस सूची में आप कुछ जोड़ या घटा सकते हैं।

-- मधुमेह और रक्तचाप की जांच के लिए गांवों में व्यापक अभियान जरुरी--



यह काम खुद शासन करे या फिर स्वयंसेवी संस्थाएं। या दोनों मिलकर करें।
कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत भी इस काम को किया जा सकता है।
पर, मधुमेह और रक्तचाप की जांच अब अत्यंत जरुरी है।
ये बीमारियां महामारी का रूप ले रही हैं।
 इनके कारण अन्य बीमारियां भी हो जाती हैं।
अधिक लोग बीमार यानी सरकारी साधनों पर अधिक बोझ।
 खुद जांच कराते रहने के मामले में हमारा राज्य कौन कहे,पूरा देश ही पिछड़ा माना जाता है।
शहरों में भी इस मामले में थोड़ी ही जागरुकता है।पर सही जांच के लिए प्रामाणिक पैथ लैब की भी तो भारी कमी है।
  यदि सही  जांच हो जाएगी और समय रहते मर्ज का पता चल जाएगा तो उसका इलाज भी  संभव है ।
  इससे सरकारी अस्पतालों तथा आयुष्मान योजना का खर्च भी घट सकता है।
अब तो जांच के लिए पोर्टेबल मशीनें भी उपलब्ध हैं।
  --जांच के प्रति जागरुकता नहीं--

पहले गांवों में अधिकतर लोग सप्ताह में एक दिन नमक छोड दे़ते थे।अन्य तरह के संयम बरतते थे।
व्रत करते थे।उपवास -फलाहार होता था।
अब भी करते हैं,पर उनकी संख्या कम होती जा रही है।
गांवों में भी नौजवानों में  खानपान का संयम कम होता जा रहा है। 
   यदि आप सप्ताह में एक दिन नमक भी नहीं छोड़ेंगे और ब्लड प्रेसर की जांच भी नहीं कराएंगे तो उसका नतीजा क्या होगा ?
संभव है कि आपके शरीर में रोग पल रहा हो और आप उससे अंत -अंत तक अनजान बने रहें।
ऐसे में शासन की जिम्मेवारी बढ़ जाती है।
  --जल बचाएं अगली पीढि़यों के लिए- 
जो लोग चाहते हैं कि उनके प्रपौत्रों को भी जल संकट न झेलना पड़े,वे ब्रश करते समय बेसिन के नल को नाहक खुला न छोड़ें।
यह तो एक नमूना भर है।हम हर स्तर पर जल बचाएं।
हम जल इस तरह बर्बाद करते रहते हैं मानो यह असीमित हो।पर ऐसा है नहीं। 
  जल ही जीवन है।
इसे बनाया नहीं जा सकता।
सिर्फ इसे बचाया जा सकता है।
--जुर्माना अधिक नहीं-
ट्राफिक नियमों के उलंघन पर लग रहा जुर्माना कत्तई अधिक नहीं है।
जिस देश में सड़क दुर्घटनाओं में हर साल करीब दो लाख लोग मरते हैं,वहां तो जुर्माना और भी अधिक होना चाहिए था।
जान से अधिक कीमत किसी अन्य चीज की नहीं।
आम तौर से जो वाहन चालक इतने गैर जिम्मेवार हैं कि जरुरी कागजात लेकर नहीं चलते,उन्हीं में से अधिकतर लोगों के कारण सड़क दुर्घटनाएं होती हैं।समस्या उदंड व लापारवाह मानसिकता की है।
  ऐसा ही भारी जुर्माना उन लोगों पर भी लगना चाहिए जो अतिक्रमण करके मुख्य सड़कों को संकड़ा बना देते हैं ।इस तरह वे जाम और दुर्घटनाओं की पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं।
 इस देश के जो सत्ताधारी नेता यह समझते हैं कि कानून तोड़कों के साथ नरमी बरत कर वे अपने वोट बढ़ा लेंगे,वे गलतफहमी में रहते हैं।
ऐसी ही गलतफहमी में उन राज्यों के सत्ताधारी नेता हैं जिन्होंने नए ट्राफिक नियमों को लागू करने से इनकार कर दिया है।वहां के वैसे लोग उससे नाराज ही होंगे जो चाहते हैं कि सड़कों पर अराजकता न हो। 
--जेपी थे परिवार नियोजन के समर्थक--   
जय प्रकाश नारायण ने 1978 में कहा था कि ‘मैं हमेशा परिवार नियोजन का समर्थक रहा हूं।’
  इस संबंध में तब उन्होंने एक अपील भी जारी की थी।
अपील सरकारी विज्ञापन के रुप में थी।
उसे भारत सरकार के डी ए वी पी ने 
अखबारों में विज्ञापन के रुप में छपवाया था।
तब मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री और राज नारायण स्वास्थ्य मंत्री थे।
जेपी की अपील इस प्रकार थी,
‘मैं हमेशा परिवार नियोजन का समर्थक रहा हूं।
मैंने देश में अनेक मंचों से और समाचार पत्रों के जरिए इस कार्यक्रम का समर्थन किया है।
मैं समझता हूं कि देश की आम प्रगति और समृद्धि के लिए अपनाए जाने वाले महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में से परिवार नियोजन एक है।
  इस बारे में मैं केवल एक बात फिर से दोहराना
 चाहता हूं कि इस कार्यक्रम को लागू करते समय किसी किस्म की जोर जबरदस्ती नहीं की जानी चाहिए।
मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि गांवों की आम जनता छोटे परिवार के महत्व को स्वीकार करती है।
लेकिन मैं समझता हूं कि अभी तक राज्य और स्वैच्छिक संस्थाएं उनकी इस जरुरत को पूरा करने के लिए आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था नहीं कर पाई हैं।
मेरे विचार से इस काम के लिए प्रचार अथवा जानकारी देने की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी सुविधाएं जुटाने की।
मेरी राय में ग्रामीण अस्पतालों  या स्वास्थ्य केंद्रों में अब भी इसके लिए सुविधाएं नहीं हैं।
इसलिए मैं सोचता हूं कि प्रचार की अपेेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में इन सुविधाओं की व्यवस्था की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।--जयप्रकाश नाराण’ 
--और अंत में-
आज भारत की जनसंख्या करीब एक अरब 36 करोड़ है।
यहां प्रति वर्ग किलोमीटर में 416 व्यक्ति रहते हैं।
वहीं अमरीका में प्रति वर्ग मील में औसतन मात्र
92 दशमलव 6 व्यक्ति रहते हैं।
हमारी आबादी दुनिया की पूरी आबादी का 17 दशमलव 71 प्रतिशत है।दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 2 दशमलव 4 प्रतिशत ही भारत के पास है। 
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---मेरे काॅलम -कानोंकान-प्रभात खबर -बिहार-में 6 सितंबर 2019 को प्रकाशित ।