--बाढ़-बाद आई महामारी--सुरेंद्र किशोर
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शरद पवार से लेकर पी.चिदंबरम तक।
सोनिया गांधी से लालू प्रसाद तक।
वीरभद्र सिंह से रमण सिंह के रिश्तेदार तक।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा से मुकुल राय तक !!
देश के जिस कोने में नजर दौड़ाइए, कोई न कोई बड़ा राज नेता कानून की गिरफ्त में नजर आ जाएगा।
अब तो आई.ए.एस.अफसर व कुछ अन्य हलकों के दिग्गज भी इससे अछूते नहीं हैं।
किसी ने ठीक ही कहा है कि लगता है कि देश में भ्रष्टाचार की महामारी फैली हुई है।
कोई सजा पाकर जेल में है तो कोई विचाराधीन कैदी है।कोई जेल के रास्ते में है तो कोई जमानत पर है । अन्य अनेक तो जमानत के लिए कचहरियों की दौड़ लगा रहे हंै।यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नया व ताजा चेहरा है।
दरअसल राजनीति-प्रशासन-व्यापार जगत को भ्रष्टाचार के कैंसर ने बुरी तरह ग्रस लिया है।कभी -कभी तो लगता है कि इस देश में भ्रष्टाचार के अलावा और कुछ होता ही नहीं है !
वैसे जितना कुछ दिखाई पड़ रहा है,वह तो आइसबर्ग का सिरा मात्र है।
वैसे इस भ्रष्टाचार के समुद्र में ईमानदारी के टापू भी जहां- तहां मौजूद हैं।
भ्रष्टाचार के जो दृश्य आज दिखाई पड़ रहे हैं,वह सब एक दिन में पैदा नहीं हुआ।
आजादी के तत्काल बाद ही उसकी नींव पड़ चुकी थी।
आजादी के तत्काल बाद प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि ‘कालाबाजारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए।’
पर वे उस पर अमल नहीं कर सके।
उल्टे वी.के.कृष्ण मेनन और प्रताप सिंह कैरो के खिलाफ आरोपों को उन्होंने नजरअंदाज किया ।
इस व इस तरह के अन्य कदमों से भ्रष्टाचारियों का मनोबल बढ़ता चला गया।
सत्ताधीशों ने भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों वाले चैप्टर को भी नजरअंदाज करना शुरू कर दिया ।
उसमें लिखा है कि ‘राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संंचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन के साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी केंद्रीकरण न हो।’
पर हुआ क्या ?
जो कुछ हुआ, वह जल्द ही एक बड़े नेता की जुबान से सामने आ गया।
सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डी.संजीवैया को इन्दौर के अपने भाषण में यह कहना पड़ा कि ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।
गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने यह भी कहा था कि ‘झोपडि़यों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’
सन 1971 के बाद तो सरकारी पैसों की लूट की गति तेज हो गयी।अपवादों को छोड़कर सरकारों में भ्रष्टाचार ने संस्थागत रूप ले लिया।1976 में सांसदों के लिए पेंशन की व्यवस्था कर दी गई।यानी जन सेवा, नौकरी में बदल गई।
समय बीतने के साथ सरकारें बदलती गयीं और सार्वजनिक धन की लूट पर किसी एक दल एकाधिकार नहीं रहा।
अपवादों को छोड़कर लूट में गांधीवाद और नेहरूवाद के साथ -साथ समाजवाद ,लोहियावाद , ‘राष्ट्रवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’, आम्बेडकरवाद से जुड़े लोग तथा अन्य तत्व भी शामिल होते चले गए।
1985 में प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा कि केंद्र सरकार के सौ में से 85 पैसे जनता के यहां जाने के रास्ते में ही लुप्त हो जाते हैं।
1991 के उदारीकरण के दौर के बाद तो राजनीति में धन के अश्लील प्रदर्शन को भी बुरा नहीं माना जाने लगा।
अब तो इस देश के कई दलों के अनेक बड़े नेताओं के पास अरबों-अरब की संपत्ति इकट्ठी हो चुकी है और वे बढ़ती ही जा रही है।
2014 के चुनाव में सत्ताधारी यू.पी.ए.की शर्मनाक हार का सबसे
बड़ा कारण सरकारी भ्रष्टाचार और घोटाले -महा घोटाले थे।
नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के साथ ही यह घोषणा की कि ‘हम न खाएंगे और न खाने देंगे।’
मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ तेज कार्रवाइयां शुरू कर दीं।कई केस पहले से चल रहे थे।कई नए केस हुए।कुछ अदालतों के आदेश से चले।
नतीजतन इन दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच एजेंसियां जितनी सक्रिय हैं,उतनी इससे पहले कभी नहीं थीं।अदालतों का रुख भी भ्रष्टाचार के खिलाफ फिलहाल सख्त नजर आ रहा है। इसलिए भी यह उम्मीद बढ़ी है ।चल रहे मामलों को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया जाए तो राजनीति व प्रशासन की एक हद तक सफाई हो जाएगी।
पर लगता है कि फिर भी सफाई के कुछ काम बाकी रह जाएंगे।
आरोप है कि राजग से जुड़े वैसे अधिकतर महारथियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो पा रही है जिनके खिलाफ भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं।हालांकि कुछ पर जरुर हो रहे हैं।
देर-सवेर इस सवाल का जवाब सत्ताधारी जमात को देना पड़ेगा।
मौजूदा सत्ताधारियों के नजदीकी आरोपियों के खिलाफ भी यदि इसी तरह की कार्रवाइयां हों तो देश की संस्थाओं की सफाई का काम काफी हद तक पूरा हो सकेगा।
देश की विभिन्न संस्थाओं में भ्रष्टाचार की जो बाढ़ आई है,उस
पर प्रारंभिक दिनों में ही काबू पाया जा सकता था।
पर ऐसा नहीं हुआ।भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलने के कई उदाहरण समय- समय पर सामने आए।
बोफर्स घोटाले में किसी को सजा नहीं होने दी गई।
झामुमो रिश्वत कांड में भी वही हुआ।
इस कांड की सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिन सांसदों ने रिश्वत ली है,उनके खिलाफ हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते।क्योंकि संविधान के अनुच्छेद-105-2 उसमें बाधक है।
संसद को चाहिए था कि उस अनुच्छेद में संशोधन करती।पर नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया।
नब्बे के दशक में ही जैन हवाला रिश्वत कांड सामने आया।
कम्युनिस्टों को छोड़ दें तो यह लगभग वह सर्वदलीय घोटाला था।
इसलिए किसी के खिलाफ कुछ नहीं हुआ।
सांसद क्षेत्र विकास फंड ने राजनीति के साथ -साथ ब्यूरोक्रेसी को भी भ्रष्ट कर दिया है।
अपवादों को छोड़कर इस फंड से कमीशन के बिना कोई काम नहीं होता।इस फंड को समाप्त करने के अनेक प्रयास विफल ही रहे।
बिहार के आई.ए.एस.अफसरों के बारे में केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एन.सी.सक्सेना ने 1998 में बिहार सरकार के मुख्य सचिव को भेजे अपने नोट में कहा था कि ‘बिहार के बड़े अफसरों और उगाही करने वाले नेताओं ,इंस्पेक्टरों और बाबुआंे में फर्क करना असंभव हो गया है।’
सक्सेना की यह टिप्पणी अन्य कितने राज्यों के मामले में सच है,यदि इसकी उच्चस्तरीय जांच करवा कर केंद्र सरकार तभी कार्रवाई करती तो आज जो दिन देखने पड़ रहे हैं,शायद न देखने पड़ते।
फिर तो घोटालों-महा घोटालों की बाढ़ सी आ गई।
अन्ना हजारे का आंदोलन भी उस बाढ़ को नहीं रोक सका।
बाढ़ के बाद अक्सर महामारी आती है।वही आई हुई है।
देखना है कि वह कैसे और कब थमती है !!
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--मेरे इस लेख का संपादित अंश आज के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित।
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शरद पवार से लेकर पी.चिदंबरम तक।
सोनिया गांधी से लालू प्रसाद तक।
वीरभद्र सिंह से रमण सिंह के रिश्तेदार तक।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा से मुकुल राय तक !!
देश के जिस कोने में नजर दौड़ाइए, कोई न कोई बड़ा राज नेता कानून की गिरफ्त में नजर आ जाएगा।
अब तो आई.ए.एस.अफसर व कुछ अन्य हलकों के दिग्गज भी इससे अछूते नहीं हैं।
किसी ने ठीक ही कहा है कि लगता है कि देश में भ्रष्टाचार की महामारी फैली हुई है।
कोई सजा पाकर जेल में है तो कोई विचाराधीन कैदी है।कोई जेल के रास्ते में है तो कोई जमानत पर है । अन्य अनेक तो जमानत के लिए कचहरियों की दौड़ लगा रहे हंै।यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नया व ताजा चेहरा है।
दरअसल राजनीति-प्रशासन-व्यापार जगत को भ्रष्टाचार के कैंसर ने बुरी तरह ग्रस लिया है।कभी -कभी तो लगता है कि इस देश में भ्रष्टाचार के अलावा और कुछ होता ही नहीं है !
वैसे जितना कुछ दिखाई पड़ रहा है,वह तो आइसबर्ग का सिरा मात्र है।
वैसे इस भ्रष्टाचार के समुद्र में ईमानदारी के टापू भी जहां- तहां मौजूद हैं।
भ्रष्टाचार के जो दृश्य आज दिखाई पड़ रहे हैं,वह सब एक दिन में पैदा नहीं हुआ।
आजादी के तत्काल बाद ही उसकी नींव पड़ चुकी थी।
आजादी के तत्काल बाद प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि ‘कालाबाजारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए।’
पर वे उस पर अमल नहीं कर सके।
उल्टे वी.के.कृष्ण मेनन और प्रताप सिंह कैरो के खिलाफ आरोपों को उन्होंने नजरअंदाज किया ।
इस व इस तरह के अन्य कदमों से भ्रष्टाचारियों का मनोबल बढ़ता चला गया।
सत्ताधीशों ने भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों वाले चैप्टर को भी नजरअंदाज करना शुरू कर दिया ।
उसमें लिखा है कि ‘राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संंचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन के साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी केंद्रीकरण न हो।’
पर हुआ क्या ?
जो कुछ हुआ, वह जल्द ही एक बड़े नेता की जुबान से सामने आ गया।
सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डी.संजीवैया को इन्दौर के अपने भाषण में यह कहना पड़ा कि ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।
गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने यह भी कहा था कि ‘झोपडि़यों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’
सन 1971 के बाद तो सरकारी पैसों की लूट की गति तेज हो गयी।अपवादों को छोड़कर सरकारों में भ्रष्टाचार ने संस्थागत रूप ले लिया।1976 में सांसदों के लिए पेंशन की व्यवस्था कर दी गई।यानी जन सेवा, नौकरी में बदल गई।
समय बीतने के साथ सरकारें बदलती गयीं और सार्वजनिक धन की लूट पर किसी एक दल एकाधिकार नहीं रहा।
अपवादों को छोड़कर लूट में गांधीवाद और नेहरूवाद के साथ -साथ समाजवाद ,लोहियावाद , ‘राष्ट्रवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’, आम्बेडकरवाद से जुड़े लोग तथा अन्य तत्व भी शामिल होते चले गए।
1985 में प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा कि केंद्र सरकार के सौ में से 85 पैसे जनता के यहां जाने के रास्ते में ही लुप्त हो जाते हैं।
1991 के उदारीकरण के दौर के बाद तो राजनीति में धन के अश्लील प्रदर्शन को भी बुरा नहीं माना जाने लगा।
अब तो इस देश के कई दलों के अनेक बड़े नेताओं के पास अरबों-अरब की संपत्ति इकट्ठी हो चुकी है और वे बढ़ती ही जा रही है।
2014 के चुनाव में सत्ताधारी यू.पी.ए.की शर्मनाक हार का सबसे
बड़ा कारण सरकारी भ्रष्टाचार और घोटाले -महा घोटाले थे।
नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के साथ ही यह घोषणा की कि ‘हम न खाएंगे और न खाने देंगे।’
मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ तेज कार्रवाइयां शुरू कर दीं।कई केस पहले से चल रहे थे।कई नए केस हुए।कुछ अदालतों के आदेश से चले।
नतीजतन इन दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच एजेंसियां जितनी सक्रिय हैं,उतनी इससे पहले कभी नहीं थीं।अदालतों का रुख भी भ्रष्टाचार के खिलाफ फिलहाल सख्त नजर आ रहा है। इसलिए भी यह उम्मीद बढ़ी है ।चल रहे मामलों को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया जाए तो राजनीति व प्रशासन की एक हद तक सफाई हो जाएगी।
पर लगता है कि फिर भी सफाई के कुछ काम बाकी रह जाएंगे।
आरोप है कि राजग से जुड़े वैसे अधिकतर महारथियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो पा रही है जिनके खिलाफ भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं।हालांकि कुछ पर जरुर हो रहे हैं।
देर-सवेर इस सवाल का जवाब सत्ताधारी जमात को देना पड़ेगा।
मौजूदा सत्ताधारियों के नजदीकी आरोपियों के खिलाफ भी यदि इसी तरह की कार्रवाइयां हों तो देश की संस्थाओं की सफाई का काम काफी हद तक पूरा हो सकेगा।
देश की विभिन्न संस्थाओं में भ्रष्टाचार की जो बाढ़ आई है,उस
पर प्रारंभिक दिनों में ही काबू पाया जा सकता था।
पर ऐसा नहीं हुआ।भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलने के कई उदाहरण समय- समय पर सामने आए।
बोफर्स घोटाले में किसी को सजा नहीं होने दी गई।
झामुमो रिश्वत कांड में भी वही हुआ।
इस कांड की सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिन सांसदों ने रिश्वत ली है,उनके खिलाफ हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते।क्योंकि संविधान के अनुच्छेद-105-2 उसमें बाधक है।
संसद को चाहिए था कि उस अनुच्छेद में संशोधन करती।पर नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया।
नब्बे के दशक में ही जैन हवाला रिश्वत कांड सामने आया।
कम्युनिस्टों को छोड़ दें तो यह लगभग वह सर्वदलीय घोटाला था।
इसलिए किसी के खिलाफ कुछ नहीं हुआ।
सांसद क्षेत्र विकास फंड ने राजनीति के साथ -साथ ब्यूरोक्रेसी को भी भ्रष्ट कर दिया है।
अपवादों को छोड़कर इस फंड से कमीशन के बिना कोई काम नहीं होता।इस फंड को समाप्त करने के अनेक प्रयास विफल ही रहे।
बिहार के आई.ए.एस.अफसरों के बारे में केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एन.सी.सक्सेना ने 1998 में बिहार सरकार के मुख्य सचिव को भेजे अपने नोट में कहा था कि ‘बिहार के बड़े अफसरों और उगाही करने वाले नेताओं ,इंस्पेक्टरों और बाबुआंे में फर्क करना असंभव हो गया है।’
सक्सेना की यह टिप्पणी अन्य कितने राज्यों के मामले में सच है,यदि इसकी उच्चस्तरीय जांच करवा कर केंद्र सरकार तभी कार्रवाई करती तो आज जो दिन देखने पड़ रहे हैं,शायद न देखने पड़ते।
फिर तो घोटालों-महा घोटालों की बाढ़ सी आ गई।
अन्ना हजारे का आंदोलन भी उस बाढ़ को नहीं रोक सका।
बाढ़ के बाद अक्सर महामारी आती है।वही आई हुई है।
देखना है कि वह कैसे और कब थमती है !!
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--मेरे इस लेख का संपादित अंश आज के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित।
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