पितृपक्ष में माता-पिता की याद
.............................................................
आप इसे मेरा अंध विश्वास मान सकते हैं।
पर,यह तो मेरे साथ घटित हुआ है !
जब तक मेरे परिवार ने गया में पिंडदान नहीं किया,
तब तक मेरे बाबू जी अक्सर मेरे सपनों में आते थे।
पिंडदान के बाद नहीं आते।
गया का बहुत महत्व है ।बताते हैं कि राम-सीता ने अपने पूर्वज की आत्मा की शांति के लिए गंया में पिंडदान किया था।
खैर, इस अवसर पर कुछ दूसरी बातें भी।
मैंने इसके साथ लगे अपने माता-पिता के चित्र के साथ उस समय का अपना एक छोटा फोटो भी दिया है ।यह तब का है जब मैंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास किया था।उस पर बाबू जी मुझसे बहुत खुश थे।
बाबू जी मुझे जूनियर इंजीनियर बनाना चाहते थे।
पर मेरी लाइन अलग थी।इसलिए बाद में मुझसे निराश हुए।
उनकी इच्छा के अनुसार मेरे छोटे भाई नागेंद्र ने पटना विश्व विद्यालय के लाॅॅ कालेज से
कानून की डिग्री ली।
बड़े भाई को मुजफ्फर पुर में पृथ्वीनाथ त्रिपाठी के घर रखकर पढ़ाने की कोशिश की।
पर उनके लगातार अस्वस्थ रहने के कारण उनकी पढ़ाई अधूरी रह गई।
त्रिपाठी जी बहुत ही अच्छे शिक्षक थे।बी.बी.कालेजिएट स्कूल के प्राचार्य थे।
मेरे ही गांव के थे।मेरे बाबू जी के देास्त थे।
यानी अपनी संतान को शिक्षित बनाने की एक किसान की तीव्र इच्छा देखिए।
अपनी जमीन बेच कर शिक्षा पर खर्च किया।आने वाले जमाने का उन्हें पूर्वानुमान था।
जमींदारी जा चुकी थी।समय बदल रहा था।
आजाद भारत में शिक्षा का महत्व बढ़ा रहा था।
बाबू जी लंबे-चैड़े कसरती शरीर के स्वामी थे।बातचीत में दबंग थे।
लघुत्तम जमींदार थे।एक बड़े जमींदार के तहसीलदार भी थे।
उनका जन्म 1898 और निधन 1986 में हुआ।
मेरे जन्म के समय बाबू जी 22 बीघा जमीन के मालिक थे।
स्कूल में पढ़ने लगा तो देखा कि घर में दो नौकर
दो गाय,दो या तीन बैल ,एक भैंस रहते थे।
सघन आबादी वाले सारण जिले में इतनी जमीन-जायदाद होने पर हमारे आसपास के गांवों के अन्य किसान संतुष्ट थे।
खेत बेच कर अपने बच्चों को पढ़ाने के बारे में उन लोगों ने सोचा भी नहीं।
उल्टे वे मेरे बाबू जी के इस काम को अदूरदर्शी मानते थे।
पर,अब जब कभी गांव जाता हूं तो देखता हूं कि हमारे बराबर जमीन के मालिक की हम उम्र संतान आज भी किसानी करती है और अच्छी हालत में नहीं हैं।
एक बार मेरे एक स्कूल सहपाठी गया राय ने कहा कि तू लोग त पहले भी जमींदार थे और पढ़ाई -लिखाई के कारण अब भी जमींदार हो।
इस तुलनात्मक अध्ययन से लगता है कि मेरे बाबू जी कितने दूरदर्शी थे।
यदि वैसा नहीं होते तो हम भी आज गांव में किसानी ही कर रहे होते।
किसानी की हालत यह है कि हमारे सामूहिक परिवार का एक सदस्य यानी मेरा भतीजा जो गांव पर रहता है,वह सारी जमीन में खेती नहीं कर पाता।क्योंकि अधिक खेती यानी अधिक घाटा।
अब भी हमारे संयुक्त परिवार के पास बेच -बाच कर दस-ग्यारह बीघा जमीन बची है।
पर जो हैं,सब पक्की सड़क पर है।
यानी बाबू जी की अन्य बातों के साथ -साथ शिक्षा के प्रति उनकी तीव्र लालसा की याद आती है।
इस कहानी का मेारल यह है कि अभिभावकों को चाहिए कि वे तकलीफ उठाकर भी अपने बच्चों को शिक्षित जरुर करें।
--सुरेंद्र किशोर--27 सितंबर 2019
.............................................................
आप इसे मेरा अंध विश्वास मान सकते हैं।
पर,यह तो मेरे साथ घटित हुआ है !
जब तक मेरे परिवार ने गया में पिंडदान नहीं किया,
तब तक मेरे बाबू जी अक्सर मेरे सपनों में आते थे।
पिंडदान के बाद नहीं आते।
गया का बहुत महत्व है ।बताते हैं कि राम-सीता ने अपने पूर्वज की आत्मा की शांति के लिए गंया में पिंडदान किया था।
खैर, इस अवसर पर कुछ दूसरी बातें भी।
मैंने इसके साथ लगे अपने माता-पिता के चित्र के साथ उस समय का अपना एक छोटा फोटो भी दिया है ।यह तब का है जब मैंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास किया था।उस पर बाबू जी मुझसे बहुत खुश थे।
बाबू जी मुझे जूनियर इंजीनियर बनाना चाहते थे।
पर मेरी लाइन अलग थी।इसलिए बाद में मुझसे निराश हुए।
उनकी इच्छा के अनुसार मेरे छोटे भाई नागेंद्र ने पटना विश्व विद्यालय के लाॅॅ कालेज से
कानून की डिग्री ली।
बड़े भाई को मुजफ्फर पुर में पृथ्वीनाथ त्रिपाठी के घर रखकर पढ़ाने की कोशिश की।
पर उनके लगातार अस्वस्थ रहने के कारण उनकी पढ़ाई अधूरी रह गई।
त्रिपाठी जी बहुत ही अच्छे शिक्षक थे।बी.बी.कालेजिएट स्कूल के प्राचार्य थे।
मेरे ही गांव के थे।मेरे बाबू जी के देास्त थे।
यानी अपनी संतान को शिक्षित बनाने की एक किसान की तीव्र इच्छा देखिए।
अपनी जमीन बेच कर शिक्षा पर खर्च किया।आने वाले जमाने का उन्हें पूर्वानुमान था।
जमींदारी जा चुकी थी।समय बदल रहा था।
आजाद भारत में शिक्षा का महत्व बढ़ा रहा था।
बाबू जी लंबे-चैड़े कसरती शरीर के स्वामी थे।बातचीत में दबंग थे।
लघुत्तम जमींदार थे।एक बड़े जमींदार के तहसीलदार भी थे।
उनका जन्म 1898 और निधन 1986 में हुआ।
मेरे जन्म के समय बाबू जी 22 बीघा जमीन के मालिक थे।
स्कूल में पढ़ने लगा तो देखा कि घर में दो नौकर
दो गाय,दो या तीन बैल ,एक भैंस रहते थे।
सघन आबादी वाले सारण जिले में इतनी जमीन-जायदाद होने पर हमारे आसपास के गांवों के अन्य किसान संतुष्ट थे।
खेत बेच कर अपने बच्चों को पढ़ाने के बारे में उन लोगों ने सोचा भी नहीं।
उल्टे वे मेरे बाबू जी के इस काम को अदूरदर्शी मानते थे।
पर,अब जब कभी गांव जाता हूं तो देखता हूं कि हमारे बराबर जमीन के मालिक की हम उम्र संतान आज भी किसानी करती है और अच्छी हालत में नहीं हैं।
एक बार मेरे एक स्कूल सहपाठी गया राय ने कहा कि तू लोग त पहले भी जमींदार थे और पढ़ाई -लिखाई के कारण अब भी जमींदार हो।
इस तुलनात्मक अध्ययन से लगता है कि मेरे बाबू जी कितने दूरदर्शी थे।
यदि वैसा नहीं होते तो हम भी आज गांव में किसानी ही कर रहे होते।
किसानी की हालत यह है कि हमारे सामूहिक परिवार का एक सदस्य यानी मेरा भतीजा जो गांव पर रहता है,वह सारी जमीन में खेती नहीं कर पाता।क्योंकि अधिक खेती यानी अधिक घाटा।
अब भी हमारे संयुक्त परिवार के पास बेच -बाच कर दस-ग्यारह बीघा जमीन बची है।
पर जो हैं,सब पक्की सड़क पर है।
यानी बाबू जी की अन्य बातों के साथ -साथ शिक्षा के प्रति उनकी तीव्र लालसा की याद आती है।
इस कहानी का मेारल यह है कि अभिभावकों को चाहिए कि वे तकलीफ उठाकर भी अपने बच्चों को शिक्षित जरुर करें।
--सुरेंद्र किशोर--27 सितंबर 2019
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें