मुद्दों का ईंधन हो तो वंशवाद की गाड़ी भी चल सकती है।
चली भी है।पर, इसके लिए कांग्रेस के नये अध्यक्ष राहुल गांधी को कुछ इंदिरा गांधी से सीखना होगा तो कुछ राजीव गांधी से।
पर, सबसे अधिक सीखने की जरूरत उन्हें पिछले कुछ वर्षों की राजनीतिक घटनाओं से है जिनके कारण कांग्रेस पार्टी लगातार चुनाव हारती जा रही है।
इस काम में ए. क.े एंटोनी कमेटी की रपट राहुल गांधी के कुछ काम आ सकती है।
सन 1969 में जब कांग्रेस पार्टी में महा विभाजन हुआ था तो तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के पास न तो लोक सभा में बहुमत बचा था और न ही उनके पास सांगठनिक मजबूती बची थी।विभाजन के बाद कांग्रेस @आर@इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली पार्टी थी तो कांग्रेस@संगठन@का नेतृत्व एस.निजलिंगप्पा कर रहे थे।अधिक सांसद इंदिरा जी के साथ जरूर थे,पर कांग्रेस का अधिकांश परंपरागत संगठन, कांग्रेस @संगठन @के पास रहा। पर उस विपरीत परिस्थिति में भी इंदिरा गांधी ने कुछ गरीब पक्षी और
सामंत विरोधी सरकारी कदम उठा कर अपनी ताकत बढ़ा ली।जनता में भी और संगठन में भी।
इसी तरह जब भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ा तो राजीव गांधी ने 1983 में कांग्रेस महा सचिव की हैसियत से उन तीन कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों को पद से हटवा दिया जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे थे।
इसके बाद वे ‘मिस्टर क्लिन’ कहलाए।उनके प्रति जनता का आकर्षण बढ़ा।सन 1984 में प्रधान मंत्री बनने के बाद राजीव ने ‘सत्ता के दलालों’ के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई।
यह और बात है कि बाद के दिनों में वे खुद घोटालों की चपेट में आ गए।
इधर राहुल गांधी ने ऐसे वक्त में कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभाला है जब कांग्रेस का जहाज डूबता नजर आ रहा है।
पहले तो राहुल गांधी को इस बात का पता लगाना पड़ेगा कि जहाज आखिर डूब क्यों रहा है।कारणों के बारे में पार्टी न तो अभी स्पष्ट है, न ही वास्तविकता की धरातल पर है।
ए. के. एंटोनी कमेटी ने अपनी रपट में कांग्रेस की एक खास समस्या की ओर तो इशारा किया ही है।वह समस्या है एकतरफा ‘सेक्युलरिज्म’ का ओवर डोज।
दूसरी समस्या मन मोहन सिंह के प्रधान मंत्रित्व काल की है।यानी घोटाला -दर -घोटाला के आरोप और उस छवि से पार्टी को मुक्त करने की समस्या।
आम धारणा है कि मुख्यतः इन दो बिंदुओं पर भाजपा ने चुनावों में कांग्रेस को पराजित किया है।
इन मामलों को ठीक करने से शुरूआत करके राहुल गांधी की नयी टीम कांग्रेस की गाड़ी को गति में ला सकती है।
अभी जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं,वहां की सरकारें भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो सहनशीलता की नीति अपनाए तो पुरानी छवि से खुद को मुक्त होने की शुरूआत कांग्रेस कर सकती है।
सरकारें साबित करें कि उनकी राज्य सरकारें भाजपा शासित राज्य सरकारों से अधिक ईमानदार हैं।
क्या ऐसा हो पाएगा ?
पिछले दाग धोने के लिए यह तो करना ही पड़ेगा।
2014 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की अभूतपूर्व पराजय के बाद पार्टी ने उसके कारणों की जांच के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.के.एंटानी के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन किया था।
उस कमेटी ने अन्य बातों के अलावा यह महत्वपूर्ण बात कही कि ‘अल्पसंख्यकों से कांग्रेस की निकटता से आम लोगों को कांग्रेस की धर्म निरपेक्षता की प्रामाणिकता को लेकर शंका हुई है।’
तब केरल कांग्रेस के अध्यक्ष वी.एम.श्रीधरण ने भी कहा था कि केरल में कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनके कारण कांग्रेस की धर्म निरपेक्षता के बारे में शंका हुई है।
एंटोनी समिति की रपट आने पर कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय महा
सचिव डा. शकील अहमद ने कहा था कि एंटोनी साहब की रपट पर हम लोग विचार करेंगे।
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
गुजरात चुनाव को लेकर जो कुछ घटनाएं हुर्इं,उनको देख कर भी ऐसा लगा कि कांग्रेस ने एंटोनी समिति की रपट पर कोई ध्यान ही नहीं दिया।
अन्यथा कांग्रेस पार्टी भारत विरोधी होने के आरोपों से घिरे सलमान निजामी को गुजरात के चुनाव -प्रचार में नहीं लगाती।
मणि शंकर अययर के आवास पर पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री को भोज दिए जाने की घटना ने भी कांग्रेस की प्रामाणिक धर्म निरपेक्षता को लेकर प्रचार करने का मौका भाजपा को दे दिया।
अब नये कांग्रेस अध्यक्ष इन मामलों में कैसा रुख अपनाते हैं,उस बात पर यह निर्भर करेगा कि कांग्रेस को वे कितनी जल्दी फिर से एक ताकतवर दल बनाना चाहते हैं।
याद रहे कि अनके लोगों का यह मानना है कि लोकतंत्र की बेहतरी के लिए कांग्रेस का मजबूत होना जरूरी है।
कांग्रेस अब भी एक ऐसी पार्टी है जिसकी शाखाएं लगभग पूरे देश में हैं।
समाजवादी विचारक मधु लिमये ने 1995 में अपने निधन से पहले लिखा था कि ‘सुधरी हुई कांग्रेस ही विविधताओं से भरे इस देश को बेहतर ढंग से चला सकती है।’
सन 1969 में इंदिरा गांधी अकेली ही थीं जिन्होंने अपने ताकतवर राजनीतिक विरोधियों को मात दे दी।
1977 की ऐतिहासिक पराजय के कुछ ही महीनों बाद इंदिरा गांधी कर्नाटका के चिक मंगलूर से लोक सभा का उप चुनाव जीत कर संसद में पहुंच गयी थीं।तब यह यह नारा लगा था,‘ एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर चिकमंगलूर।’
इंदिरा के कुछ राजनीतिक तरीकों की चर्चा यहां मौजूं होगी।
इंदिरा गांधी ने 1971 के लोकसभा चुनाव में मुद्दों के आधार पर ही कांग्रेस को भारी जीत दिलाई थी। हालांकि इंदिरा गांधी भी वंशवाद की ही उपज थीं। 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष बनवाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने आजाद भारत की राजनीति में वंशवाद की ठोस नींव डाल दी थी। अन्य दलों ने बाद में उनका ही अनुसरण किया।
पर, प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने भी समझ लिया था कि वह सिर्फ अपने पिता का नाम ले-लेकर राजनीति में बहुत दिनों तक टिक नहीं सकतीं।
यथास्थितिवादी बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं से छुटकारा पाने के लिए इंदिरा गांधी ने 1969 में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा उछाल दिया। उन्होंने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार समाप्त कर दिये। इससे आम जनता के एक बड़े हिस्से को यह भरोसा हो गया कि इंदिरा जी उनकी गरीबी जरूर हटाएंगीं।नतीजतन उन्होंने अपने बूते
1971 के लोक सभा चुनाव में बहुमत हासिल कर लिया जो बहुमत 1969 के महा विभाजन के बाद समाप्त हो गया था।वह कम्युनिस्टों और डी.एम.के. की मदद से इस बीच सरकार चला रही थीं।
यानी रणनीति सही व सटीक हो तो कांग्रेस को एक बार फिर ताकतवर बनाना असंभव काम नहीं।वैसे कांग्रेस को इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि 2019 के लोक सभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी सरकार भी कुछ ऐसे चमत्कारी काम कर सकती है जिससे राजग के वोट बढ़ सकते हैें।
@ 16 दिसंबर 2017 को फस्र्टपोस्ट हिंदी पर प्रकाशित मेरा लेख@
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