सोमवार, 25 दिसंबर 2017

बदल जाएगी राजनीति


  बिहार में अब ‘लालू शैली’ की राजनीति कमजोर होगी।यह गरीब राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण  विकास है।यह राजनीतिक विकास
कुछ लोगों के लिए तो सकारात्मक होगा तो कुछ अन्य लोगों के लिए नकारात्मक । जिन्हें लालू शैली से अब तक लाभ हुआ है, वे उदास होंगे। लालू प्रसाद के खिलाफ रांची अदालत के ताजा फैसले के बाद यह स्थिति पैदा हुई है।
‘लालू शैली’ की राजनीति को जारी रखने के लिए खुद लालू प्रसाद की बिहार में उपस्थिति जरूरी है।लालू शैली क्या है, यह राजनीति का क ख ग जानने वाले जानते हैं।
 चारा घोटाले में इस दूसरी सजा के बाद लालू प्रसाद के लिए अब जेल से बाहर आना कठिन है।
कानून विशेषज्ञ बताते हैं कि एक बार से अधिक सजा पाए सजायाफ्ता को आम तौर पर जमानत नहीं मिलती।उसे अपनी सजा पूरी करनी पड़ती है। 
   लालू प्रसाद ने  अपने छोटे पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव को अपना उत्तराधिकारी बना दिया है।तकनीकी तौर पर पार्टी में उनकी ही बात चलनी चाहिए।पार्टी के नेता और कार्यकत्र्ता तो उसे  ही मानेंगे जिनकी पीठ पर  लालू प्रसाद का हाथ होगा।पर लालू परिवार में कई अन्य महत्वपूर्ण हस्तियां भी हैं।लालू प्रसाद की अनुपस्थिति में सबके बीच तालमेल बना कर रखने की चुनौती रहेगी।
  जानकार लोग बताते हैं कि यह कोई मामूली चुनौती नहीं है।
 इसलिए पार्टी के भीतर व विधायका में रोज ब रोज के काम कैसे सुचारू रूप से राजद चलाएगा,यह देखना दिलचस्प होगा।
   उधर  जदयू से संबंध -विच्छेद के बाद राजद बिहार की राजनीति में लगभग अकेला पड़ गया है।यह अकेलापन अब अस्थायी नहीं लगता।क्योंकि नीतीश कुमार अब भाजपा का साथ नहीं छोड़ेंगे।क्योंकि उनकी फिलहाल कोई अखिल भारतीय महत्वाकांक्षा नहीं  है।
राजद का  कांग्रेस से तालमेल बना रहेगा।भाजपा विरोेध के नाम पर कम्युनिस्ट भी राजद के साथ आ सकते हैं।पर उनकी ताकत बहुत कम है।
 यानी राजद अब किसी मजबूत गठबंधन का अगुआ नहीं रहेगा।
 लालू प्रसाद जेल से बाहर होते तो पार्टी और गठबंधन को मजबूत करने की कोशिश कर सकते थे।
 यानी कोई कमजोर पार्टी या गठबंधन अपनी पुरानी ‘लालू शैली’ की राजनीति नहीं चला सकती।लालू शैली की राजनीति तो लालू ही चला सकते थे।
  इधर इस दूसरी सजा के बाद लालू प्रसाद व राजद कितना कमजोर या मजबूत होकर उभरता है,यह देखना महत्वपूर्ण होगा।राजद तो दावा कर रहा है कि अब राजद अधिक मजबूत होगा।क्योंकि अदालत ने डा.जगन्नाथ मिश्र को रिहा कर दिया और लालू को सजा दे दी।इसका संदेश पिछड़ी जनता में जरूर जाएगा।
 हालांकि सन् 1996 में चारा घोटाले के प्रकाश में आने के बाद से ही लालू प्रसाद का जन समर्थन लगातार घटता चला गया है।इस बीच कभी उनके दल की सीटें बढ़ीं भी तो वह चुनावी गठबंधन में शामिल सहयोगी दलों के सहयोग के बल पर न कि राजद की खुद की ताकत के कारण।सजा तो 2013 में हुई।जन समर्थन पहले ही घटना शुरू हो चुका था।
  सन 2013 में लालू प्रसाद को चारा घोटाला मामले में  पहली बार सजा हो जाने के बाद राजद का जन समर्थन और भी घट गया।
इस बार की सजा के बाद इस फैसले का राजनीतिक असर क्या होता है,यह देखना महत्वपूर्ण  होगा।
वैसे  सामाजिक स्तर एम.वाई.- गठबंधन आम तौर पर लालू प्रसाद के दल के साथ ही रहेगा।हालांकि सिर्फ एम -वाई यानी मुस्लिम -यादव गठजोड़ बिहार में किसी राजनीतिक दलीय गठबध्ंान को सत्ता दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं है।यह गठबंधन अन्य समुदायों में प्रतिक्रिया भी पैदा जरूर करता है।जहां भाजपा मुकाबले में हो ,तब तो यह और भी अधिक।
 लालू  परिवार में लालू के राजनीतिक उत्तराधिकार की समस्या राजद को आगे भी परेशान करती रहेगी।वैसे  लालू प्रसाद ने अपने जिस  पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव को अपना उत्तराधिकारी  घोषित  किया है, वे  अपेक्षाकृत अधिक योग्य भी हैं।
  लालू प्रसाद कभी बिहार की राजनीति के महा बली थे।  मंडल आरक्षण विवाद की पृष्ठभूमि में लालू  के दल को 1991 के लोक सभा चुनाव में बिहार में  54 में से 31 सीटें मिली थीं।उनके सहयोगी दलों को भी कुछ सीटें मिली थीं।उन दिनों लगभग पूरा पिछड़ा समुदाय लालू के साथ था।
सन् 1990 में जब लालू प्रसाद मुख्य मंत्री बने थे तब उनके दल यानी जनता दल को बिहार विधान सभा में बहुमत प्राप्त नहीं  था।
भाजपा ने  बहुमत की कमी को पूरा किया था।तब केंद्र में भी वी.पी.सिंह की सरकार भाजपा और कम्युनिस्ट के समर्थन से ही चल रही थी।
  पर 1995 के  चुनाव में लालू प्रसाद को अकेले  विधान सभा में बहुमत मिल गया।इसका पूरा श्रेय सिर्फ लालू को मिला था।यह ताकत उन्हें इस बात से आई क्योंकि उन्होंने कमजोर वर्ग यानी पिछड़ों को  सीना तान कर चलना सिखाया था।पर उस काम के साथ- साथ  लालू दूसरे  कामों में भी लग गए थे जो उनके लिए सकारात्मक नहीं रहा।
  लोक सभा चुनाव 1996 में हुआ था।उसमें भी बिहार में लालू के दल को 22 सीटें मिलीं। 1998 के लोक सभा चुनाव में भी लालू दल को 17 सीटें मिल गयी थीं।
 पर राजद  को 1999 के लोक सभा चुनाव सिर्फ 7 सीटें मिलीं।यानी जन समर्थन का क्षरण शुरू हो गया था।
इस बीच 1997 में चारा घोटाले में विचाराधीन कैदी के रूप में लालू पहली बार जेल भी जा चुके थे।
   सन 2000 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू के दल को खुद का बहुमत नहीं मिला।पर कांग्रेस के समर्थन से राबड़ी देवी मुख्य मंत्री बनीं।
याद रहे कि जेल जाने से पहले 1997 में ही लालू अपनी जगह अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्य मंत्री बनवा चुके थे।
1997 में पार्टी भी टूट चुकी थी।
1994 में उनसे नीतीश कुमार अलग होकर समता पार्टी बना चुके थे।
बाद में समता पार्टी और शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल का आपस में विलय हो गया।जदयू बना ।इस दल ने भाजपा से तालमेल करके बिहार में लालू के खिलाफ एक मजबूत विकल्प खड़ा कर दिया।
  सन 2004 में राम विलास पासवान के साथ गठबंधन बना कर लालू प्रसाद लोक सभा की 22 सीटें जीत चुके थे।पर सन 2005 के बिहार विधान सभा चुनाव में  लालू के दल के हाथों से सत्ता निकल गयी। 2005 में नीतीश कुमार भाजपा के समर्थन से मुख्य मंत्री बने।
बीच में कुछ महीनों के लिए जीतन राम मांझी को नीतीश ने मुख्य मंत्री बनवा दिया था।पर बाद में खुद नीतीश मुख्य मंत्री बन गए।
 2015 के  विधान सभा चुनाव में कांग्रेस और नीतीश के साथ गठबंधन के कारण लालू को विधान सभा में सबसे अधिक सीटें यानी 80 सीटें जरूर मिल गयी,पर वे सीटें  लालू की ताकत को प्रतिबिंबित नहीं करती।
अब लालू प्रसाद का दल नीतीश कुमार के जदयू से अलग हैं।
अब उन्हें किसी अगले चुनाव में कितनी सीटें मिलती  हैं, यह देखना बाकी है।
सन 2010 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू और राम विलास पासवान मिल कर चुनाव लड़े थे।
उस चुनाव में इन्हें 243 सीटों में से सिर्फ 25 सीटें मिली थीं।इसे एक संकेतक माना जा सकता है।
अब दूसरी बार सजायाफ्ता होने पर उनका जन समर्थन कितना घटता या बढ़ता है ,यह देखना दिलचस्प होगा।इस बार एक और फर्क आया है।लगभग पूरा लालू परिवार कानूनी परेशानियों में है।
वैसे 2010 की अपेक्षा एक सकारात्मक फर्क जरूर आया है । कांग्रेस अब लालू के साथ मजबूती से रहेगी।
@  25 दिसंबर 2017 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित मेरा लेख @
  


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