शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

गलत मुकदमे की जल्दी सुनवाई से खुश होते हैं आरोपित


यदि किसी के खिलाफ निराधार  मुकदमे कायम  कर दिए जाएं तो वह खुद ही चाहता है कि उस मुकदमे की सुनवाई शीघ्र हो जाए ।ऐसे में उसे अदालत से राहत की उम्मीद होती है।साथ ही वह नाहक बदनामी से बचता है।
पर अगर बात इसके उलट हो तो आरोपित चाहते हैं कि मुकदमा लंबा खिंचे। इस बीच गवाह दिवंगत हो जाएं।सबूत कमजोर कर दिए जाएं।जांच अधिकारी  को अन्य तरह से प्रभावित कर लिया जाए।
कुछ सांसदों और विधायकों के खिलाफ जारी मुकदमों के मामले में भी यही हो रहा है।
हालांकि कुछ अन्य सांसद-विधायक चाहते हैं कि उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे की सुनवाई जल्द पूरी हो जाए
ताकि दाग शीघ्र मिट सके।
  पर हाल में  कांग्रेस और सपा के सदस्यों ने राज्य सभा में सवाल उठाया कि सांसदों-विधायकों के खिलाफ चल रहे मुकदमों की त्वरित सुनवाई के लिए  12 विशेष अदालतें गठित क्यों की जा रही है ?
 सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2009 में छह विशेष अदालतांे  के गठन का आदेश दिया था ताकि गुजरात दंगों के आरोपितों के खिलाफ मुकदमों की सुनवाई शीघ्र हो सके।
  तब विशेष अदालतें बनी भी।अन्य लोगों के साथ- साथ उस विशेष अदालत से  माया कोडनानी को भी सजा हुई।कोडनानी गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार की राज्य मंत्री थीं जब गुजरात में दंगा हुआ था।उन पर दंगा कराने का आरोप था।
तब कांग्रेस या किसी अन्य दल ने  यह नहीं कहा कि विशेष अदालतों का गठन सिर्फ दंगा के मामलों के लिए नहीं होना चाहिए बल्कि देश के सभी मुकदमों के लिए होना चाहिए।
  पर   पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने जब कहा कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित मामलोंं की जल्द सुनवाई के लिए विशेष अदालतें बने तो कांग्रेस और सपा विरोध में उठ खड़ी हुई।
सपा के नरेश अग्रवाल ने गत मंगलवार को राज्य सभा में कहा कि ‘अदालत संविधान नहीं बदल सकती ।’
अग्रवाल से सवाल है कि  गुजरात दंगों के लिए विशेष अदालतों के गठन के लिए संविधान बदला गया था ?
 राज्य सभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजादी ने कहा कि अदालतों का गठन सिर्फ सांसदों-विधायकों के लिए ही नहीं बल्कि 
सभी नागरिकों के लिए होना चाहिए।
गुलाम नबी केंद्र में ंमंत्री रह चुके हैं।वे जानते हैं कि सरकार के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वह सभी 3 करोड़ मुकदमों के लिए विशेष अदालतें बना पाएगी।यानी उनका तर्क है कि 
 सबके लिए विशेष अदालतें बनने   तक सांसदांे-विधायकों के लिए अदालतों के गठन का काम रुका रहे।जानकार लोग समझते हैं कि ऐसे तर्क क्यों दिए जाते हैं।  
--सांसदों-विधायकों के मामलों की 
सुनवाई में देरी जानबूझ कर --
सुप्रीम कोर्ट ने गत 1 नवंबर को केंद्र सरकार से कहा कि वह सांसदों-विधायकों पर चल रहे मुकदमों की शीघ्र सुनवाई के लिए विशेष न्यायालय गठित करे।
इस संबंध में अगले छह सप्ताह में केंद्र सरकार हमारे यहां प्रस्ताव पेश करे।
 केंद्र सरकार ने 12 विशेष अदालतों का प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट में पेश भी कर दिया।अब उस पर काम शुरू होने वाला है।
  इस प्रस्ताव पर मिली जुली -प्रतिक्रिया देखी जा रही है।
जिन जन प्रतिनिधियों पर निराधार या मामूली आरोपों के तहत वर्षों से मुकदमे चल रहे हैं, वे विशेष अदालत की खबर से खुश हैं।
उन्हें इस झंझट या बदनामी से शीघ्र मुक्ति की उम्मीद जो है।
पर जिन जन प्रतिनिधियों के खिलाफ गंभीर आरोप हैं और उन्हें सजा होने और उनके राजनीतिक जीवन समाप्त होने का खतरा है,वे मुकदमे को अनंत काल तक लटकाए रखना चाहते हैं।
याद रहे कि देश के 1581 सासंदों और विधायकों के खिलाफ विभिन्न धाराओं में मुकदमे चल रहे हैं।इन में से कई मुकदमे तो दशकों से चल रहे हैं।
  राजनीति में घुसे अपराधियों के खिलाफ मुकदमे भी चलते हैं और वे अपराधी अगला अपराध भी करते जाते हैं।यदि आपराधिक छवि का व्यक्ति जन प्रतिनिधि हो तो वह अपने इलाकों में अन्य अनेक अपराधियों का संरक्षणदाता भी बन जाता है।
इससे न सिर्फ एक बड़े इलाके की कानून -व्यवस्था खराब होती है बल्कि रंगदारी वसूली के कारण विकास कार्य भी प्रभावित होते हैं।
इसीलिए सामान्य अपराधियेां और वैसे आरोपितों में फर्क है जो जन प्रतिनिधि भी बन गए हैं।
पर इस फर्क को समझने के लिए कुछ कांग्रेस व सपा नेता तैयार ही नहीं है।
हालांकि सब समझते हैं कि वे ऐसा क्यों करते हैं।
  मुफस्सिल पत्रकारों की सुरक्षा----
आए दिन मुफस्सिल पत्रकारों को धमकी दिए जाने और उन पर हमले की खबरें आती रहती हैं।  
कभी -कभी उनकी हत्या भी हो जाती है।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि बिहार में सरजमीनी पत्रकारिता करने वाले ऐसे संवाददाताओं की सुरक्षा को लेकर चिंता करने का समय आ गया है।बिहार सरकार ने हाल में राज्य सभा के पूर्व सदस्यों के लिए सुरक्षा की व्यवस्था करने का निर्णय किया है।
 संवाददाताओं के काम का महत्व देखते हुए पत्रकारों की सुरक्षा के लिए भी सरकार को कुछ करना चाहिए। कम से कम जो पत्रकार अपनी जान पर खतरा महसूस करें, उनको निशुल्क सुरक्षाकर्मी मुहैया कराने के बारे में राज्य सरकार को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
 ----- राजनीति में आदर्श उदाहरण--
जदयू से अपने वैचारिक मतभेद के कारण एम.पी. वीरेंद्र कुमार ने पार्टी छोड़ दी और हाल में राज्य सभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया।
वीरेंद्र कुमार केरल से राज्य सभा में जदयू के सदस्य थे।
उनका कार्यकाल 2022 तक का था।इसके बावजूद ऐन केन प्रकारेण सदस्य बने रहने के लिए उन्होंने कोई बहाना नहीं ढूंढ़ा।
बल्कि  उन्होंने मशहूर समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव की राह चुनी।
 आदर्शवादी आचार्य ने जब 1947 में कांग्रेस छोड़ने का निर्णय किया तो उन्होंने अपने करीब एक दर्जन साथियांे के साथ उत्तर प्रदेश विधान सभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया था।
 याद रहे कि आजादी के बाद कांग्रेस ने कह दिया था कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोग दोनों दलों में एक साथ नहीं रह सकते।वे कोई एक पार्टी चुन लें।आजादी की लड़ाई के दिनों कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेता व कवर्यकत्र्ता कांग्रेस के भीतर ही रह कर आजादी की लड़ाई में  सक्रिय थे।आचार्य जी के साथ साथ जेपी और लोहिया भी कांसोपा में ही थे। 
   आचार्य जी को कुछ नेताओं ने कहा था कि उप चुनाव में आप लोग हार जाएंगे।क्योंकि कांग्रेस की हवा है।
 आचार्य जी ने कहा कि भले हम हार जाएं,पर अब मैं उस दल में नहीं हूं जिस दल ने मुझे विधायक बनाया था।इसलिए सदन से इस्तीफा दूंगा।
वहीं हुआ ।उप चुनाव में इस्तीफा दे चुके 12 उम्मीदवारों में से सिर्फ एक व्यक्ति जीते ।पर आचार्य जी को इसका कोई अफसोस नहीं था।  
       ------और अंत में---
छात्र जीवन में  एक दफादार से मेरा परिचय कराया गया था।
साढ़े छह फुट लंबा ,रोबीला और कड़ी मूंछों  वाला दफादार था वह ।जब ‘दफादार साहब’ चले गए तो परिचय कराने वाले
ने बताया कि अंग्रेजों के जमाने में यह एक  डाकू था।
पर यह आदमी अपना पुराना धंधा छोड़ना चाहता था।पुलिस महकमे को  पता चला तो इसे दफादार बना दिया गया।जब से दफादार बना है, इलाके में शांति हैं।क्योंकि छोटे चोर और डाकू सब इससे डरते हैं।
  आज बिहार के गांवों में अपराध की जो स्थिति है,उसमें पुराने रोबिले चैकीदार -दफादार याद आते हैं।
वह व्यवस्था अब लगभग टूट चुकी है।
साथ ही अपराधियों और दबंग लोगों पर सामाजिक दबाव कम हो गया है।
 उधर आपराधिक छवि के राजनीतिककर्मियों ने स्थानीय बदमाशों को संरक्षण दे रखा है।
 इस स्थिति से निपटने के लिए अंग्रेजों के जमाने के कुछ फार्मूलों  को आजमाया जा सकता है।
@ 22 दिसंबर 2017 के प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरे  कानोंकान काॅलम से@       

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