देश के नामी पत्रकार और समाजवादी विचारक राज किशोर
ने ‘राष्ट्रीय सहारा’ में अपने साप्ताहिक काॅलम ‘परत दर परत’ में राम जन्म भूमि मंदिर-मस्जिद विवाद पर कल निम्न लिखित बातें लिखी हैं।
उनका लेख तो लंबा है और उसमें पूरी पृष्ठभूमि का संक्षिप्त विवरण है।
पर, राज किशोर ने अपने लेख के अंत में देशहित में महत्वपूर्ण सुझाव दिए हंै जो इस प्रकार हंै--
‘ मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार विकल्प अब दो ही हैं।एक न्यायिक समाधान का है।लेकिन यह रास्ता कंटीला है।कोर्ट में बहस मंदिर-मस्जिद पर नहीं , इस पर होगी कि विवादित जमीन पर मालिकाना हक किसका है।
यहां बाबरी मस्जिद का पक्ष मजबूत दिखाई पड़ता है,तब हिंदुओं की ओर से देशव्यापी उपद्रव का नया सिलसिला शुरू हो सकता है।
तब हमें बहुसंख्यकवाद का तांडव देखने को मिलेगा।
इसलिए दूसरा विकल्प ही व्यावहारिक है कि मुसलमान स्वेच्छा से विवादग्रस्त भूमि हिंदूवादियों को दे दें।
इसे समर्पण या अपमान का मामला न माना जाए।मुसलमान उदारता दिखाएंगे तो उनकी प्रशंसा ही होगी।
बेशक हिंदूवादी इसे उदारता के रूप में नहीं लेंगे।
विजय दिवस मनाएंगे,लेकिन मुसलमानों को जहर का घूंट इसलिए निगल लेना चाहिए कि पूरा देश हिंदूवादी नहीं हुआ है।
मेरा मानना है कि भारत की व्यापक जनता मुसलमानों की उदारता से बहुत प्रभावित होगी जिससे राम मंदिर अभियान की हवा निकल जाएगी।
कभी -कभी झुक जाना भी बुद्धिमानी होती है।इसलिए यह प्रयोग करके देखने में कोई हर्ज नहीं।’
कई साल पहले खुशवंत सिंह ने भी इसी तरह का सुझाव दिया था।उन्होंने कहा था कि दावा किया जाता है कि मध्य काल में इस देश के करीब 4000 मंदिरों को तोेड़कर वहां मस्जिदें बनायी गयीं।
दिवंगत सिंह के अनुसार हिंदुओं को 3997 मस्जिदों पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए।उधर मुसलमान पक्ष काशी ,मथुरा और अयोध्या के मामले में हिंदुओं को सहूलियत दें।
पर ऐसा नहीं हो सका।हालांकि संघ परिवार के कुछ सदस्य यह कह चुके हैं कि उन्हें सिर्फ राम मंदिर से मतलब है,काशी-मथुरा से नहीं।जब कि काशी का ज्ञानवापी मस्जिद ,मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाने का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
यह भी कहा जाता है कि यदि खुशवंत की बात मान ली गयी होती तो आज भाजपा की केंद्र में बहुमत वाली सरकार नहीं होती।
क्या इस मामले में विभिन्न पक्षों की जिद के पीछे कोई अन्य बड़ा कारण या उद्देश्य है ? पता नहीं !
ने ‘राष्ट्रीय सहारा’ में अपने साप्ताहिक काॅलम ‘परत दर परत’ में राम जन्म भूमि मंदिर-मस्जिद विवाद पर कल निम्न लिखित बातें लिखी हैं।
उनका लेख तो लंबा है और उसमें पूरी पृष्ठभूमि का संक्षिप्त विवरण है।
पर, राज किशोर ने अपने लेख के अंत में देशहित में महत्वपूर्ण सुझाव दिए हंै जो इस प्रकार हंै--
‘ मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार विकल्प अब दो ही हैं।एक न्यायिक समाधान का है।लेकिन यह रास्ता कंटीला है।कोर्ट में बहस मंदिर-मस्जिद पर नहीं , इस पर होगी कि विवादित जमीन पर मालिकाना हक किसका है।
यहां बाबरी मस्जिद का पक्ष मजबूत दिखाई पड़ता है,तब हिंदुओं की ओर से देशव्यापी उपद्रव का नया सिलसिला शुरू हो सकता है।
तब हमें बहुसंख्यकवाद का तांडव देखने को मिलेगा।
इसलिए दूसरा विकल्प ही व्यावहारिक है कि मुसलमान स्वेच्छा से विवादग्रस्त भूमि हिंदूवादियों को दे दें।
इसे समर्पण या अपमान का मामला न माना जाए।मुसलमान उदारता दिखाएंगे तो उनकी प्रशंसा ही होगी।
बेशक हिंदूवादी इसे उदारता के रूप में नहीं लेंगे।
विजय दिवस मनाएंगे,लेकिन मुसलमानों को जहर का घूंट इसलिए निगल लेना चाहिए कि पूरा देश हिंदूवादी नहीं हुआ है।
मेरा मानना है कि भारत की व्यापक जनता मुसलमानों की उदारता से बहुत प्रभावित होगी जिससे राम मंदिर अभियान की हवा निकल जाएगी।
कभी -कभी झुक जाना भी बुद्धिमानी होती है।इसलिए यह प्रयोग करके देखने में कोई हर्ज नहीं।’
कई साल पहले खुशवंत सिंह ने भी इसी तरह का सुझाव दिया था।उन्होंने कहा था कि दावा किया जाता है कि मध्य काल में इस देश के करीब 4000 मंदिरों को तोेड़कर वहां मस्जिदें बनायी गयीं।
दिवंगत सिंह के अनुसार हिंदुओं को 3997 मस्जिदों पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए।उधर मुसलमान पक्ष काशी ,मथुरा और अयोध्या के मामले में हिंदुओं को सहूलियत दें।
पर ऐसा नहीं हो सका।हालांकि संघ परिवार के कुछ सदस्य यह कह चुके हैं कि उन्हें सिर्फ राम मंदिर से मतलब है,काशी-मथुरा से नहीं।जब कि काशी का ज्ञानवापी मस्जिद ,मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाने का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
यह भी कहा जाता है कि यदि खुशवंत की बात मान ली गयी होती तो आज भाजपा की केंद्र में बहुमत वाली सरकार नहीं होती।
क्या इस मामले में विभिन्न पक्षों की जिद के पीछे कोई अन्य बड़ा कारण या उद्देश्य है ? पता नहीं !
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