सरदार पटेल ने 1948 में उप प्रधान मंत्री पद
से अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी थी।
इस संबंध में दुःखी मन से उन्होंने गांधी जी को 12 जनवरी 1948 को पत्र लिखा था।
पर गांधी की मंजूरी नहीं मिलने के कारण वह इस्तीफा नहीं दे सके। सरदार बल्लभ भाई पटेल गांधी युग के वैसे कुछ नेताओं में शामिल थे जो सिर्फ सत्ता सुख भोगने के लिए नहीं बल्कि अपने सिद्धांतों पर अड़े रहते हुए जन सेवा के लिए सरकार में जाते थे।
किसी कारणवश यदि वे जन सेवा नहीं कर पाते थे तो उनका पद खुद उन्हें बोझ लगने लगता था।
सरदार पटेल ने गांधी जी को लिखा कि ‘काम का बोझ इतना अधिक है कि उसे उठाते हुए मैं दबा जा रहा हूंं।
मैं समझ चुका हूं कि अब और अधिक समय तक बोझ उठाने से देश का भला नहीं होगा,बल्कि इसके विपरीत देश का नुकसान होगा।’
उन्होंने लिखा कि ‘जवाहर लाल पर और भी अधिक बोझ है।उनके हृदय में दर्द जमा हो रहा है।मेरी आयु के कारण मैं उनका बोझ हल्का करने में सहायक नहीं हो पाऊंगा।
मौलाना@अबुल कलाम आजाद@मेरे कार्य से नाखुश हैं तथा मुझे यह विचार सहन नहीं हो पा रहा कि हर बार आपको मेरा बचाव करना पड़े।
इन परिस्थितियों में यदि मुझे शीघ्र मुक्त कर दें तो इससे मेरा और देश का भला होगा।
पटेल ने लिखा कि मैं वत्र्तमान में जिस ढंग से काम कर रहा हूं,उससे भिन्न रूप से कार्य नहीं कर सकता।
यदि मैं पद नहीं छोड़ता हूं और आंख बंद कर इससे चिपका रहता हूं तो लोग यह सोचेंगे कि मैं सत्ता सुख के लिए ऐसा कर रहा हूं।
ऐसी स्थिति में मुझे मुक्ति दिलाई जानी चाहिए।मैं जानता हूं कि आपके उपवास के समय इन बातों पर विचार नहीं किया जा सकता।
लेकिन मैं आपका उपवास समाप्त करने में सहायक नहीं हो पा रहा हूं।
इसलिए मैं किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो रहा हूं।
यदि आप शीघ्र उपवास समाप्त कर दें और इस संबंध में
निर्णय करें तो आपके उपवास के कारण भी दूर हो जाएंगे।
13 जनवरी से 18 जनवरी 1948 तक गांधी जी का उपवास जारी रहा।विभिन्न समुदायों में शांति कायम करने की जरूरत पर जोर डालने के लिए गांधी जी ने उपवास किया था।
जब दोनों पक्षों के लोगों ने शांति का भरोसा दिया तो उन्होंने उपवास खत्म कर दिया।
देश के बंटवारे की तनावपूर्ण व हिंसक पृष्ठभूमि में उन दिनों के अधिकतर लोग जहां गांधी जी के उपवासों को तोड़वाने की कोशिश में लगे थे,वहीं कुछ लोग यह भी नारा लगा रहे थे कि ‘गांधी को मरने दो।’
वैसे ही लोगों ने 20 जनवरी 1948 को गांधी की प्रार्थना सभा के पास बम फोड़ा और 30 जनवरी को तो उनकी हत्या ही कर दी।
सांप्रदायिक उपद्रवों से निपटने के तरीके के सवाल पर केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी मतभेद था।
शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद और उप प्रधान मंत्री सह गृह मंत्री सरदार पटेल आमने -सामने थे।
विभिन्न मुददों पर पटेल की अपनी अलग राय रहती थी।
अपनी राय से अलग हट कर वे गद्दी से चिपके नहीं रहना चाहते थे।इसीलिए उन्होंने इस्तीफे की पेशकश की थी।
सवाल है कि आज के किसी बड़े नेता को ऐसी समस्या
झेलनी पड़ती जो पटेल को झेलनी पड़ी थी तो उस स्थिति में आज के सत्ताधारी नेता क्या करते ?
इस सवाल पर सोचिए और बदली हुई राजनीति पर थोड़ी देर के लिए चिंतन कर लीजिए।
उसके बाद पटेल के बड़प्पन का अनुमान लग जाएगा।
--सुरेंद्र किशोर
@ फस्र्टपोर्ट हिंदी-से अक्तूबर 2017 @
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