चारा घोटाले में लालू प्रसाद को सजा और जगन्नाथ मिश्र की रिहाई को लेकर इन दिनों एक बार फिर एक खास तरह का विमर्श जारी है।
इसमें महत्वपूर्ण मुद्दा दफा और सजा की अवधि का नहीं है
।सवाल तो तब भी उठ जाता है कि जब कोई नेता एक दिन के लिए भी जेल जाता है।वह कहता है कि वह किसी खास जाति या समुदाय का है, इसीलिए उसे जेल भेजा गया।पहले के लुटेरों को क्यों नहीं भेजा गया ?
यह कहने से मुख्य मुद्दे को दरकिनार करने में उसे सुविधा होती है।फिर अपने इर्दगिर्द जाति का किला बना लेने से राजनीति सुरक्षित हो जाती है।
साठ के दशक में बिहार के एक स्वतंत्रता सेनानी को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने की नौबत आई।उन्होंने एक ठेकेदार से 75 हजार रिश्वत तब ले ली थी जब वह मंत्री थे।
उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाना मंजूर नहीं हुआ। लाज आई। स्वतंत्रता आंदोलन में वह शान से कई बार जेल जा चुके थे।पर भ्रष्टाचार में जेल जाने से बचने के लिए सत्तर के दशक में उन्होंने जहर खाकर अपनी जान दे दी।पर उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं किसी खास जाति का हूं इसीलिए मुझे नाहक फंसा दिया गया।
याद रहे कि उन दिनों भी राजनीति में जातीय वैमनस्य रहता था।
वह आसानी से प्रतिद्वंद्वी जाति पर आरोप लगा सकते थे।
अब जमाना बदल गया है।अब पीडि़त होने का बहाना बनाने से वोट बढ़ने की संभावना होती है।बढ़ती है या नहीं यह अलग बात है।
ऐसा ही सवाल लोक सभा में उठाते हुए मैंने नब्बे के दशक में सबसे पहले झामुमो के एक सांसद को टी.वी.पर तब देखा था जब झामुमो सांसद रिश्वत कांड सामने आया था।
उस सांसद ने कहा था कि जब आजादी के बाद से ही ऊंची जाति के लोग इस देश को लूट रहे थे तो इतना हंगामा क्यों नहीं हो रहा था ? अब हम कुछ कर रहे हैं तो बड़ा हंगामा हो रहा है।
उन्हीं दिनों किसी ने कहा था कि नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य के.डी.मालवीय ने जब रिश्वत ली तो भी बहुत हंगामा हुआ। मालवीय मंत्रिमंडल से निकाल बाहर किए गए थे।
दूसरी बार नब्बे के दशक में शरद यादव ने तब यह सवाल उठाया था जब लालू प्रसाद पर चारा घोटाले का आरोप लगा था।शरद ने मांग की थी कि 1952 से अब तक जिसने भी नाजायज संपत्ति बनाई है, लालू के साथ- साथ उनकी भी जांच होनी चाहिए।
अब तो कुछ लोग बड़े जोर से कह रहे हैं कि अदालती फैसलों में जातीय तत्व हावी है। इसीलिए लालू को सजा मिल रही है और जगन्नाथ मिश्र छूट जा रहे हैं।
पर दूसरे जवाब दे रहे हैं कि ब्राह्मण जय ललिता को सजा मिल रही है और दलित ए.राजा और पिछड़ी जाति की कनिमोझी देाषमुक्त हो जाते हैं।
सुशील मोदी कह रहे हैं कि चारा घोटाले में जिन 16 लोगों को 23 दिसंबर को रांची अदालत ने सजा दी ,उनमें आधे सवर्ण हैं ।
जैन हवाला केस में इस देश के जितने नेता आरोपी बनाये गये थे,उनमें कम्युनिस्ट दल छोड़ कर लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेता शामिल थे।सभी जातियों के थे।सजा होती तो सबको होती।पर जांच एजेंसी की कृपा से सब बच गए।
चारा घोटाला भी उसी तरह लगभग सर्व दलीय घोटाला है और सर्वजातीय भी ।विभिन्न मुकदमों में सजा भी सभी जातियों के आरोपित पा रहे हैं।
दूसरी ओर यू.पी. के दो गैर सवर्ण नेताओं पर अरबों की निजी संपत्ति जुटाने का आरोप है।पर वे एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए। दूसरी ओर पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री मतंग सिंह जेल में हैं।शेयर घोटालेबाज हर्षद मेहता जेल में ही मर गया।
देश में इस तरह के अनेक उदाहरण हंै।ऐसा नहीं है कि संवैधानिक संस्थाओं तथा अन्य जगह जातीय तथा सांप्रदायिक भावनाएं काम नहीं करतीं।पर सब कुछ उसी से तय नहीं होता।अपवादों की बात और है।
जब अदालतें तीन स्तरीय हैं तो उसमें इसकी गुंजाइश कम है।
अब देश के लोगों को तय करना है कि ऐसे विमर्श में उनकी क्या राय है। इससे न्यायपालिका की इज्जत बढ़ रही है या सरकार के खजाने की रक्षा हो रही है ? यह देश कहां जा रहा है ?
यदि पहले किसी जाति के महा प्रभुओं ने इस देश को लूटा तो उसी आधार पर अन्य जातियों के लोगों को बारी -बारी से सत्ता में आ -आ कर उतना ही या उससे भी अधिक लूट लेने का अधिकार मिल जाता है ? इतने साधन इस देश के खजाने में है ?
क्या ऐसी लूट और अराजकता की छूट सबको मिल जाएगी तो लोकतंत्र बचेगा ? यदि बारी -बारी से लूट के कारण जब सेना के लोगों को तनख्वाह पर आफत आएगी तो सेना वाले क्या करेंगे ?वे देश की रक्षा कैसे करेंगे ?
इसमें महत्वपूर्ण मुद्दा दफा और सजा की अवधि का नहीं है
।सवाल तो तब भी उठ जाता है कि जब कोई नेता एक दिन के लिए भी जेल जाता है।वह कहता है कि वह किसी खास जाति या समुदाय का है, इसीलिए उसे जेल भेजा गया।पहले के लुटेरों को क्यों नहीं भेजा गया ?
यह कहने से मुख्य मुद्दे को दरकिनार करने में उसे सुविधा होती है।फिर अपने इर्दगिर्द जाति का किला बना लेने से राजनीति सुरक्षित हो जाती है।
साठ के दशक में बिहार के एक स्वतंत्रता सेनानी को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने की नौबत आई।उन्होंने एक ठेकेदार से 75 हजार रिश्वत तब ले ली थी जब वह मंत्री थे।
उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाना मंजूर नहीं हुआ। लाज आई। स्वतंत्रता आंदोलन में वह शान से कई बार जेल जा चुके थे।पर भ्रष्टाचार में जेल जाने से बचने के लिए सत्तर के दशक में उन्होंने जहर खाकर अपनी जान दे दी।पर उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं किसी खास जाति का हूं इसीलिए मुझे नाहक फंसा दिया गया।
याद रहे कि उन दिनों भी राजनीति में जातीय वैमनस्य रहता था।
वह आसानी से प्रतिद्वंद्वी जाति पर आरोप लगा सकते थे।
अब जमाना बदल गया है।अब पीडि़त होने का बहाना बनाने से वोट बढ़ने की संभावना होती है।बढ़ती है या नहीं यह अलग बात है।
ऐसा ही सवाल लोक सभा में उठाते हुए मैंने नब्बे के दशक में सबसे पहले झामुमो के एक सांसद को टी.वी.पर तब देखा था जब झामुमो सांसद रिश्वत कांड सामने आया था।
उस सांसद ने कहा था कि जब आजादी के बाद से ही ऊंची जाति के लोग इस देश को लूट रहे थे तो इतना हंगामा क्यों नहीं हो रहा था ? अब हम कुछ कर रहे हैं तो बड़ा हंगामा हो रहा है।
उन्हीं दिनों किसी ने कहा था कि नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य के.डी.मालवीय ने जब रिश्वत ली तो भी बहुत हंगामा हुआ। मालवीय मंत्रिमंडल से निकाल बाहर किए गए थे।
दूसरी बार नब्बे के दशक में शरद यादव ने तब यह सवाल उठाया था जब लालू प्रसाद पर चारा घोटाले का आरोप लगा था।शरद ने मांग की थी कि 1952 से अब तक जिसने भी नाजायज संपत्ति बनाई है, लालू के साथ- साथ उनकी भी जांच होनी चाहिए।
अब तो कुछ लोग बड़े जोर से कह रहे हैं कि अदालती फैसलों में जातीय तत्व हावी है। इसीलिए लालू को सजा मिल रही है और जगन्नाथ मिश्र छूट जा रहे हैं।
पर दूसरे जवाब दे रहे हैं कि ब्राह्मण जय ललिता को सजा मिल रही है और दलित ए.राजा और पिछड़ी जाति की कनिमोझी देाषमुक्त हो जाते हैं।
सुशील मोदी कह रहे हैं कि चारा घोटाले में जिन 16 लोगों को 23 दिसंबर को रांची अदालत ने सजा दी ,उनमें आधे सवर्ण हैं ।
जैन हवाला केस में इस देश के जितने नेता आरोपी बनाये गये थे,उनमें कम्युनिस्ट दल छोड़ कर लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेता शामिल थे।सभी जातियों के थे।सजा होती तो सबको होती।पर जांच एजेंसी की कृपा से सब बच गए।
चारा घोटाला भी उसी तरह लगभग सर्व दलीय घोटाला है और सर्वजातीय भी ।विभिन्न मुकदमों में सजा भी सभी जातियों के आरोपित पा रहे हैं।
दूसरी ओर यू.पी. के दो गैर सवर्ण नेताओं पर अरबों की निजी संपत्ति जुटाने का आरोप है।पर वे एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए। दूसरी ओर पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री मतंग सिंह जेल में हैं।शेयर घोटालेबाज हर्षद मेहता जेल में ही मर गया।
देश में इस तरह के अनेक उदाहरण हंै।ऐसा नहीं है कि संवैधानिक संस्थाओं तथा अन्य जगह जातीय तथा सांप्रदायिक भावनाएं काम नहीं करतीं।पर सब कुछ उसी से तय नहीं होता।अपवादों की बात और है।
जब अदालतें तीन स्तरीय हैं तो उसमें इसकी गुंजाइश कम है।
अब देश के लोगों को तय करना है कि ऐसे विमर्श में उनकी क्या राय है। इससे न्यायपालिका की इज्जत बढ़ रही है या सरकार के खजाने की रक्षा हो रही है ? यह देश कहां जा रहा है ?
यदि पहले किसी जाति के महा प्रभुओं ने इस देश को लूटा तो उसी आधार पर अन्य जातियों के लोगों को बारी -बारी से सत्ता में आ -आ कर उतना ही या उससे भी अधिक लूट लेने का अधिकार मिल जाता है ? इतने साधन इस देश के खजाने में है ?
क्या ऐसी लूट और अराजकता की छूट सबको मिल जाएगी तो लोकतंत्र बचेगा ? यदि बारी -बारी से लूट के कारण जब सेना के लोगों को तनख्वाह पर आफत आएगी तो सेना वाले क्या करेंगे ?वे देश की रक्षा कैसे करेंगे ?
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