शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

बिहार के सभी गांवों में बिजली एक युगांतरकारी घटना-----


 उपेक्षित दाना पुर दियारे के गांवों  के लोग इन दिनों बहुत खुश हैं।राज्य के अन्य गांवों के साथ-साथ उनके यहां भी बिजली पहुंच गयी है।इतनी जल्दी वे इसकी उम्मीद नहीं कर रहे थे।
पर यदि केंद्र और राज्यों में काम करने वाली सरकारें हों,तो कुछ भी असंभव नहीं ।मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने 2012 में ही कह दिया था कि यदि बिजली  की स्थिति सुधार नहीं सकूंगा तो अगली बार वोट मांगने नहीं आऊंगा।उनका वायदा पूरा हुआ।अब उपभोक्ताओं पर निर्भर है कि वे अपनी जिम्मेदारी निभाते जाएं।
  यानी, राज्य सरकार तो इस काम में लगी हुई थी ही,इस बीच केेंद्र की मोदी सरकार ने भी बिजलीकरण की गति तेज कर दी। इसका श्रेय केंद्र सरकार को मिल रहा है।
याद रहे कि 15-20 साल पहले तक बिहार के अधिकतर गांवों और छोटे नगरों -बाजारों तक लोग बिजली के लिए तरसते थे।
  कुछ  साल पहले तक किसी ने इसकी कल्पना तक नहीं की थी कि इतनी जल्द  बिहार के सभी गांवों में बिजली पहुंच जाएगी।
सामान्य गांवों की बात कौन कहे, अब तो उपेक्षित दियारे के लोग भी बिजली का उपभोग कर रहे हैं। दियारे के गांवों में बिजली का प्रवेश  एक ‘मिनी क्रांति’ की तरह है।
अपने गांव जाने के रास्ते में  मैं कई बार दाना पुर दियारा होते हुए दिघवारा तक गया हूं।
 देख कर मन में यह विचार आता था कि इतनी अधिक और उपजाऊ जमीन का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है।
बिजली पहुंचने के बाद अब इसकी संभावना बढ़ी है।
सिर्फ बेहतर सड़कों की अभी वहां कमी रह गयी है।बुनियादी सुविधाओं से वंचित दियारे के अनेक लोग आसपास के शहर -बाजार में जाकर बस गए हैं।बिजली आने के बाद अब उनमें से कुछ लोग घर वापसी की योजना बना रहे हैं,ऐसी खबर मिल रही है।
घर वापसी का अपना ही सुख है।
 सड़क-बिजली उपलब्ध हो तो दियारे के मेहनती लोग वहां अपने बल पर भी  परिवततर््न ला सकते हैं।बिजली सड़क तो विकास के इंजन है।
कहा जाता है कि ‘अमेरिका ने सड़कें बनायीं और सड़कों ने अमेरिका को बना दिया।’
  राजनीतिक कर्मियों के लिए पेंशन-----
देश की सभी भाजपा शासित राज्य सरकारें उन लोगों के लिए पेंशन 
देने की योजना बना रही हंै जो 1975-77 के आपातकाल में जेलोें में बंद थे।
हालांकि बिहार सहित दो-तीन  राज्यों में पहले से ही यह सुविधा मिल रही है।
इस संबंध में मेरी यह राय रही है कि ऐसे उन सभी राजनीतिक कर्मियों के लिए पेंशन की व्यवस्था होनी  चाहिए चाहे वे जिस किसी दल के हों।
 इससे  सांसद-विधायक फंड के ठेकेदारों का दबदबा राजनीति में घटेगा।
 कुछ राजनीतिक दल धन्नासेठों से अरबों रुपए का चंदा लेते हैं।उनके कुछ नेता चार्टर प्लेन से चलते हैं।उन चंदों का किसी को हिसाब तक नहीं देते।पर उनके ईमानदार कार्यकत्र्ता सौ -दो सौ रुपए के लिए तरसते हैं।
 या तो वे अपने घर से पैसे खर्च करें या फिर दलाली से पैसे कमाएं।
ये अमीर दल हर जिले में अपने कुछ चुने हुए कार्यकत्र्ताओं को पार्टी फंड से गुजारा भत्ता क्यों नहीं देते ?
   राजनीतिक कार्यकत्ताओं की जिम्मेदारी---  
जदयू के एम.एल.सी. डा.रणवीर नंदन ने अपने दल के कार्यकत्र्ताओं 
से अपील की है कि वे लोक शिकायत निवारण कानून को जन सेवा का अपना हथियार बनाएं।
लोगों को बताएं कि इस कानून से किस तरह लोगों को राहत पहुंचायी जा सकती है।
 यह एक अच्छी सलाह है।
ऐसे कामों से खुद कार्यकत्र्ताओं का सम्मान बढ़ता है।
जब मैं राजनीतिक कार्यकत्र्ता था तो यह काम किया करता था।
सन 1969 में मैंने अपने गांव के छह भूमिहीनों को बासगीत का परचा दिलवाया था।
अपने गांव में ऐसा काम थोड़ा कठिन होता है।पर चूंकि उसमें से एक भूमिहीन को  मेरी खुद की  जमीन का परचा मिला था,इसलिए कोई विरोध नहीं हुआ।याद रहे कि उन दिनों कुछ प्रतिपक्षी दल  अपने कार्यकत्र्ताओं को ऐसा काम करने का निदेश देते थे।
  सत्ताधारी जदयू के लोग इस काम में लगें तो आम लोगों को और भी राहत मिलेगी।
सरकारी घूसखारों पर जन दबाव नहीं है,इसलिए आम लोग परेशान रहते हैं।ऐसी परेशानी को राजनीतिक कार्यकत्र्ता दूर करा सकते हैं।
       एक भूली -बिसरी  याद ----
इन दिनों न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की खूब चर्चा हो रही है।
पर इसके लिए कौन अधिक जिम्मेदार है ?
खुद न्यायपालिका या राजनीतिक कार्य पालिका ?
इस का जवाब एक खास प्रकरण से मिल जाता है।
वह प्रकरण है जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ महा भियोग का प्रकरण।
 रामास्वामी के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे।
10 मई 1993 को लोक सभा में सोम नाथ चटर्जी ने महाभियोग प्रस्ताव पेश किया था।
कपिल सिबल ने लोक सभा में रामास्वामी के बचाव में छह घंटे तक बहस की।
   11 मई 1993 को  महाभियोग प्रस्ताव इसलिए गिर गया क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने सदन में चर्चा के दौरान उपस्थित रहते हुए भी मतदान में भाग ही नहीं लिया। प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 196 मत पड़े। ध्यान देने लायक बात यह रही कि महाभियोग प्रस्ताव के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा।यानी जिन सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया,वे लोग भी रामास्वामी के पक्ष में खड़े होने का नैतिक साहस नहीं रखते थे।जबकि कांग्रेस ने यह कहते हुए मतदान के लिए कोई व्हीप जारी नहीं किया था कि ऐसे मामले में लोक सभा को अर्ध न्यायिक निकाय के रूप में काम करना पड़ता है और सदस्योें की हैसियत जज की होती है।ऐसे में जजों को व्हीप के रूप में निदेश कैसे दिया जा सकता है।बेहतर हो कि कांग्रेस के सदस्य अपने विवेक के अनुसार ही मतदान करें।
पर जज का रूप लिए लोग भी खुद को कुछ और ही साबित कर गए।
   हां,सुप्रीम कोर्ट ने रामास्वामी के प्रति वही रुख नहीं अपनाया जैसा सत्ताधारी दल कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने अपनाया।इस अंतर पर गौर करिए।
  महाभियोग से बचने के बावजूद रामास्वामी के साथ सुप्रीम कोर्ट में कोई जज बेंच में बैठने को तैयार नहीं हुआ।
अंततः 14 मई 1993 को रामास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दे दिया। लोक सभा के स्पीकर के आग्रह पर न्यायाधीशों की ही कमेटी ने रामास्वामी के खिलाफ आरोपों की जांच की थी। 14 में से 11 आरोप सही पाए गए थे।उसके बाद ही सदन में महाभियोग प्रस्ताव आया था।वह आजाद भारत का पहला मौका था जब किसी जज को पद से हटाने के लिए संसद में प्रस्ताव आया था।
पर उस मौके को भी सत्ताधारी दल ने विफल कर दिया।यदि रामास्वामी को संसद के प्रस्ताव से हटा दिया जाता तो न्याय पालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काबू पाने में सुविधा होती।
  यह संयोग नहीं था कि उसे रामास्वामी ने 1999 में एडीएमके के टिकट पर लोक सभा का चुनाव लड़ा।यह भी संयोग नहीं है कि 
उस दल की सर्वोच्च नेता जय ललिता को भ्रष्टाचार के आरोप में सजा हुई थी।
  यानी राजनीति के बीच के भ्रष्ट लोग चाहते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार बना रहे ताकि वे जरूरत पड़ने पर उसका लाभ उठा सकें।  
    और अंत में----
   एन.सी.आर.इ.टी. के पूर्व निदेशक व प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो.कृष्ण कुमार ने अंततः दिल्ली छोड़ दी।
वे कई दशकों  से वहां थे।पर, बढ़ते प्रदूषण ने उन्हें दिल्ली छोड़ देने को मजबूर कर दिया।बिहार के गांवों के  विद्युतीकरण के बाद अब पटना के कुछ लोग भी इस प्रदूषित होते महा नगर को छोड़कर अपने पुश्तैनी गांव की स्वच्छ हवा में जाकर बस सकते हैं।
अब तक बिजली की अनुपस्थिति एक बड़ी समस्या रही है।बिहार में इस समस्या को पूरी तरह दूर करने का प्रयास जारी है।
हां,गांवों में कानून -व्यवस्था बेहतर करने की जरूरत है।
सड़क और बिजली में सुधार जारी रहा तो अच्छे स्कूल और अस्पताल भी देर- सबेर गांवों की ओर अपना रुख करेंगे। 
@ 29 दिसंबर, 2017 को प्रभात खबर-बिहार -में प्रकाशित मेरे कानोंकान काॅलम से@  
   




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