दहेजमुक्त शादी में जो कुछ खास तरह की समस्याएं आती हंै, आज मैं उनकी चर्चा करना चाहूंगा।
ऐसा नहीं है कि समाज के पास इन समस्याओं का हल नहीं है।
पर, शत्र्त यह है कि समाज के कुछ जन सेवी लोगों को थोड़ा समय देना होगा।
जातीय व सामाजिक संगठन इसमेें अच्छी भूमिका निभा सकते हैं।
कुछ तो निभाते भी हैं।पर, इसमें विस्तार की जरूरत है।
फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर राजपूत समुदाय में जो एकता देखी जा रही है, उस एकता का सदुपयोग ऐसे काम में हो सकता है।
मेरे छोटे भाई नागेंद्र सन 1976 में बिहार सरकार में श्रम प्रवत्र्तन पदाधिकारी पद पर नियुक्त हुए थे।एक तो सरकारी नौकरी,दूसरे अपनी खेती-बारी और तीसरे लड़के का प्रभावशाली व्यक्तित्व।
दहेज देने वालों की कमी नहीं थी।
पर, मेरा परिवार चाहता था कि हम दहेज के चक्कर में न पड़ें।अन्य बातों पर ध्यान दें।हमने 1979 में पटना जिले के बैकट पुर मंदिर में नागेंद्र की शादी आयोजित की।कोई दहेज नहीं ,कोई फालतू दिखावा नहीं।
अच्छी शादी हुई।परिवार व रिश्तेदार अच्छे मिले।
पर, उससे पहले मुझे 1978 में एक अजीब अनुभव हुआ। उन दिनों मैं दैनिक ‘आज’ के पटना ब्यूरो में काम करता था।एक विधि पदाधिकारी मेरे एक रिश्तेदार को लेकर मेरे आॅफिस में आए।आते ही उस पदाधिकारी ने मुझसे पूछा कि ‘आप भाई का कितना तिलक लीजिएगाा ?’
मैंने कहा कि हम लोग तिलक -दहेज नहीं लेते।
लड़की यदि पसंद आ जाएगी तो मुफ्त में शादी हो जाएगी।
वे चले गए।उन्होंने लौटते समय मेरे रिश्तेदार से कहा कि लगता है कि लड़के में कोई दोष है,इसीलिए यह आदमी दहेज नहीं मांग रहा है।
अब यहीं सामाजिक संगठन की भूमिका आती है।
संगठन ऐसे लोगों की सूची तैयार करें जो दहेजमुक्त और कम से कम खर्च में शादी करना चाहते हैं।
मैरिज एक्सचेंज बनाएं।दोनों पक्षों को मिलाएं।वैसे लोग कम मिलेंगे,पर मिलेंगे जरूर।
वैसी जातियों के समाजसेवी लोगों को यह काम पहले शुरू करना चाहिए जिन जातियों में दिखावे के लिए शादियों में अनाप -शनाप खर्च करने की परंपरा रही है।शादियों में फिजूलखर्ची के कारण कई परिवारों की आर्थिकी बिगड़ते मैंने देखा है।
एक और कठिनाई है।
यदि किसी लड़की वाले से कहिए कि हम मंदिर में शादी करना चाहते हैं तो वे कहेंगे कि लोग क्या कहेंगे ?
बारात हमारे दरवाजे पर आनी चाहिए।
ऐसी ही समस्या 1971 में कर्पूरी ठाकुर को भी झेलनी पड़ी थी।वे चाहते थे कि उनकी पुत्री की शादी देवघर मंदिर में हो,पर लड़की की मां की जिद पर शादी उनके गांव पितौझिया में हुई।
मेरी अपनी शादी 1973 में सोन पुर में हुई।मैं भी चाहता था कि शादी मंदिर में हो।पर मेरी भावी पत्नी के पिता की अपनी समस्या थी।
उनकी बड़ी लड़की की दहेजमुक्त आदर्श शादी मंदिर में हुई थी।
इस बार मेरी ससुराल वाले चाहते थे कि उनके घर बारात जाए।
मेरी शादी दहेज मुक्त होनी थी।इसलिए समस्या थी कि बारात का खर्च कहां से आएगा ?
मैंेने बाबू जी को साफ मना कर दिया था कि बारात सजाने के लिए जमीन नहीं बिकेगी।
हालांकि वे वैसा करने को तैयार थे।
उन्होंने कहा कि जब मेरे रिश्तेदार और मित्र-परिचित बारात में नहीं जाएंगे तो मैं भी नहीं जाऊंगा।उन्हें मैं कैसे छोड़ दूं ? तुम जाओ शादी कर लो।
मुझे कोई एतराज नहीं।
फिर क्या था ! मेरी शादी की ‘बारात’ में पटना लाॅ कालेज के मेरे सहपाठी, युवजन सभा के साथी और सोशलिस्ट नेता तथा आधा दर्जन विधायक थे ।मेरे दोनों भाई जरूर शादी में थे।कर्पूरी ठाकुर ने एक तरह से समधी की भूमिका निभाई।
रात में ही बारात के लोग पटना लौट आए।लगे हाथ बता दूं कि उसी साल मेरी अपनी शादी के कुछ ही दिन पहले मैं पटना के लाला लाजपत भवन में नीतीश कुमार के आदर्श विवाह में शामिल हुआ था।
मैंने अपने बड़े बेटे अमित की शादी भी उसी तरह से की।मेरे समधी उदय नारायण सिंह हजारीबाग में वकील हैं।
वे ही लोगों को बताते हैं कि ‘मुझसे सुरेंद्र जी ने कोई दहेज नहीं ली।’
मेरे छोटे पुत्र अनुपम ने मुम्बई के टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस से एम.एस.डब्ल्यू. किया है। उसने ‘नेट’ भी कर लिया है।इन दिनों वह रांची में एन. जी. ओ. में काम करता है।
उसने कहा है कि वह जब भी शादी करेगा, कोर्ट मैरिज ही करेगा।
कोई तामझाम नहीं।जाहिर है कि मुझे उसके फैसले पर गर्व है।
पर मेरा मानना है कि ऐसी शादियों के लिए जो भी और जहां भी तैयार हो, उन्हें समाज का बढ़ावा और सहयोग मिलना चाहिए ताकि ऐसे कदमों को सामाजिक स्वीकृति मिले।
जहां इस देश के अधिकतर सत्ताधारी नेताओं के यहां की शादियों में अत्यंत कीमती उपहारों की झरी लगा दी जाती है, वहीं बिहार के उप मुख्य मंत्री सुशील कुमार मोदी ने आज अपने पुत्र की दहेजमुक्त शादी करके मिसाल कायम की है।उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसी शादी से अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी।
@ --सुरेंद्र किशोर--3 दिसंबर 2017@
ऐसा नहीं है कि समाज के पास इन समस्याओं का हल नहीं है।
पर, शत्र्त यह है कि समाज के कुछ जन सेवी लोगों को थोड़ा समय देना होगा।
जातीय व सामाजिक संगठन इसमेें अच्छी भूमिका निभा सकते हैं।
कुछ तो निभाते भी हैं।पर, इसमें विस्तार की जरूरत है।
फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर राजपूत समुदाय में जो एकता देखी जा रही है, उस एकता का सदुपयोग ऐसे काम में हो सकता है।
मेरे छोटे भाई नागेंद्र सन 1976 में बिहार सरकार में श्रम प्रवत्र्तन पदाधिकारी पद पर नियुक्त हुए थे।एक तो सरकारी नौकरी,दूसरे अपनी खेती-बारी और तीसरे लड़के का प्रभावशाली व्यक्तित्व।
दहेज देने वालों की कमी नहीं थी।
पर, मेरा परिवार चाहता था कि हम दहेज के चक्कर में न पड़ें।अन्य बातों पर ध्यान दें।हमने 1979 में पटना जिले के बैकट पुर मंदिर में नागेंद्र की शादी आयोजित की।कोई दहेज नहीं ,कोई फालतू दिखावा नहीं।
अच्छी शादी हुई।परिवार व रिश्तेदार अच्छे मिले।
पर, उससे पहले मुझे 1978 में एक अजीब अनुभव हुआ। उन दिनों मैं दैनिक ‘आज’ के पटना ब्यूरो में काम करता था।एक विधि पदाधिकारी मेरे एक रिश्तेदार को लेकर मेरे आॅफिस में आए।आते ही उस पदाधिकारी ने मुझसे पूछा कि ‘आप भाई का कितना तिलक लीजिएगाा ?’
मैंने कहा कि हम लोग तिलक -दहेज नहीं लेते।
लड़की यदि पसंद आ जाएगी तो मुफ्त में शादी हो जाएगी।
वे चले गए।उन्होंने लौटते समय मेरे रिश्तेदार से कहा कि लगता है कि लड़के में कोई दोष है,इसीलिए यह आदमी दहेज नहीं मांग रहा है।
अब यहीं सामाजिक संगठन की भूमिका आती है।
संगठन ऐसे लोगों की सूची तैयार करें जो दहेजमुक्त और कम से कम खर्च में शादी करना चाहते हैं।
मैरिज एक्सचेंज बनाएं।दोनों पक्षों को मिलाएं।वैसे लोग कम मिलेंगे,पर मिलेंगे जरूर।
वैसी जातियों के समाजसेवी लोगों को यह काम पहले शुरू करना चाहिए जिन जातियों में दिखावे के लिए शादियों में अनाप -शनाप खर्च करने की परंपरा रही है।शादियों में फिजूलखर्ची के कारण कई परिवारों की आर्थिकी बिगड़ते मैंने देखा है।
एक और कठिनाई है।
यदि किसी लड़की वाले से कहिए कि हम मंदिर में शादी करना चाहते हैं तो वे कहेंगे कि लोग क्या कहेंगे ?
बारात हमारे दरवाजे पर आनी चाहिए।
ऐसी ही समस्या 1971 में कर्पूरी ठाकुर को भी झेलनी पड़ी थी।वे चाहते थे कि उनकी पुत्री की शादी देवघर मंदिर में हो,पर लड़की की मां की जिद पर शादी उनके गांव पितौझिया में हुई।
मेरी अपनी शादी 1973 में सोन पुर में हुई।मैं भी चाहता था कि शादी मंदिर में हो।पर मेरी भावी पत्नी के पिता की अपनी समस्या थी।
उनकी बड़ी लड़की की दहेजमुक्त आदर्श शादी मंदिर में हुई थी।
इस बार मेरी ससुराल वाले चाहते थे कि उनके घर बारात जाए।
मेरी शादी दहेज मुक्त होनी थी।इसलिए समस्या थी कि बारात का खर्च कहां से आएगा ?
मैंेने बाबू जी को साफ मना कर दिया था कि बारात सजाने के लिए जमीन नहीं बिकेगी।
हालांकि वे वैसा करने को तैयार थे।
उन्होंने कहा कि जब मेरे रिश्तेदार और मित्र-परिचित बारात में नहीं जाएंगे तो मैं भी नहीं जाऊंगा।उन्हें मैं कैसे छोड़ दूं ? तुम जाओ शादी कर लो।
मुझे कोई एतराज नहीं।
फिर क्या था ! मेरी शादी की ‘बारात’ में पटना लाॅ कालेज के मेरे सहपाठी, युवजन सभा के साथी और सोशलिस्ट नेता तथा आधा दर्जन विधायक थे ।मेरे दोनों भाई जरूर शादी में थे।कर्पूरी ठाकुर ने एक तरह से समधी की भूमिका निभाई।
रात में ही बारात के लोग पटना लौट आए।लगे हाथ बता दूं कि उसी साल मेरी अपनी शादी के कुछ ही दिन पहले मैं पटना के लाला लाजपत भवन में नीतीश कुमार के आदर्श विवाह में शामिल हुआ था।
मैंने अपने बड़े बेटे अमित की शादी भी उसी तरह से की।मेरे समधी उदय नारायण सिंह हजारीबाग में वकील हैं।
वे ही लोगों को बताते हैं कि ‘मुझसे सुरेंद्र जी ने कोई दहेज नहीं ली।’
मेरे छोटे पुत्र अनुपम ने मुम्बई के टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस से एम.एस.डब्ल्यू. किया है। उसने ‘नेट’ भी कर लिया है।इन दिनों वह रांची में एन. जी. ओ. में काम करता है।
उसने कहा है कि वह जब भी शादी करेगा, कोर्ट मैरिज ही करेगा।
कोई तामझाम नहीं।जाहिर है कि मुझे उसके फैसले पर गर्व है।
पर मेरा मानना है कि ऐसी शादियों के लिए जो भी और जहां भी तैयार हो, उन्हें समाज का बढ़ावा और सहयोग मिलना चाहिए ताकि ऐसे कदमों को सामाजिक स्वीकृति मिले।
जहां इस देश के अधिकतर सत्ताधारी नेताओं के यहां की शादियों में अत्यंत कीमती उपहारों की झरी लगा दी जाती है, वहीं बिहार के उप मुख्य मंत्री सुशील कुमार मोदी ने आज अपने पुत्र की दहेजमुक्त शादी करके मिसाल कायम की है।उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसी शादी से अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी।
@ --सुरेंद्र किशोर--3 दिसंबर 2017@
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