शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

इंदिरा ने कठोरता से ठुकरा दी थी पाक युद्ध बंदियों को छोड़ देने की बुद्धिजीवियों की अपील


           
बंगला देश युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने देश के कुछ शीर्ष बुद्धिजीवियों की इस अपील को कठोरतापूर्वक ठुकरा दिया था कि 93 हजार पाक युद्धबंदियों को जल्द रिहा कर दिया  जाए।
  लेखक व पत्रकार खुशवंत सिंह के नेतृत्व में बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधिमंडल इंदिरा गांधी से इस उद्देश्य से मिला था।खुशवंत सिंह तब चर्चित इलेस्ट्रेटेड वीकली आॅफ इंडिया के संपादक थे।
खुशवंत ने अपने संपादकीय कौशल से वीकली का सर्कुलेशन 60 हजार से बढ़ा कर 4 लाख कर दिया था।इसको लेकर उनका बड़ा दबदबा था।
पर इंदिरा ने उस दबदबे की परवाह नहीं की।
इदिरा गांधी से उस मुलाकात का विवरण खुद खुशवंत सिंह ने ईमानदारी से लिखा है।
 उनके अनुसार ‘एक मुलाकात के दौरान मैंने इंदिरा गांधी का गरम मिजाज देखा।मैं पाकिस्तानी युद्धबंदियों की रिहाई की मांग करने एक प्रतिनिधि मंडल लेकर उनके पास गया था।प्रतिनिधिमंडल में अमेरिका में हमारे भूतपूर्व राजदूत गगन विहारी मेहता, प्रसिद्ध उर्दू लेखक कृशन चंदर और ख्वाजा अहमद अब्बास थे।
    खुशवंत सिंह ने लिखा कि मैं उनसे कुछ कहूं, उसके पहले ही इंदिरा जी ने तपाक से मुझे कहा ‘मिस्टर सिंह, आपने पाकिस्तान के युद्धबंदियों के बारे में जो लिखा है ,वह सरकार के लिए अत्यधिक परेशानी का सबब बना है।’
मैंने भी तपाक से जवाब दिया,‘यही तो मेरा उद्देश्य था।
मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने आपकी सरकार को परेशानी में डाला।’
इस पर इंदिरा गांधी ने बड़ी तिक्तता से खुशवंत से कहा कि ‘आप अपने को शायद महान संपादक मानते हैं,पर आपको राजनीति का क ख ग नहीं मालूम।’ खुशवंत का जवाब था, ‘मैं मानता हूं कि मैं राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानता।लेकिन नैतिकता के बारे में जरूर जानता हूं।जो नैतिक दृष्टि से गलत है , वह राजनीतिक दृष्टि से सही कैसे हो सकता है ?’
  इस पर  इंदिरा जी ने कहा कि ‘उपदेश के लिए धन्यवाद !’
यह कहते हुए प्रधान मंत्री ने खुशवंत की ओर से मुंह फेर लिया।
 अब गगन विहारी  की बारी थी।
वयोवृद्ध मेहता बोलना शुरू ही कर रहे थे कि श्रीमती गांधी ने बड़ी रुखाई से उन्हें टोकते हुए कहा कि ‘मैं आपसे कुछ भी सुनना नहीं चाहता।मुझे आपके अमेरिका समर्थक दृष्टिकोण का पता है।’
इस पर बूढ़े गगन विहारी ने अपने को अत्यधिक अपमानित महसूस किया।
कृशन चंदर और अब्बास की बातों पर तो उन्होंने कोई ध्यान ही नहीं दिया।मशहूर काॅलम लेखक और फिल्म निर्माता अब्बास ने भी मेहता की तरह ही महसूस किया।
  पर वह इंदिरा गांधी ही थीं जो किसी तरह के दबाव में नहीं आने वाली थीं।बंगला देश युद्ध को लेकर जब वह अमेरिका के दबाव में नहीं आईं तो किसी और का कितना महत्व था ?
याद रहे कि 1971 के बंगला देश मुक्ति संग्राम के समय अमेरिका ने अपनी नेवी का सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी में उतार दिया था।
तब यह कहा गया था कि उसका उद्देश्य पूर्वी पाकिस्तान से अमेरिकी नागरिकों को निकालना था।
पर, 2011 में मिले गुप्त अमेरिकी दस्तावेज से यह पता चला कि निक्सन सरकार का उद्देश्य भारतीय सेना को निशाना बनाना था।
इसके बावजूद इंदिरा सरकार ने बंगला देश को आजाद करा ही दिया।
जुलाई, 1972 में भारत-पाक के बीच शिमला समझौता हुआ।
उस समझौते के जरिए पाक राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत सरकार के साथ शांति कायम रखने  का आश्वासन दिया था।
इस द्विपक्षीय समझौते से भारत सरकार ने यह धारणा बनाई थी कि 
इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ का वह प्रस्ताव निरस्त हो गया है जिसमें कश्मीर में जनमत संगंह कराने की बात कही गयी थी।
  यह और बात है कि भुट्टो ने बाद में समझौते की धज्जियां उड़ा दी और अपना वादा नहीं निभाया।हालांकि 93 हजार युद्ध बंदी शिमला समझौते के बाद ही रिहा किए जा सके थे।
 यदि इस देश के कुछ बद्धिजीवियों के कहने पर इंदिरा ने पहले ही युद्ध बंदियों को छोड़ दिया होता तो भुट्टो जैसा जिद्दी नेता शिमला समझौता क्यों करता ? शिमला समझौता हुआ तो यह भी माना गया कि  पाक ने बंगला देश के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया। 
@फस्र्टपोस्ट हिंदी में 19 नवंबर 2017 को प्रकाशित मेरा लेख@



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