शुक्रवार, 30 मार्च 2018

दोनों खबरें करीब -करीब एक ही साथ आई हैं।
 अमेरिका के हवाई अड्डे पर  पाकिस्तान के प्रधान मंत्री के कपड़े उतरवा कर  उनकी तलाशी ली गयी।
 दूसरी ओर ‘आजतक’ ने खबर दी है कि पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी रोहिंग्या मुसलमानों के लिए घर बनवा कर उन्हें अपने राज्य में बसा रही हैं।
दूसरी ओर रोहिग्या मुसलमानों के बारे में केंद्रीय गृह मंत्री राज नाथ सिंह ने कहा है कि वे देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं।
 यदि खतरे की बात फिलहाल दरकिनार भी कर दी जाए तो क्या हमारे देश में इतने अधिक संसाधन हंै कि हम पूरी दुनिया के शरणार्थियेां के लिए इस देश को धर्मशाला बना सकें ं ?
हमारे  देश में करीब 30 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं।
उनमें से करीब 20 करोड़ लोगों को एक ही जून का भोजन किसी तरह मिल पा रहा है।
फिर भी बाहरी  लोगांे के प्रति अति उदारता ? क्योंकि उनके वोट मिल जाने की संभावना है ? वह भी देश की सुरक्षा की कीमत पर ?
 याद रहे कि करोड़ों बंगलादेशियों को यहां बसा कर उन्हें पहले ही वोटर बनाया जा चुका है।
अमेरिका किसी आलोचना की परवाह किए बिना अपने देश को किसी भी कीमत पर आतंकी हमलों से बचाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहता है और हमारे कुछ नेता लोग वोट के लिए देश को हमेशा खतरे में डालने पर अमादा रहते हैं ।
हमारे देश पर अमेरिका से अधिक आतंकी हमले होते रहते हैं।  


बुधवार, 28 मार्च 2018

 इंडिया टूडे काॅनक्लेव में हाल में सोनिया गांधी ने कहा  कि कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी के रूप में देखे जाने की भारी कीमत चुकानी पड़ी।
  इस बात से लगता है कि कांग्रेस को अपनी असली ‘बीमारी’ का आज भी पता नहीं है।
वह इलाज क्या करेगी !
दरअसल कांग्रेस को लोगों ने मुस्लिम पार्टी के रूप में नहीं बल्कि ऐसे एक दल के रूप में देखा जो देश को टुकड़े -टुकड़े @ राहुल की जेएनयू यात्रा@करने की कोशिश में लगी शक्तियों का बचाव करती है।यदि कांग्रेस सरकारें आम मुसलमानों की आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति सुधारने के लिए  कुछ ठोस करती तो धर्म निरपेक्ष मिजाज वाले इस देश के अनेक लोगों को वह अच्छा लगता।
पर कांग्रेस के बड़े नेता सलमान खुर्शीद सिमी के पक्ष में अदालत में वकील बन गए।क्या वे कभी आर.एस.एस.के वकील बनेंगे ? याद रहे कि कुछ वकील कहते हैं कि यह तो हमारा पेश है जो आएगा,उसी की वकालत करेंगे।सिमी का शुरू से ही यह घोषित लक्ष्य रहा कि इस देश में हथियार के बल पर इस्लामी शासन कायम करना है।
दिग्विजय सिंह बाटला हाउस मुंठभेड़ पर पुलिसकर्मी शर्मा को ही कसूरवार ठहराने लगे थे।
2008 में मुम्बई में ताज होटल पर हुए आतंकी हमले पर पूर्व मुख्य मंत्री ए.आर.अंतुले ने बयान दे दिया था कि इसके पीछे  संघ परिवार है।मणिशंकर अययर पाकिस्तान जाकर वहां के लोगों से अपील करते हैं कि आप लोग भारत में मोदी को हराइए।
  मुसलमानों की आर्थिक दुर्दशा पर सच्चर रपट और रंगनाथ मिश्र रपट धूल खाती रही ,पर कांग्रेस की सरकारें व नेता अति वादी मुस्लिम नेताओं व मुल्लाओं से  गलबाहियां करते रहे।चुनाव से ठीक पहले दिल्ली की  जामा मस्जिद के विवादास्पद इमाम से मुलाकात करते रहे।वह अपने यहां महत्वपूर्ण कार्यक्रम में पाकिस्तान के पी.एम.को तो आमंत्रित करता है,पर भारत के पी.एम..को नहीं बलाता।
 कांग्रेस अगला लोस चुनाव दलीय गठजोड़ करके भले जीत जाए ,पर उस पर अतिवादी मुस्लिम नेताओं का समर्थन करने का दाग शायद नहीं धुलेगा।
सांप्रदायिक मामलों में कांग्रेस यदि सचमुच संतुलन अपनाए तो वह देश के लोकतंत्र के लिए भी भला होगा।पर लगता है कि अच्छे विचारों को  ग्रहण करने की क्षमता अब कांग्रेस में रही नहीं।   @27 डंतबी 2018@   

मंगलवार, 27 मार्च 2018

    प्रधान मंत्री के रूप में  मोरारजी देसाई जब पटना आए थे तो वे रात में राज भवन की खुली जगह में मच्छरदानी लगा कर सोये थे।तब सुना था कि उन्होंने  पंखा भी नहीं चलने दिया था।
तब कुछ लोगों को इस बात पर  आश्चर्य हुआ था कि उन्होंने एयर कंडीशनर का इस्तेमाल नहीं किया।
  आजादी की लड़ाई में तरह -तरह की तकलीफें झेलने के अभ्यस्त ऐसे गांधीवादी नेताओं की  साधारण जीवन शैली की कल्पना शायद आज की पीढ़ी को नहीं होगी।
आजादी के तत्काल बाद के कुछ नेता जब अपने शहर या राज्य से बाहर जाते थे तो वे अपने मित्र नेताओं व राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के आवास में टिकते थे।पर, बाद के वर्षों में वह परंपरा लगभग समाप्त हो गयी ।उसके  
कई कारण थे।एक कारण तो बड़ा शर्मनाक था।
यानी, शर्मनाक संबंधों को लेकर  कुछ दिलजले लोगों द्वारा अफवाह फैलाने के कारण ऐसी स्थिति बनी।
    अपवादों को छोड़ दें तो आज तो अधिकतर दलों के  सामान्य राजनीतिक कार्यकत्र्ता गण  भी शीत ताप नियंत्रित जीवन शैली  के अभ्यस्त हो चुके हैं।
 जवाहर लाल नेहरू की  आराम तलब जीवन शैली के बारे में कुछ किस्से हम सब सुनते हुए बड़े हुए हैं।
पर वैसी चर्चाओं मंे कई बार पूूरी सच्चाई नहीं होती।
 सच्चाई तो यह थी कि नेहरू जी  एयर कंडीशनर पसंद नहीं करते थे।उनके साथ निजी सचिव के रूप में 13 साल  रहे एम.ओ.मथाई ने लिखा है कि नेहरू जी एयर कंडीशनर न तो अपने सोने के कमरे में इस्तेमाल करते थे और न ही सचिवालय में ।यहां तक कि संसद भवन के अपने दफ्तरों में  भी नहीं।
  मथाई के अनुसार रात में वे बरामदे में सोना पसंद करते थे।
    पर गर्मियों में वे प्रधान मंत्री निवास में अपने कार्यालय में एयर कंडीशनर जरूर चलने देते थे।
 वे वहां रात में देर तक काम करते थे।
मथाई ने लिखा कि 1955 में मैंने महसूस किया कि उनके सोने के कमरे में एयर कंडीशनर लगवा दिया जाए ताकि हारी-बीमारी में काम आए।याद रहे कि तब तक वे बूढे होने लगे थे।  उनसे पूछे बिना मैंने तब लगवा दिया था जब वे विदेश के दौरे पर थे।लौटने के बाद बोले कि ‘मुझे इसकी जरूरत नहीं।’
  इस पर मथाई ने  कहा कि जरूरत पड़ने पर ही उसका इस्तेमाल किया जाएगा।
रोजाना उसे नहीं चलाया जाएगा।
लेकिन मथाई करते  यह थे कि  गर्मियों में जब वे दोपहर को खाने के लिए घर आते थे तो उसके पहले दो घंटे के लिए उसे चलवा देते थे।जैसे ही उनकी कार फाटक पर पहुंची,उसे बंद करवा देते थे।
खाने के बाद वे अपने ठंडे कमरे में कुछ देर आराम करते थे लेकिन उनके सामने मशीन नहीं चलती थी।
हां,एयर कंडीशनर उनके जीवन के अंतिम दिनों में बहुत काम आया, खास तौर से उनके अंतिम एक महीने यानी मई 1964 में जब बेहद गर्मी थी।
 इस पृष्ठभूमि में आप कल्पना कीजिए कि इन दिनों की ठंड से बचने के लिए हमारे अधिकतर नेता सहित इस देश के अनेक प्रभावशाली लोग शीत नियंत्रणक मशीनों पर कितनी अधिक बिजली खर्च करते होंगे  और उसमें से कितनी बिजली के लिए बिल भरे जाते हैं और कितनी ........? 
   

लोग पूछते हैं कि भइर्, ये स्कूटर पर सांड ढोने 
वाली कहानी क्या है ?
कब की है ?
हाल में मुझे अपनी आलमारी  में सी.ए.जी.रपट की एक फोटो काॅपी  मिल  गयी।
रपट के अनुसार  यह कहानी 1985 की है। 6 दिसंबर, 1985 को रांची से एक स्कूटर चला।
उस पर चार सांड़ लादे गए थे !
344 किलोमीटर की दूरी तय करके घागरा@घागरा शब्द फोटोकाॅपी में अस्पष्ट है@पहुंचा।
बिल बना 1285 रुपए का।बिल पास हुआ।भुगतान भी हो गया।
स्कूटर का नंबर भी दर्ज है।पर फोटो काॅपी में अस्पष्ट है।
वैसे उस सी.ए.जी.रपट के अनुसार  ऐसी अनेक करामातें की गयीं।यह तो मैंने एक नमूना के लिए दिया।
जैसे उसी साल मई में एक कार में रांची से झिंकपानी तक चार सांड ढोए गए।बिल बना 1310 रुपए का।
यह है चारा घोटाले की अनोखी कहानी का एक बहुत ही छोटा नमूना। 
 याद रहे कि 1985 में लालू प्रसाद की सरकार नहीं थी।

सोमवार, 26 मार्च 2018

 स्मार्ट फोन के कुप्रभाव सामने आने लगे हैं।
खास कर बच्चों की आंखों पर।
फिर भी अभी कोई चेत नहीं रहा है।
चेतेंगे,तब तक देर हो चुकी होगी।
रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के कुप्रभाव आने बहुत पहले शुरू हो गए थे।पर बहुत देर हो जाने के बाद लोग अब चेत रहे हैें।
फिर भी जैविक खाद की ओर देश बहुत ही धीमी गति से आगे बढ़ रहा है।आकाशवाणी के धीमी गति के समाचार से भी कम गति से।
 गावांे में मैं देखता था कि बाप, बेटे को चूल्हे से सुलगा कर ले आने के लिए बीड़ी थमा देता था।
सुलगाने के बाद बेटा  आंख बचा कर दो -तीन कस खुद भी पी  लेता था।
इस तरह  बीड़ी की लत वाले  बाप का बेटा भी बीड़ी का पियक्कड़ बन जाता था।नतीजतन तरह- तरह की बीमारियां !
 आज भी ऐसा होता होगा।
आज अधिकतर मां और बाप के पास अलग- अलग स्मार्ट फोन हैं।उनके छोटे-छोटे  बच्चे भी
उससे खेलने लगे हैं।खेलते -खेलते उन्हें भी लत लग जा रही है।स्मार्ट फोन तो आधुनिक युग का एक नशा है।इस कारण बुजुर्गों के बीच भी बातचीत अब कम हो गयी है।कहीं कोई किसी से मिलने जाता भी है तो बातचीत करने के बदले अपने स्मार्ट फोन पर अंगुलियां घुमाने लगता है।
रिटायर और बिना काम वाले लोगों को यह लत लगे तो कोई बात नहीं ।कुछ लोगों के समय बीत जाते हैं।अकेलापन दूर होता है।वैसे लोगों के लिए एक अच्छा उपकरण है जिनके पास विचार तो हैं,पर उन्हें कभी अखबारों में जगह नहीं मिली।
पर बच्चों को भी लत लग जाए तो  एक साथ बहुत सी चीजें खराब हो जाती है।पढ़ाई-लिखाई से लेकर स्वास्थ्य तक।
स्वभाव -आचरण पर जो असर पर रहा है सो अलग।
छोटे बच्चों और किशोरों को स्मार्ट फोन से दूर रखने का फिलहाल एक मात्र उपाय यह है कि खुद मां -बाप तब तक स्मार्ट फोन से दूर रहने का संयम बरतें जब तक उनके बाल -बच्चे पढ़ लिखकर कुछ बन नहीं जाते।
काम कठिन है,पर नहीं करने पर बाद में बहुत पछताना पड़ेगा।
अस्सी के दशक में जब बिहार के शहरों में भी घर -घर में  टी.वी आने लगा था तो पटना के लोहिया नगर में  मेरे एक पड़ोसी ने लोभ संवरण किया।
तब तक उनके बच्चे स्कूलों में थे।
नतीजा यह हुआ के उनके तीनों बच्चे आज कैरियर के उस मुकाम पर हैं जहां भेजने के लिए अधिकतर मां-बाप तरसते हैं।    

 हर साल ब्रिटिश संसद के 20 कार्य दिवसों के एजेंडा  का निर्धारण प्रतिपक्ष करता है।
क्या भारत में ऐसी व्यवस्था हो जाएगी तो प्रतिपक्ष संसद में हंगामा बंद कर देगा ? 
पता नहीं ! क्योंकि कुछ लोग तो अपनी आदत से लाचार हैं।
पर, जब पीठासीन अधिकारी अपने संसदीय कत्र्तव्यों का पालन करने को तैयार नहीं हंै,या उन्हें करने नहीं दिया जाता , यानी हंगामा करने वाले संांसदों को सदन से मार्शल आउट करने को वह तैयार नहीं हंै तब तो कोई दूसरा ही उपाय सोचना  होगा
ताकि लोकतंत्र की अनंत काल तक  हंसी नहीं होती रहे।संसद और विधान सभाओं में लगातार हो रही बंदर- लीला से नयी पीढ़ी पर अत्यंत बुरा असर पड़ रहा है।लोकतंत्र का नाम खराब हो रहा है।
  ‘उत्कृष्ट सांसद’ भर्तृहरि महताब ने हाल में  ‘प्रभात खबर’ से बातचीत में  कहा कि ‘दूसरों को न सुनने की आदत से संसद में गतिरोध होता है।अगर सत्ताधारी बेंच प्रतिपक्ष की बात सुन ले तो माहौल में काफी बदलाव आ सकता है।’
महताब ने ठीक कहा है।पर उन्होंने अधूरी बात कही है।
राज्य सभा में तो प्रतिपक्ष ही सत्ता दल की बात नहीं सुनता।
दरअसल वैसे भी इस देश में अधैर्यवान लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।संसद से सड़क तक।उसका सबसे बड़ा नमूना टी.वी.चैनलों की चर्चाओं में देखा जा सकता है।अधिकतर चैनलों पर आए अधिकतर गेस्ट सिर्फ अपनी  कहते हैं ।चिल्लाते हैं।कुछ एंकर भी न सिर्फ उपदेशक नजर आते हैं बल्कि खुद ही बहुत सारा समय ले लेते हैं।ऐसे लोग  यह कत्तई महसूस नहीं करते कि उनकी बात श्रोता-दर्शक सुन भी पा रहे हैं या नहीं।पसंद करते हैं या नहीं।
कल एबीपी पर देखा कि एंकर डिबेट में अनुशासन लाने की सराहनीय कोशिश कर रहे थे।पता नहीं यह प्रयास सफल हो पाएगा भी या नहीं।
  पर हां,टी.वी.चैनलों की चर्चाओं से देश को एक बड़ा लाभ जरूर हुआ है।लोगबाग अब यह जान रहे हैं कि कौन देशहित में खड़ा है,कौन माफियाओं-भ्रष्टाचारियों-जातिवादी-सांप्रदायिक ताकतों के  के साथ खड़ा है।कौन इस देश को टुकड़े -टुकड़े करना चाहता है।कौन बचाना चाहता है। किसके लिए देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा का कोई मतलब नहीं है।
किसके लिए यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
पहले इनमें से कुछ बातें गुपचुप होती थीं।अब खुलेआम हो रही है।बंगलादेशी घुसपैठियों पर हो रही चर्चा में  हाल में एक चैनल पर एक गेस्ट ने कह दिया कि भारत
आप्रवासियों से ही बना है। बाहर से किसी को यहां आकर बस जाने का पूरा हक है। 

 यदि आपको अपनी पत्नी को खुश रखना हो तो उसके
 मायके  की कभी -कभी तारीफ कर दिया कीजिए।हां,यदि तारीफ नहीं कर सकते तो आलोचना तो भूल कर भी मत कीजिए अन्यथा अंजाम समझ लीजिए।
  उसी तरह यदि आपको अपने किसी मित्र को प्रसन्न रखना हो,और उनके दिवंगत पिता से आप परिचित रहे हों ,या उनके जीवन काल में एक बार भी मिल चुके हों तो कभी -कभी उनकी बड़ाई में दो शब्द बोल दिया कीजिए।
कोई पुत्र अपने पिता के जीवन काल में भले उनसे लड़ता -झगड़ता हो,पर उनके गुजर जाने के बाद उसे उनके गुण ही याद रहते हैं।अधिकतर मामलों मंे होता यह है कि पुत्र बाद में इस बात का अफसोस करता है कि उनके रहते मैं उनके महत्व को समझ नहीं सका।
 और हां, किसी की झूठी तारीफ भी नहीं करनी है।क्योंकि ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसमें कोई न कोई गुण न हो।बस आपको उसके गुणों का पता होना चाहिए।
दरअसल दोस्ती तो ऐसी धागा है जिस पर प्रेम का मांझा 
यदा -कदा चढ़ाते रहना पड़ता है।
  हां,राजनीतिक बहसों में इस बात का सदा ध्यान रखिए कि बहस आप भले हार जाइए, किंतु दोस्त मत हारिए।
मैं फेसबुक पर आम तौर पर  अपने वैसे मित्रों की टिप्पणियों का जवाब नहीं देता जिनसे मैं असहमत होता हूं।



अवस्थी जी,
आपने मेरे भटकने की जो बात कही है,वह मेरी अपनी सोच है।
किसी नेता या विचारधारा का उस पर कोई असर नहीं है।न रहेगा।मैंने खुद को कभी किसी नेता या किसी विचार धारा की गिरवी नहीं बनने दिया है।न दूंगा।
मेरी सोच देश-दुनिया की स्थिति को देख कर बनती है।
हर को अपनी सोच रखने का अधिकार है।हां,उस सोच पर किसी लोभ का दबाव नहीं होना चाहिए।
जहां तक नीतीश से दोस्ती का सवाल है,इस पर मुझे पहले भी ताने मिलते रहते हैं।इसलिए कि लोग ‘जनसत्ता’ में मेरा लेखन पढ़ चुके हैं।
मैं जवाब नहीं देता।
चूंकि आपने आदरणीय ओम थानवी के वाॅल पर लिखा है,इसलिए मैं कुछ कहना चाहता हूंं ।
कई साल पहले खुद लालू प्रसाद ने अपने दरबार में कहा था कि मैंने दिघवारा के रजपूतवा को ,,,,,,,,अखबार से हटवा दिया।
लालू की दृष्टि में मैं सिर्फ रजपूतवा हूं।जबकि मैं आरक्षण का लगातार समर्थक रहा हूं और इस कारण परिवार से लेकर सवर्ण समुदाय तक के ताने का शिकार होता रहा हूं।
नीतीश कुमार ने बाद में मुझे फोन किया, ‘क्या आपने ...........अखबार छोड़ दिया ?’
मैंने कहा कि हां, ‘पर मैं अब अधिक पाठकों तक पहुंच रहा हूं।भले पैसे कम मिल रहे हैं।’
इस पर नीतीश ने कहा कि ‘आपको कभी पैसे की परवाह रही है क्या ?’
 इस पर बात खत्म हो गयी।
आप कल्पना कीजिए कि मेरी जगह कोई दूसरा पत्रकार होता तो इस स्थिति में मुख्य मंत्री से क्या कहता ?
अब मैं कुछ अन्य उदाहरण गिनाता हूं जो फिलहाल मुझे याद हंै ।उससे पता चलेगा कि  नीतीश राज में मुझ क्या मिला।मेरा  पुत्र विशेषज्ञता हासिल कर  लौटा तो उसने बिहार सरकार में एक जाॅब के लिए आवेदन दिया।

इंटरव्यू हो जाने के बाद उसके मोबाइल पर काॅल आया--दो लाख रुपए का इंतजाम करो।मैंने कहा कि बेटा, मेरे पास पैसे  नहीं हैं।बिहार के बाहर कहीं देखो।
बेटे को शायद उम्मीद थी कि मैं मुख्य मंत्री  नीतीश कुमार से  कह कर घूस माफ करवा दूंगा।।पर मैंने चूंकि जीवन में कभी किसी नेता से व्यक्तिगत काम के लिए नहीं कहा है,इसलिए इस मामले में भी नहीं कहा।मेरी राय रही है कि इस भ्रष्ट व्यवस्था से उपजी जो परेशानी आम लोग सह रहे हैं,वह मेरा परिवार भी सहे।मैं भी सहूं।
 मेरी पत्नी को नीतीश के शासन काल में ही मिडिल स्कूल का प्रधानाध्यापक बनना था।
बनी भी।पर, उसे दानापुर दियारा में उसे पोस्ट कर दिया गया क्योंकि उसने रिश्वत नहीं दी।
चूंकि रोज गंगा नदी पार करके जाना होता तो मैंने उससे कहा कि प्रधानाध्यापकी का मोह छोड़ दो।उसने छोड़ दिया।साधारण शिक्षक के रूप में रिटायर हो गयी।
 मेरे गांव की कीमती पुश्तैनी जमीन पर सरकार ने जबरन सड़क बनवा दी।
कोई अधिग्रहण या मुआवजा नहीं।
मेरे संयुक्त परिवार ने हाई कोर्ट में केस कर रखा है।
एक दिन पटना में बैंक से लौटती मेरी पत्नी के सोलह हजार रुपए गुंडों ने सड़क पर रिवाल्वर दिखा कर छीन लिया।चूंकि गंुडा किसी दरोगा का बेटा था ,इसलिए उसे कुछ नहीं हुआ।
नीतीश सरकार ने पेंशन देने के लिए पत्रकारों से आवेदन मांगा ।मैंने आवदेन तक नहीं दिया है।ऐसे कुछ अन्य उदाहरण भी होंगे,मुझे अभी याद नहीं।
इसलिए कि मेरी नीति रही है कि जिस पैसे में मेरी मेहनत नहीं लगी है,वह मेरे यहां नहीं आए।
हर सरकार कुछ गलत और कुछ सही काम करती है।नीतीश सरकार के किसी गलत काम का मैंने कभी लिख कर समर्थन नहीं किया।बल्कि  सबसे अधिक गलत काम यानी माक्र्स के आधार पर कई लाख शिक्षकों की बहाली  के काम का लिख कर मैंने विरोध किया है।ऐसे कामों का समय -समय पर विरोध करता रहता हूं।
पर उसने कुछ अच्छे काम भी किए हैं।उसका समर्थन करता हूं।
यही सब हैं  नीतीश से हमारी तथाकथित दोस्ती के परिणाम ! आप खुद निर्णय कर लीजिए।
जहां तक मेरे  ‘भटकाव’ का सवाल है
 तो उस पर इतिहास को निर्णय करने दीजिएगा।हां, यह जरूर पता लगा सकते हैं कि मैंने नीतीश कुमार या सरकार से अपने लिए क्या फायदा उठाया है ?किस लोभ में ‘भटका’ ? नीतीश 2005 से मुख्य मंत्री हैं।वे मेरे 1969 से यानी छात्र जीवन से परिचित हैं।
वैसे इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई व्यक्ति कभी नीतीश से व्यक्तिगत बातचीत करता हो तो वह उन्हीं से पूछ ले कि आपसे अपने निजी लाभ के लिए सुरेंद्र किशार ने कब क्या मंागा ?@2028@  
@पत्रकार देवप्रिय अवस्थी ने अपने एक पोस्ट मंे लिखा  था कि सुरेंद्र किशोर भटक गए हैं।उस पर मेरी यह प्रतिक्रिया है।@  



चुनावी जीत के बाद उत्साही भाजपा कार्यकत्र्ताआंे ने
दक्षिण त्रिपुरा में लेनिन की मूत्र्ति को बुल डोजर से तोड़ दिया।
उम्मीद है कि भाजपा के जिम्मेदार नेता इस कृत्य की आलोचना करेंगे।
  भले नब्बे के दशक में सोवियत संघ में लेनिन की मूत्र्ति तोड़ी गयी। 2014 में यूके्रन में वही हुआ।
पर अपना देश लोकतांत्रिक है।यहां विचारों से विचारों को हराइए।
हिंसा या तोड़फोड़ से नहीं ।अन्यथा, चुनाव जीतने के बाद कुछ लोग कहीं श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मूत्र्ति तोड़ने लगेंगे तो भाजपाइयों को कैसा लगेगा ? 

 जेपी आंदोलन के एक कर्मठ नेता रहे अरूण दास मुझसे मिलने आए थे।
उन्होंने चम्पारण में पंकज जी के नेतृत्व में जारी कठिन भूमि आंदोलन की चर्चा की।
वे लोग भूमिहीनों को उनका हक दिलाने के लिए आंदोलनरत हैं।
उससे पहले प्रियदर्शी जी ने भी उस भूमि आंदोलन के बारे में मुझे बताया था।
अखबारों के अलग -अलग कई संस्करण निकलने के कारण जिलों की महत्वपूर्ण खबरें भी पटना के पाठकों तक कम ही  पहुंच पाती हैं।
वैसे जो कुछ मैंने इस आंदोलन के बारे में सुना,उससे लगा कि वह बहुत महत्वपूर्ण है।
गांधी जी की  कर्मभूमि में हजारों एकड़ जमीन का मामला दशकों से लटका हो और भूमिहीन जमीन के एक टुकड़े के लिए आंदोलनरत हों,इस खबर को पूरे देश में पहुंचना चाहिए।
कम से कम फेसबुक मित्र तो जान लें।
  यह सब सुनकर मुझे सत्तर के दशक की एक घटना याद आ गयी।
एक दिन मैं रामानंद तिवारी के पटना स्थित आर.ब्लाॅक स्थित आवास में  बैठा हुआ था।
उनके दल के चम्पारण के एक नेता जी उनके पास आए।उन्होंने तिवारी जी से कहा कि रोगी महतो हत्याकांड वाले केस में हम लोगों को अब सुलह कर लेनी चाहिए।
इस पर तिवारी जी ने तमतमा कर दृढ शब्दों में कहा कि आप कम्प्रोमाइज कर लीजिए।मैं रोगी महतो की लाश का सौदा नहीं करूंगा।
यह कहते समय तिवारी जी की आंखों में आंसू थे।
दरअसल 1969 में तिवारी जी के नेतृत्व में चम्पारण में जोरदार भूमि आंदोलन चला था।तिवारी जी ने जमीन पर हल चलाया था।वे हदबंदी से फाजिल जमीन पर भूमिहीनों को कब्जा दिलाने के लिए आंदोलनरत थे।
भूमिपतियों के लठैतों ने तिवारी जी तथा उनके साथियों को लाठियांंे से बहुत पीटा।उस घटना में रोगी महतो की जान चली गयी।तिवारी जी भी बुरी तरह घायल हो गए थे।
लंबे समय तक अस्पताल में रहे।
 उन दिनों रोगी महतो हत्याकांड का मुकदमा चल रहा था।
पता नहीं चला कि उस केस का अंततः क्या हुआ।पर ऐसा लग रहा है कि उस जिले में जमीन की समस्या अब भी गंभीर नी हुई है।
  खबर है कि चम्पारण में हदबंदी से फाजिल हजारों एकड़ जमीन जो भूमिहीनों के पास होनी चाहिए थी, उस पर अब भी दूसरे लोगों को कब्जा है।राज्य सरकार ने भी सलटाने की कोशिश की थी,पर पता नहीं उस काम में उसे भी सफलता क्यों नहीं मिल पा रही है ! अनेक मामलों में भूमिहीन को मालिकाना हक का परचा खुद सरकार ने ही दिया है।पर वह कब्जा नहीं दिला पा रही है।

मशहूर कम्युनिस्ट नेता जगन्नाथ सरकार ने लिखा था कि  राज कुमार पूर्वे के संस्मरणों से गुजरना एक दिलचस्प अनुभव है।दिवंगत पूर्वे की संस्मरणात्मक पुस्तक ‘स्मृति शेष’ का एक प्रकरण में सामान्य पाठकों 
की भी दिलचस्पी हो सकती है।
यह प्रकरण है भारत पर चीन के हमले का प्रकरण।
स्वतंत्रता सेनानी व विधायक रहे दिवंगत पूर्वे के अनुसार, चीन ने भारत  पर 1962 में आक्रमण कर दिया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आक्रमण का विरोध किया।
पार्टी में बहस होने लगी।
कुछ नेताओं का कहना था कि चीनी हमला हमें पूंजीवादी सरकार से मुक्त कराने के लिए है।दूसरों का कहना था कि माक्र्सवाद हमें यही सिखाता है कि क्रांति का आयात नहीं होता।
देश की जनता खुद अपने संघर्ष से पूंजीवादी व्यवस्था और सरकार से अपने देश को मुक्त करा सकती है।
पार्टी  के अंदर एक वर्ष से कुछ ज्यादा दिनों तक बहस चलती रही।
लिबरेशन या एग्रेशन का ?
इसी कारण कम्ुयनिस्ट पार्टी, जो राष्ट्रीय धारा के साथ आगे बढ़ रही थी और विकास कर रही थी, पिछड़ गयी।
लोगों में देश पर चीनी आक्रमण से रोष था।
यह स्वाभाविक था ,देशभक्त ,राष्ट्रभक्त की सच्ची भावना थी।
यह हमारे खिलाफ पड़ गया।कई जगह पर हमारे राजनीतिक विरोधियों ने लोगों को संगठित कर हमारे आॅफिसों और नेताओं पर हमला भी किया।
हमें चीनी दलाल कहा गया।
आखिर में उस समय 101 सदस्यों की केंद्रीय कमेटी में से 31 सदस्य पार्टी से 1964 में निकल गए।
उन्होंने अपनी पार्टी का नाम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी@माक्र्सवादी @रखा।सिर्फ भारत में ही नहीं,कम्युनिस्ट पार्टी के इस अंतर्राष्ट्रीय फूट ने पूरे विश्व में पार्टी के बढ़ाव को रोका और अनेक देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों में फूट पड़ गयी।
    


पार्टियों  को मिलने वाले चंदे पर 1967 की कांग्रेस और 2018 की एनडीए में नहीं है कोई अंतर 
                   
केंद्र की राजग सरकार ने इस महीने संसद से वह विधेयक पास करवा दिया जिसके तहत  राजनीतिक दलों को विदेशी चंदा मिलने की कोई जांच नहीं होगी।
 सन 1967 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने लोक सभा  में साफ -साफ  कह दिया था कि जिन दलों और नेताओं को विदेशों से धन मिले हैं, उनके नाम जाहिर नहीं किए जा सकते ।क्योंकि उससे उनके हितों को नुकसान पहुंचेगा।
  इस बीच 2015 में केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट से साफ -साफ कह दिया था कि ‘ भारत सरकार राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के तहत लाने का विरोध करती है।’
हाल में राज्य सभा चुनावों में पैसों का खेल देख कर अनेक लोगों ने दांतों तले अंगुली दबा ली।
 2013 में एक सांसद ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि उन्होंने अपने पिछले लोक सभा चुनाव में 8 करोड़ रुपए खर्च किए।
हाल में यह खबर आई कि हाल में हुए  राज्य सभा के चुनाव के 87 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं।
यानी दिनानुदिन कितना खर्चीला बनता जा रहा है इस देश का लोकतंत्र !
देसी के साथ -साथ अपार विदेशी चंदों के पैसे मिल कर और कितना अधिक खर्चीला बना देंगे ? इस देश का लोकतंत्र गरीबों से और कितना दूर  चला  जाएगा ?
पर ऐसी स्थिति एक दिन में नहीं आई।इसकी नींव तो ठोस रूप से सन 1967 में ही पड़ गयी थी जब केंद्र सरकार ने विदेशी चंदे पर परोक्ष रूप से अपनी मुहर लगा दी थी।
 चुनावों में  जायज -नाजायज धन के इस्तेमाल को लेकर अधिकतर नेताओं और दलों की झिझक तो अब पूरी तरह समाप्त हो जाएगी।
सन 1967 के आम चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस  हार गयी थी।लोक सभा में भी उसका बहुमत 1962 की अपेक्षा कम  हो गया था।
चुनाव के छह माह के भीतर ही  उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ  कांग्रेसी विधायकों ने दल बदल करके वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बनवा दीं।वहां भी कांग्रेस का बहुमत कम था,इसलिए कम ही विधायकों के दल बदल से सरकार गिर गयी थी।इन अभूतपूर्व राजनीतिक घटनाओं से इंदिरा सरकार चिंतित हुई।सरकार को  लगा कि प्रतिपक्षी दलों ने नाजायज धन खर्च कर कांग्रेस को हरवा दिया।उन्हें शक हुआ कि इसमें विदेशी तत्वों व धन का भी हाथ हो सकता है।
चुनाव में धन के इस्तेमाल की केंद्रीय खुफिया एजेंसी से जांच करायी गयी।
पर, जांच से यह पता चला कि सिर्फ एक  राजनीतिक दल को छोड़कर सभी प्रमुख दलों को 1967 का चुनाव लड़ने के लिए विदेशों से पैसे मिले थे।शीत युद्ध के उस दौर में पैसे पूंजीवादी देशों ने दिए तो  कम्युनिस्ट देशों ने भी।ऐसा उन देशों ने भारत में अपने लिए स्थानीय प्रचारक तैयार करने के लिए किया।
पैसे पाने वालों में अन्य दलांे के साथ -साथ कांग्रेस के भी कई नेता  थे।कांग्रेस के कुछ नेताओं ने अमेरिका से तो कुछ अन्य ने सोवियत संघ से पैसे लिये थे।
   ऐसी सनसनीखेज बातों के कारण  केंद्र सरकार ने उस खुफिया  रिपोर्ट को दबा दिया।पर उस गुप्त रपट को एक विदेशी संवाददाता  ने उड़ा लिया।
 वह रपट  अमेरिकी अखबार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में  छप गयी।
उसमें उन राजनीतिक दलों के नाम भी दिए थे जिन्हें पैसे मिले थे।
पैसे पाने वालों में लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल शामिल थे।अखबार की खबर पर  लोक सभा में हंगामा हो गया।
लोक सभा में स्वतंत्र पार्टी के एक सांसद ने गृह मंत्री से मांग की कि वे खुफिया रपट को प्रकाशित करें ताकि राजनीतिक दलों को सफाई देने का अवसर मिल जाए।पर उसके जवाब में चव्हाण ने कहा कि ‘ऐसा करना
संभव नहीं हो सकेगा  क्योंकि केंद्रीय गुप्तचर विभाग की रपट के प्रकाशन से अनेक व्यक्तियों और दलों के हितों की हानि होगी।’
जनसंघ के बलराज मधोक ने सवाल किया कि क्या सरकार ंभारत स्थित विदेशी दूतावासोें के पास भारतीय मुद्रा के रूप में एकत्र अपार धन राशि पर कारगर नियंत्रण लगाने जा रही है ?
जनसंघ के कंवर लाल गुप्त और सी.पी.आई.के इंद्रजीत गुप्त ने सदन में गृह मंत्री से अपील की कि वे ऐसा प्रबंध करें कि खुफिया एजेंसी सिर्फ चुनाव के समय ही विदेशी पैसों के आगमन की जांच न करे बल्कि सामान्य दिनों में भी नजर रखे ताकि इस स्वयंप्रभु देश की राजनीति को कोई विदेशी ताकत प्रभावित न कर सके।कुछ अन्य सांसदों ने कुछ अन्य तरह की सलाह भी दी।दरअसल उस समय राजनीति में लोक लाज थी।इसलिए जिन दलों  ने पैसे लिये थे,उन दलों के भी कुछ सांसद सदन में  अच्छी- अच्छी सलाह दे रहे थे ताकि वे पाक -साफ दिखंे।या हो सकता है कि उन्हें पता नहीं हो कि उनके दल के अन्य लोगों ने पैसे ले लिए हैं।
पर, सरकार को कोई अच्छी सलाह न माननी थी और न उसने मानी।सब कुछ पहले जैसा चलता रहा।
 यदि उसी समय रपट को सार्वजनिक  करके पैसे लेने वाले दलों और नेताओं के खिलाफ जांच करायी गयी होती तो  राजनीति और चुनाव में स्वच्छता लाने में सुविधा होती।
  अब तो स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि इस समस्या से निपटना इस देश के नेताओं के लिए मुश्किल हो चुका है।या फिर स्वार्थवश उससे निकलना ही नहीं चाहते।चिंताजनक बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल खुद को सूचना के अधिकार के तहत लाने को भी आज तैयार ही नहीं है।कम्युनिस्ट दल भी नहीं।
  अब राजनीतिक दल यह मान कर चल रहे हैं कि देसी के साथ-साथ विदेशी पैसों के बिना ‘आराम से’ राजनीति नहीं हो सकती।इसीलिए गत 14 मार्च को संसद से  यह विधेयक पास करवा लिया गया कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदों की जांच नहीं होगी।अब देखना है कि आने वाले दिनों में विदेशी चंदे का इस देश की राजनीति व अन्य चीजों पर कैसा असर पड़ता है।
@ फस्र्टपोस्ट हिंदी पर 26 मार्च 2018 को प्रकाशित मेरा लेख@ 
  

  


साठ-सत्तर के दशकों में बंबई से दो चर्चित साप्ताहिकों का 
प्रकाशन होता था।
ब्लिट्ज और करंट।ब्लिट्ज के जुझारू व अदमनीय संपादक थे आर.के.करजिया।उधर करंट के अयूब सईद।
ब्लिट्ज घोर वामपंथी तेवर वाला था तो करंट पूरी तरह दक्षिणपंथी।उन दिनों दुनिया में शीत युद्ध का जमाना था।उसका साफ असर भारत पर पड़ रहा था।
कुछ प्रकाशनों  पर तो पड़ना लाजिमी था।
उन दिनों राजनीतिक बयानों और अखबारों में खुलेआम सी.आई.ए.एजेंट व के.जी.बी. एजेंट का खिताब किसी न किसी को आए दिन मिलता रहता था।
उन दिनों के दैनिक अखबार आम तौर से  शालीन व मर्यादित हुआ करते थे।अपवादों की बात और है।
राजनीति की धारदार,  चटपटी और अंतःपुर की खबरें इन दोनों पत्रिकाओं में मिल जाती थीं। 
पर दोनों में एकतरफा खबरें ही रहती थीं।
क्या करें ? हम कुछ जागरूक लोग दोनांे खरीदते थे।दोनों की खबरों को जोड़कर फिर उसमें दो से भाग दे देते थे।
फिर सही खबर तक पहुंचते थे।
यानी दोनों के बीच में कहीं खबर होती थीं।
आज कल भी इस देश में कुछ इलेक्ट्रानिक चैनलों का हाल भी ब्लिट्ज  और करंट की तरह ही हो गया लगता है।दोनों को देखिए।इन्हीं दोनों के बीच मंे कहीं असली खबर मिलती रहेगी।




   मेरठ के अजय मित्तल की ‘दोमुंही बात’ शीर्षक के तहत ‘राष्ट्रीय सहारा’ में चिट्ठी छपी है।उसे यहां हू ब हू प्रस्तुत कर रहा हूं।
   ‘ अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर फिल्म पद्मावती के विरोधियों के खिलाफ शबाना आजमी और जावेद अख्तर ताल ठोक कर  मैदान में उतरे हुए हैं।
 दो साल पूर्व ईरानी फिल्म निर्माता माजिद मजीदी की बनाई ‘मोहम्मद ः मैसेेंजर आॅफ गाॅड’ भारत में प्रदर्शित की जाने वाली थी।
उसमें ए.आर..रहमान का संगीत था।
मुल्ला -मौलवियों तथा रूढि़वादियों ने उसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
उस समय अभिव्यक्ति की आजादी की पुकार न सिर्फ अनसुनी कर ,बल्कि ठोकर मार कर शबाना-जावेद ने ट्वीट किया था कि मुस्लिमों की भावनाएं आहत करने वाली फिल्म नहीं बनाई जानी चाहिए।’ @2017@


राम नवमी पर रावण की चर्चा ?
कुछ लोग शायद इसे अच्छा नहीं मानेंे, पर मैं क्या करूं ?राम ने ही तो रावण के पास भेजा ।मुझे नहीं, अपने अनुज को।
मैं तो उस ज्ञान की चर्चा करूंंगा जो रावण ने लक्ष्मण को दिया था।
 जब रावण मरणासन्न था तो  राम ने लक्ष्मण से कहा कि 
जाओ महा पंडित रावण से दुनिया के बारे में जानो।
लक्ष्मण गए और रावण के सिर के पास खड़े हो गए।
रावण कुछ नहीं बोला।लौट आए।राम ने कहा कि  पैर के पास बैठ कर शिक्षा ग्रहण की जाती है।
लक्ष्मण ने वही किया।
यह सब तो लोगों की जुबान पर रहती है।पर जो कुछ रावण ने लक्ष्मण से कहा ,उसका कम ही लोग पालन करते हैं।
  रावण की वे तीन शिक्षाएं--
1.-शुभ काम शीघ्र करो, अशुभ को टालो।
2.-शत्रु को कम मत आंको।
3.-अपने जीवन में कोई राज है तो उसे किसी को मत बताओ।
वैसे तो सारे लोग इन  शिक्षाओं से लाभ उठा सकते हैं,पर 
मेरा मानना है कि जो लोग खुद को राम का वंशज मानते हैं,उन्हें इस पर आचरण करने की अधिक जरूरत है। 
  @ 2018@

 -- एक भूली बिसरी याद ---
  सर्वोदय नेता जय प्रकाश नारायण ने 1973 में अपने निजी आय-व्यय का विवरण प्रकाशित किया था।वह विवरण साप्ताहिक पत्रिका ‘एवरीमेन’ में छपा था।
जेपी के अनुसार रैमन मैगसेसे पुरस्कार के साठ हजार रुपए 
बैंक में जमा हैं।उसके सूद से मेरा खर्च चलता है।
इसके अलावा सिताब दियारा की अपनी जमीन की पैदावार  काम आती है।
फर्नीचर मुझे मेरे मित्र डा.ज्ञान चंद ने दिया है।
बाहर आने-जाने और कपड़ों का खर्च मेरे कुछ मित्र दे दिया करते हैं।
दरअसल तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की एक टिप्पणी के जवाब में जेपी ने अपने खर्चे का विवरण प्रकाशित किया था।
इंदिरा जी ने कहा था कि ‘जो लोग अमीरों से पैसे लेते हैं,उन्हें भ्रष्टाचार के बारे मंे बात करने का कोई अधिकार नहीं।’
 इस पर जेपी ने यह भी लिखा  था कि ‘अपना पूरा समय समाज सेवा में लगाने वाला ऐसा कार्यकत्र्ता जिसकी आय का अपना कोई स्त्रोत न हो ,अपने साधन संपन्न करीबी  मित्रों की मदद के बिना काम नहीं कर सकता।अगर इंदिरा जी के मापदंड सब जगह लगाए जाएं तो गांधी जी सबसे भ्रष्ट व्यक्ति निकलेंगे क्योंकि उनके तो पूरे दल की सहायता उनके अमीर प्रशंसक ही करते थे।’  
    

बिहार में स्कूटर पर सांड़ ढुलवाने की घटना  इसलिए सुर्खियों में
आई क्योंकि ऐसा करने वालों को मुख्य मंत्री का संरक्षण हासिल था। झारखंड में भी मुख्य मंत्री ने धान ढोने वालों को संरक्षण दिया हो और उसका कागजी सबूत उपलब्ध हो तो वह खबर प्रमुखता से छपनी ही चाहिए थीं।
लालू सरकार के पहले पशुपालन मंत्री राम जीवन सिंह थे।उन्होंने 
1990 में ही मुख्य मंत्री को एक नोट लिखा।उसके साथ सी.ए.जी.की रपट संलग्न की।सी.ए.जी.की रपट में सबूत के साथ यह बात दर्ज थी कि स्कूटर 
पर सांड़ ढोए गए।भ्रष्टाचार के कुछ अन्य सबूत भी थे।
राम जीवन सिंह ने सिफारिश की कि पशुपालन विभाग के घोटाले की सी.बी.आई.से जांच होनी चाहिए।जांच तो नहीं ही हुई,उल्टे राम जीवन सिंह से पशु पालन विभाग छीन लिया गया।
बाकी बहुत सारी कहानियां अखबारों में आ चुकी हैं।पर वह चारा घोटाले की पहली कहानी थी।घोटालेबाजों को बचाने की शुरूआत थी।
@एक सवाल के जवाब मेें @

अवस्थी जी,
आपने मेरे भटकने की जो बात कही है,वह मेरी अपनी सोच है।
किसी नेता या विचारधारा का उस पर कोई असर नहीं है।न रहेगा।मैंने खुद को कभी किसी नेता या किसी विचार धारा का गिरवी नहीं बनने दिया है।न दूंगा।
मेरी सोच देश-दुनिया की स्थिति को देख कर बनती है।
हर को अपनी सोच रखने का अधिकार है।हां,उस सोच पर किसी लोभ का दबाव नहीं होना चाहिए।
जहां तक नीतीश से दोस्ती का सवाल है,इस पर मुझे ताने मिलते रहते हैं।इसलिए कि लोग जनसत्ता में मेरा लेखन पढ़ चुके हैं।
मैं जवाब नहीं देता।
चूंकि आपने आदरणीय ओम थानवी के वाॅल पर लिखा है,इसलिए मैं कुछ कहना चाहता हूंं ।
कई साल पहले खुद लालू प्रसाद ने अपने दरबार में कहा था कि मैंने दिघवारा के रजपूतवा को ,,,,,,,,अखबार से हटवा दिया।
लालू की दृष्टि में मैं सिर्फ रजपूतवा हूं।जबकि मैं आरक्षण का लगातार समर्थक रहा हूं और इस कारण परिवार से लेकर सवर्ण समुदाय तक के ताने का शिकार होता रहा हूं।
नीतीश कुमार ने बाद में मुझे फोन किया, ‘क्या आपने ...........अखबार छोड़ दिया ?’
मैंने कहा कि हां, ‘पर मैं अब अधिक पाठकों तक पहुंच रहा हूं।भले पैसे कम मिल रहे हैं।’
इस पर नीतीश ने कहा कि ‘आपको कभी पैसे की परवाह रही है क्या ?’
 इस पर बात खत्म हो गयी।
आप कल्पना कीजिए कि मेरी जगह कोई दूसरा पत्रकार होता तो इस स्थिति में मुख्य मंत्री से क्या कहता ?
अब मैं कुछ अन्य उदाहरण गिनाता हूं जो फिलहाल मुझे याद हंै ।उससे पता चलेगा कि  नीतीश राज में मुझ क्या मिला।मेरा  पुत्र विशेषज्ञता हासिल कर  लौटा तो उसने बिहार सरकार में एक जाॅब के लिए आवेदन दिया।

इंटरव्यू हो जाने के बाद उसके मोबाइल पर काॅल आया--दो लाख रुपए का इंतजाम करो।मैंने कहा कि बेटा, मेरे पास पैसे  नहीं हैं।बिहार के बाहर कहीं देखो।
बेटे को शायद उम्मीद थी कि मैं मुख्य मंत्री  नीतीश कुमार से  कह कर घूस माफ करवा दूंगा।।पर मैंने चूंकि जीवन में कभी किसी नेता से व्यक्तिगत काम के लिए नहीं कहा है,इसलिए इस मामले में भी नहीं कहा।मेरी राय रही है कि इस भ्रष्ट व्यवस्था से उपजी जो परेशानी आम लोग सह रहे हैं,वह मेरा परिवार भी सहे।मैं भी सहूं।
 मेरी पत्नी को नीतीश के शासन काल में ही मिडिल स्कूल का प्रधानाध्यापक बनना था।
बनी भी।पर, उसे दानापुर दियारा में उसे पोस्ट कर दिया गया क्योंकि उसने रिश्वत नहीं दी।
चूंकि रोज गंगा नदी पार करके जाना होता तो मैंने उससे कहा कि प्रधानाध्यापकी का मोह छोड़ दो।उसने छोड़ दिया।साधारण शिक्षक के रूप में रिटायर हो गयी।
 मेरे गांव की कीमती पुश्तैनी जमीन पर सरकार ने जबरन सड़क बनवा दी।
कोई अधिग्रहण या मुआवजा नहीं।
मेरे संयुक्त परिवार ने हाई कोर्ट में केस कर रखा है।
एक दिन पटना में बैंक से लौटती मेरी पत्नी के सोलह हजार रुपए गुंडों ने सड़क पर रिवाल्वर दिखा कर छीन लिया।चूंकि गंुडा किसी दरोगा का बेटा था ,इसलिए उसे कुछ नहीं हुआ।
नीतीश सरकार ने पेंशन देने के लिए पत्रकारों से आवेदन मांगा ।मैंने आवदेन तक नहीं दिया है।ऐसे कुछ अन्य उदाहरण भी होंगे,मुझे अभी याद नहीं।
इसलिए कि मेरी नीति रही है कि जिस पैसे में मेरी मेहनत नहीं लगी है,वह मेरे यहां नहीं आए।
हर सरकार कुछ गलत और कुछ सही काम करती है।नीतीश सरकार के किसी गलत काम का मैंने कभी लिख कर समर्थन नहीं किया।बल्कि  सबसे अधिक गलत काम यानी माक्र्स के आधार पर कई लाख शिक्षकों की बहाली  के काम का लिख कर मैंने विरोध किया है।ऐसे कामों का समय -समय पर विरोध करता रहता हूं।
पर उसने कुछ अच्छे काम भी किए हैं।उसका समर्थन करता हूं।
यही सब हैं  नीतीश से हमारी तथाकथित दोस्ती के परिणाम ! आप खुद निर्णय कर लीजिए।
जहां तक मेरे  ‘भटकाव’ का सवाल है
 तो उस पर इतिहास को निर्णय करने दीजिएगा।हां, यह जरूर पता लगा सकते हैं कि मैंने नीतीश कुमार या सरकार से अपने लिए क्या फायदा उठाया है ?किस लोभ में ‘भटका’ ? नीतीश 2005 से मुख्य मंत्री हैं।वे मेरे 1969 से यानी छात्र जीवन से परिचित हैं।
वैसे इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई व्यक्ति कभी नीतीश से व्यक्तिगत बातचीत करता हो तो वह उन्हीं से पूछ ले कि आपसे अपने निजी लाभ के लिए सुरेंद्र किशार ने कब क्या मंागा ?@2028@  
@पत्रकार देवप्रिय अवस्थी ने अपने एक पोस्ट मंे लिखा  था कि सुरेंद्र किशोर भटक गए हैं।उस पर मेरी यह प्रतिक्रिया है।@  



 हिंदी के प्रथम वैज्ञानिक वैयाकरण आचार्य किशोरी दास वाजपेयी की एक चिट्ठी साप्ताहिक ‘दिनमान’@ 10 मार्च 1968@ के ‘मत और सम्मत’ काॅलम में छपी थी।
आज पुराने अंक उलटने के सिलसिले में उस पर मेरी नजर पड़ी।राजीव जी की शादी के तत्काल बाद यह चिट्ठी लिखी गयी थी।
उसे हूं ब हू यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
 ‘राजीव-सोन्या को असीस- सोन्या नाम ऐसा है कि  हमें अजनबी नहीं लगता। जान पड़ता है कि किसी भारतीय लड़की का ही नाम है। फिर सोन्या का रत्न से मेल--सोने की अंगूठी में कीमती नग-पोखराज।
 परंतु ‘रत्न’ को नापसंद क्यों किया गया ?
हमने सर्वत्र इन दिनों राजीव गांधी नाम छपा पढ़ा।परंतु नाम है राजीवरत्न गांधी।यह नाम आचार्य नरेंद्र देव का रखा हुआ है।
नेहरू जी ने उनसे अपने इस प्रथम दौहित्र का नाम रखने की प्रार्थना की और कहा कि नाम ऐसा रखिए कि भारतीयता प्रकट हो और बच्चे की नानी और नाना के नाम भी झलकें।
 नेहरू जी प्रार्थना के अनुसार आचार्य नरेंद्र देव ने बच्चे का नाम रखा-राजीव रत्न ।यह सब अखबारों में छपा था।
राजीव कहते हैं कमल को, जिससे कमला @बच्चे की नानी@का स्मरण और रत्न माने जवाहर ।यों राजीव रत्न नाम बच्चे का रखा गया जिसे सोन्या मिली है।
 परंतु इन दिनों नाम केवल राजीव गांधी छपा है, रत्न हटा कर।बिना रत्न के ‘राजीव’ @सोन्या से@कुछ चस्पा नहीं हुआ।सो पूरा नाम चाहिए-राजीवरत्न गांधी। 




रविवार, 25 मार्च 2018

 विजय वाडा के निकट कृष्णा नदी के किनारे 217 वर्ग किलोमीटर  क्षेत्र में ‘अमरावती’ का निर्माण शुरू हो रहा   है।अब तक उस पर 1582 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं।
अमरावती को सिंगा पुर की तर्ज पर बनाया जा रहा है जो आंध्र प्रदेश की राजधानी होगी।  देवताओं के राजा इंद्र की राजधानी का नाम भी अमरावती ही था।
 अपने देश के अधिकतर नेता जब सत्ता पा जाते हैं तो खुद को इंद्र से कम नहीं समझते।अन्यथा एक गरीब देश में एक सिंगा पुर बसाने की अभी जरूरत ही क्या थी ?
पहले पूरे देश या राज्य  को तो सिंगा पुर बनाने की कोशिश करो , फिर राजधानी तो वैसी हो ही जाएगी। 
 2015 में पंडितों ने मुख्य मंत्री चंद्र बाबू नायडु को यह सलाह दी थी कि इं्रद्र ने अपनी अमरावती बसाने से ठीक पहले जिस तरह का विशाल यज्ञ करवाया था,उसी तरह का यज्ञ आप भी करवाइए।
पता नहीं, नायडु ने वह सलाह मानी थी या नहीं । 
 पर, अमरावती के निर्माण के बीच में ही आंध्र के मुख्य मंत्री  ने केंद्र सरकार व राजग से अपना नाता तोड़ लिया।
 सवाल है कि करीब एक लाख करोड़ रुपए की लागत से निर्माणाधीन महा नगर के निर्माण की गति का अब क्या होगा ?
  दरअसल नायडु को राजधानी से  अधिक अभी मुस्लिम वोट की चिंता हो गयी लगती है।करीब एक साल बाद लोक सभा -आंध्र विधान सभा का चुनाव होने वाला है।
2014 में तो मोदी लहर में तो वे जीत गए थे, पर अब ?
अब मोदी का पहले जैसा ‘जलवा’ नहीं है।
अब तो एक -एक वोट का महत्व बढ़ गया है।उधर जगनमोहन रेड्डी ने अलग से नायडु को राजनीतिक 
परेशानी में डाल रखा है।
2004 के चुनाव के समय  राजग में बने रहने का नुकसान नायडु उठा चुके हैं।
 लगता है कि  अब नहीं उठाना चाहते !
गुजरात दंगे के बाद आंध्र के मुस्लिम नेताओं ने नायडु से कहा था कि वे राजग से नाता तोड़ लें।पर उस समय नायडु ने बात नहीं मानी।इस बार तो देश के अधिकतर मुस्लिम मतदातागण नरेंद्र मोदी के खिलाफ अधिक आक्रामक हैं।बिहार के हाल के अररिया लोक सभा उप चुनाव का रिजल्ट सामने है।
अररिया के भीतर के छह विधान सभा खंडों में से सिर्फ दो मुस्लिम बहुल खंडों में भारी मतदान  कर राजद के मुस्लिम उम्मीदवार को जितवा दिया।बाकी चार विधान सभा खंडों मंें राजग को राजद से अधिक वोट मिले थे।
ऐसे में बेचारे नायडु करें तो क्या करें !

दैनिक जागरण की खबर के अनुसार पटना के महावीर मंदिर की सालाना आय करीब 10 करोड़ रुपए है।
उत्तर भारत में जम्मू के वैष्णो देवी मंदिर के बाद सबसे अधिक आय इसी मंदिर की है।
ऐसा महावीर मंदिर प्रबंधन की ईमानदारी व पारदर्शिता के कारण संभव होता है।इस पारदर्शिता के पीछे सेवा निवृत आई.पी.एस.अधिकारी किशोर कुणाल का  योगदान है।
  ऐसा नहीं है कि देवघर मंदिर और काशी विश्वनाथ मंदिर की वास्तविक आय पटना के महावीर मंदिर कम होती है।पर वहां कम आय घोषित की जाती है।
 पटना के महावीर मंदिर की आय से कई अच्छे अस्पतालों का संचालन होता है।महावीर कैंसर अस्पताल में मरीजों को मुफ्त भोजन मिलता है।
सामान्य मरीजों को भर्ती होते ही दस हजार रुपए व गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले मरीज को 15 हजार रुपए इलाज के लिए दिए जाते हैं।
  दरअसल महावीर मंदिर  प्रबंधन जो कुछ कर रहा है ,वह लोगों की धार्मिक भावनाओं का सदुपयोग है।
  चढावा देने वालों को  यह लगता होगा कि उनके पैसों का सदुपयोग लाचार मरीजों की सेवा में होता है।
  नैवेद्यम  के बारे में मेरी राय बहुत अच्छी है।मेरा मानना है कि बाजार में जो भी मिठाइयां बिकती हंै,उनकी शुद्धता के बारे में आप आश्वस्त नहीं हो सकते।
पर नैवेद्यम की तो बात ही कुछ और है।
कई बार  अतिथि जब बाजार की कोई मिठाई खरीद कर मेरे घर आते हैं तो मैं इच्छा रहते हुए भी उसे नहीं खाता।
मेरे मन में सवाल उठता है कि  वे महावीर मंदिर से नैवेद्यम क्यों नहीं लाते ?
पर ऐसा उन्हें मैं कैसे कह सकता हूं ! मत कहिएगा कि मैं 
महावीर मंदिर के नैवेद्यम  का प्रचार कर रहा हूं।मैंने तो बस लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा की दृष्टि से यह सब लिख दिया।    
 @ 25 मार्च 2018@

 पटना हाई कोर्ट ने जक्कन पुर थाना प्रभारी से कल पूछा,
‘अतिक्रमण से एक दिन में कितने की हो जाती है अवैध कमाई ?’
 इस सवाल के साथ ही पटना के अनेक लोगों को यह पता चल गया कि पटना हाईकोर्ट को भी सड़कांे ंपर अतिक्रमण के असली कारण का पता चल ही गया है।
अब जब पता चल ही गया है तो लोगों में यह भी उम्मीद जगी है कि आम लोग, बच्चे-बीमार जल्द ही अतिक्रमण जनित  जाम से  मुक्ति पाएंगे।
 कुछ दशक पहले राज्य सरकार ने पटना के फे्रजर रोड की दुकानों को अपने लिए अंडर ग्राउंंड पार्किंग स्पेस बना लेने का सख्त आदेश दिया था।
पर जहां तक मेरी जानकारी है, सरकार का वह तथाकथित सख्त आदेश सिर्फ एक ही होटल पर चल सका।बाकी दुकानदारों ने सरकार को ठेंगा दिखा दिया।
क्योंकि अतिक्रमणकारियों और नियम तोड़कों के संरक्षकगण तो सरकार के ही विभिन्न पदों पर बैठे हुए हैं जिनकी ओर हाईकोर्ट ने इंगित किया है !
शायद इस बार पटना हाईकोर्ट ही जाम पीडि़तों की जान के रक्षक बने ।





शनिवार, 24 मार्च 2018


---नयी स्वास्थ्य योजना से बढ़ी गांवों में भी अस्पताल खुलने की संभावना---
अब देश के 10 करोड़ गरीब परिवार सरकारी और निजी अस्पतालों में पांच लाख रुपए तक का कैशलेस इलाज करा सकेंगे।केंद्र सरकार का यह ताजा निर्णय  है।
यदि एक परिवार के सदस्यों की औसत संख्या पांच मानी जाए  तो इस ‘आयुष्मान भारत’ योजना के तहत 50 करोड़ मरीजों का इलाज हो सकेगा।
मुफ्त इलाज की सुविधा मिलेगी  तो बड़ी संख्या में मरीज अस्पतालों में पहुंचने लगेंगे।पर इतनी  बड़ी संख्या में मरीजों को संभालने के लिए देश में फैले अस्पताल कम पड़ जाएंगे।
निजी और सरकारी अस्पतालों का जाल बिछाना पड़ेगा।
बड़ी संख्या में  सरकारी अस्पताल खोलने के लिए सरकार के पास साधनों की कमी पड़ेगी।
पर, निजी अस्पतालों के लिए इस आयुष्मान भारत योजना ने नयी संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं।
निजी अस्पतालों के लिए प्रखंड स्तरों पर भी संभावनाएं बन
सकती हैं।पहले तो बिजली और सड़क के अभाव के कारण भी सुदूर इलाकों में 
अस्पताल नहीं खुल पा रहे थे।अब इन दोनों मामलों में विकास हो रहा  है।
एक न्यूनत्तम पक्की आय की संभावना भी पहले कम ही थी।
अब यह नयी योजना ही आय की संभावना बढ़ा देगी।
वैसे भी प्रादेशिक राजधानियों में राष्ट्रीय स्तर के अस्पताल समूहों के जाल फैलते जाने के कारण छोटे अस्पतालों के अर्ध ग्रामीण इलाकों में फैलने की मजबूरी भी होगी।
पर बिजली -सड़क की तरह ही यदि बिहार  सरकार कानून -व्यवस्था की स्थिति को  थोड़ा और बेहतर कर दे तो  अधिकाधिक संख्या में निजी अस्पताल खुलने की संभावना और बढ़ जाएगी।
  इन अस्पतालों से न सिर्फ अधिकाधिक लोगों तक गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा की सुविधा पहुंचेगी बल्कि प्रमंडल स्तर पर स्थित बड़े सरकारी अस्पतालों पर मरीजों का दबाव भी घटेगा। 
  
ऋषिकेश की गंगा कब पहुंचेगी पटना ?---
 केंद्र सरकार नेपाल की शारदा नदी उर्फ महा काली के अतिरिक्त पानी को यमुना नदी में लाने की कोशिश में लग गयी है।दोनों नदियों को जोड़ने से ऐसा संभव है।
यदि इस प्रस्ताव को कार्य रूप दिया जा सका तो इससे सूखती यमुना नदी का तो कुछ भला हो ही जाएगा। 
पर ऋषिकेश के औषधीय गुण वाले गंगा जल को पटना और उससे आगे  तक पहुंचाने के लिए केंद्र सरकार क्या कर रही है।
गंगा की अविरल धारा में बीच की बाधाओं को क्या कभी दूर किया जा सकेगा ?
गंगा को अविरल बनाये बिना उसे निर्मल बनाने का सपना साकार नहीं हो सकता।
शुद्ध सत्तू के उत्पादन की उम्मीद--- 
मोतिहारी जेल में सत्तू,सरसों तेल और मसालों के उत्पादन की योजना बन रही है।
 यदि सचमुच उत्पादन शुरू हुआ और गुणवत्तापूर्ण सामग्री तैयार होने लगीं तो उसकी बिक्री जेल के बाहर भी होगी।खूब होगी।
यह एक अच्छा अवसर है।
मेरी जानकारी के अनुसार आज कहीं भी चने का शुद्ध सत्तू बिक्री
के लिए उपलब्ध नहीं है। यदि कहीं है भी तो मुझे नहीं मालूम।
कुछ व्यापारी तो साफ -साफ कह देते हैं कि 
यदि हम शुद्ध बनाएंगे तो मुनाफा कौन कहे,  घोटा होगा।
  यदि मोतिहारी जेल में शुद्ध सत्तू बनने लगे तो कमाल हो जाएगा।जेल की आय बढ़ जाएगी क्योंकि उस सत्तू की राज्य भर से भारी मांग हो सकती है। 
सत्तू के उत्पादन और बिक्री के काम में लगे लोगों के लिए यदि ‘घोटाला क्षतिपूत्र्ति भत्ता’ का प्रबंध कर दिया जाए तो उसकी शुद्धता शायद बनी रह सकती है।
घोटाला क्षतिपूत्र्ति भत्ता यानी ऐसे व्यवसाय में घोटाले के जरिए जो नाजयज कमाई होती है,उतनी राशि विश्ेाष प्रोत्साहन भत्ता के रूप में सरकार उन्हंे देने लगे तो सत्तू की शुद्धता शायद बनी रह सकती है।हालांकि यह भी देखा गया है कि लालच की कोई सीमा नहीं होती है।
कुछ डाक्टर तो नन-प्रैक्टिसिंग भत्ता भी लेते हैं और प्रायवेट  प्रैक्टिस भी करते हैं।हालांकि एक जेल जैसी छोटी जगह पर घोटाले पर काबू पाना आसान होगा, यदि अफसर चाहें।ं शुद्ध उत्पादन के ऐसे काम में लगे अफसरों का  नाम भी होगा।
भारत-नेपाल खुली सीमा आतंकियों के लिए अनुकूल ----- 
इंडियन मुजाहिदीन के दो आतंकी तौकिर और जुनैद की गिरफ्तारी के बाद यह पता चला कि इन्हें नेपाल स्थित एक इस्लामी संगठन से मदद मिल रही थी।
तौकिर और जुनैद पर भारत के कई शहरों में धमाके करने का आरोप है।
याद रहे कि सिमी पर प्रतिबंध लग जाने के बाद उसके सदस्यों ने इंडियन मुजाहिददीन का गठन किया।
सिमी का उद्देश्य हथियार के बल पर इस देश में इस्लामी शासन कायम करने का था।आई एम कव भी वही लक्ष्य  है।इसके बावजूद इस देश के कई राजनीतिक दलों के बड़े बड़े नेतागण सिमी को ‘छात्रों का निर्दोष संगठन’ बताते रहे।
खैर अब इस देश को खतरा नेपाल स्थित उस संगठन से है जो  इस देश के आतंकियों को शरण व मदद दे रहा है।
भारत की सुरक्षा व जांच एजेंसियांें की परेशानी बढ़ी हुई हें
खुली सीमा के कारण आतंकियों को नेपाल में प्रवेश पाने या वहां से आकर इस देश में आंतकी गतिविधियां करने में काफी सुविधा हो जाती है।अब जब नेपाल में चीन समर्थक कम्युनिस्ट सरकार बन चुकी है,भारत की चिंता बढ़नी स्वाभाविक है।
 वैसे तो काम कठिन है ।पर  भारत की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए खुली सीमा की पुरानी व्यवस्था पर एक न एक दिन भारत को पुनर्विचार करना ही पड़ेगा।
अधिक नहीं तो थोड़ी और चैकसी तो तत्काल बढ़ानी ही पड़ेगी। 
   एक भूली बिसरी याद-----
आज डा.राम मनोहर लोहिया का जन्म दिन है।
पर वे अपना जन्म दिन खुद नहीं मनाते थे।
क्योंकि 23 मार्च को ही सरदार भगत सिंह को फांसी दी गयी थी।कहते थे कि ऐसे शोक दिवस पर अपना जन्म दिन क्या मनाना !
पर, उनके लोग तो उन्हें याद करते ही है।
इस अवसर पर उनके एक ‘वोट घटाऊ’ बयान की मैं याद दिला रहा  हूं।
स्वाभाविक ही है कि चुनाव के वक्त कोई नेता भूल कर भी ऐसा बयान नहीं देता जिससे उसका वोट घटे।या घटने की  आशंका भी हो।पर लोहिया तो अलग ढंग के नेता थे।
1967 में डा. लोहिया उत्तर प्रदेश के कन्नौज से लोक सभा का चुनाव लड़ रहे थे।
उन्हीं दिनों उन्होंने यह बयान दे दिया कि देश में सामान्य नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए।बयान अखबारों में छपा।
 इस पर समाजवादी कार्यकत्र्ता भी परेशान हो गए।उनको लगा कि अब तो मुसलमान मतदाता लोहिया को वोट नहीं ही देंेगे।नतीतजन वे हार जाएंगे।
जबकि लोहिया का संसद में जाना जरूरी है।
1963 से 1966 तक लोक सभा में उन्होंने बहुत प्रभाव छोड़ा था।उससे उनकी पार्टी का फैलाव भी हुआ था।
  उन दिनों समाजवादी कार्यकत्र्ता भी लोहिया से खुल कर बात करते थे।
एक समाजवादी नेता ने उनसे सवाल कर दिया, ‘ डाक्टर साहब, आपने ऐसा बयान क्यांे दे दिया ?
अब तो चुनाव में आपको मुश्किल होगी।’
इस पर लोहिया ने जो जवाब दिया,उस पर  ध्यान देने लायक है।उन्होंने कहा कि राजनीति संसद का सदस्य बनने के लिए नहीं की जाती है।मैं जिस बात को सही समझता हूं,उसे वोट के लालच में नहीं कहूं,? यह मुझसे नहीं होगा।
इस बयान के कारण  लोहिया उस चुनाव में सिर्फ चार सौ मतों से ही विजयी हो सके थे। 
     और अंत मंे----
ताजा खबर के अनुसार भारत में 30 करोड़ लोग हर दिन भूखे पेट सोने को मजबूर हैं।
उन तीस करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व व चिंता करने वाले जन प्रतिनिधियों की संख्या दिन प्रति दिन कम ही होती जा रही है।इस बार राज्य सभा की 58 सीटों के लिए द्विवार्षिक चुनाव हो रहा है।इनके उम्मीदवारों में से 87 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं।
@मेरे काॅलम कानोंकान -प्रभात खबर-बिहार-23 मार्च 2018 से@

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

कल 23 मार्च को डा.राम मनोहर लोहिया का जन्म दिन 
है।उस अवसर के लिए दो  शब्द
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प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी राम नंदन मिश्र लिखते हैं--
1962 के चुनाव में पिट कर  राम मनोहर काशी 
की गंगा में मेरे साथ एक नौका में बैठे विचार मंथन कर रहे थे।
वे मुझसे पूछते हैं, ‘राम नंदन, इस तरह क्यों हो रहा है ?
मैं उनसे कहता हूं, ‘ राम मनोहर, चरित्र हीनता और उन्मत्तता
के ताण्डव नृत्य के बीच तुम सृजन की क्रिया नहीं कर सकते।
इस सड़ी हुई समाज की धरती में सर्वोदय या समाजवाद जिसका भी पौधा डालोगे, वह सड़ेगा ही।’
  1967 के चुनाव में लोहिया  कांग्रेस को राजसत्ता के एकाधिकार से गिराने में तो सफल हो गए,लेकिन सृजन के काम में सफल नहीं हुए।अतृप्त भोगों की वासना और अवसरवादिता उनकी अपनी जमत में भी जलती ही रही।’



बिहार दिवस पर  खुश होने वाली कुछ बातें 
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 पश्चिम बंगाल जब बिहार की सराहना करता है तो बिहारी मानस खुश होता है। बिहार  सन 1912 तक  बंगाल का ही हिस्सा था।
कुछ साल पहले पश्चिमं बंगाल सरकार ने बिहार के कुछ कामों को अपनाया था।
   एक जमाने में एक कहावत प्रचलित थी कि बंगाल जो कुछ आज सोचता है, बाकी भारत कल उसका अनुसरण करता है। कई कारणों से अब वह बात नहीं रही। 
   पश्चिम बंगाल की वाम सरकार ने बिहार का अनुसरण करते हुए अपने यहां की नौंवी कक्षा की छात्राओं को मुफ्त साइकिल देने का निर्णय किया था।
  मन मोहन सरकार के कार्यकाल के  वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने राज्य सभा में कहा था कि बिहार में विकास दर 13 फीसदी रही जो सराहनीय है।राज्य के लिए विशेष पैकेज एक हजार करोड़ रुपये से बढ़ा कर दो हजार करोड़ रुपये कर दिया गया है।बिहार जब बंगाल का हिस्सा था,और उसके बाद के वर्षों में भी बिहार के बारे में आम बंगाली मानस में कोई अच्छी धारणा नहीं थी।बंगाल से लौटे बिहारी ग्रामीण बताते थे कि हमें वहां सत्तूखोर कहा जाता है।
 पर  स्थिति बदली है।बंगाली नेताओं से सराहना पाकर बिहार को खुशी होती है।
    ममता बनर्जी जब रेल मंत्री थीं तो उन्होंने रेल बजट प्रस्ताव में यह घोषणा की थी  कि वह 16 हजार पूर्व सैनिकों को रेल यात्रियों की सुरक्षा के लिए बहाल करेगी।
   ऐसा करके ममता बनर्जी ने बिहार फार्मूला को ही अपनाया था।
 कभी  बौद्धिक उच्चता  के किले में कैद वाम मोर्चा को  सन 2009 में लोक सभा चुनाव में भारी चुनावी पराजय का मुंह देखना पड़ा था। उसके बाद पिछड़े  अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने की उसे सूझी।इससे पहले वाम मोर्चा जाति के आधार पर  आरक्षण के प्रावधान को प्रतिगामी कदम मानता रहा है।उसे समाज में सिर्फ वर्ग यानी क्लास ही नजर आता था।यूरोप के चश्मे से भारतीय समाज को देखने का यही नतीजा है।

  पर, सन 2009 की चुनावी पराजय के बाद बंगाल के वाम नेताओं ने नये विचार के लिए बिहार की ओर रुख किया।बिहार में पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण का प्रावधान  है।तब एक सत्ताधारी वाम नेता ने बिहार में अपने सूत्रों के जरिए यह पता किया था कि किस तरह बिहार ने पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया है।पटना से उन्हें उसका स्वरूप  बता दिया गया।
@2018@

गुरुवार, 22 मार्च 2018

अचानक बी. जी. वर्गीस की याद आ गयी।
वैसे यह अचानक भी नहीं था।
इन दिनों जब मैं सुनता हूं कि दिल्ली के कुछ पत्रकारों के अपने बड़े -बड़े फार्म हाउसेस और न जाने क्या -क्या हैं तो एक संत पत्रकार की याद आना स्वाभाविक ही है।
एक्सप्रेस के मालिक राम नाथ गोयनका ने उन्हें संत ही कहा था।
गोयनका ने वर्गीस कहा था कि तुम्हें यहां नहीं बल्कि वेटिकन सिटी में रहना चाहिए था।
1969 से 1975 तक हिन्दुस्तान टाइम्स का संपादक रहने के बाद वर्गीस  1982 में इंडियन एक्सप्रेस ज्वाइन कर रहे थे।
जब वेतन की बात चली तो गोयनका जी ने कहा कि एक्सप्रेस के संपादक का वेतन 20 हजार रुपए मासिक है।
वर्गीस ने कहा कि मेरा काम तो दस हजार रुपए में ही चल जाएगा।
गोयनका ने कहा कि कैसी बात करते हो ? इस पद के लिए इतना ही वेतन है, मैं इसे कम कैसे कर सकता हंू ?
इस पर वर्गीस ने कहा कि पत्रकार के पास अधिक पैसे नहीं होने चाहिए।फिर तो वह पत्रकार नहीं रह जाता।
 पत्रकारिता पर गर्व करने वाली यह कहानी मुझे प्रभाष जोशी ने सुनाई  थी।
मैं उनसे पूछ नहीं सका था कि आखिर अंततः वे 10 हजार ही लेते थे या 20 लेना स्वीकार कर लिया था ?खैर, उस जानकारी का कोई महत्व भी नहीं था। सवाल है कि क्या आज कोई बड़ा पत्रकार यह कह सकता है कि मेरा तो इतने ही में चल जाएगा ?
वर्गीस का जन्म 1926 में हुआ था।उनका निधन 2014 में हो गया। 

बुधवार, 21 मार्च 2018

 सिटी आॅफ होप नेशनल मेडिकल सेंटर के एक शोध में पाया गया है कि दांतों के खराब स्वास्थ्य का मधुमेह से गहरा संबंध है।
 गांधी जी कहते थे कि बीमारी हमारे ही पापों का परिणाम है।
दांतों की देखभाल पर भी गांधी की बात लागू होती है।
मैंने खुद अपनी गलती से अपना एक दांत गंवा बैठा।
गलती सुधार कर 
 बाकी को अब तक बचाए रखा है।
मुख्यतः दो उपाय किए।
एक उपाय पूर्व बिहार विधान पार्षद रघुनाथ गुप्त ने बताया था।
उन्होंने कहा कि रोज ब्रश करने के बाद अपनी अंगुली से पांच मिनट तक मसूंड़ों की हल्की मालिश कीजिए।
पांच मिनट तो नहीं,पर दो मिनट जरूर करता हूंं।फायदा है।
दूसरा लाभ पतंजलि के दंत कांति एडवांस टूस्ट पेस्ट से हुआ।हालांकि उसी कंपनी के दंतकांति और दंतकांति मेडिकेटेड से कोई लाभ नहीं हुआ था।
सुबह के अलावा रात के भोजन के बाद ब्रश करने की आदत सी हो गयी है।
एक दंत चिकित्सक की राय है कि सुबह में नाश्ते के बाद ही ब्रश करें।हर तीन महीने पर ब्रश को बदल देने से भी लाभ होता है। 

 8 सितंबर 2012 को लोक सभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कहा था कि संसद के काम काज को बाधित करना भी लोकतंत्र का एक फार्म है जिस तरह लोकतंत्र के अन्य रूप-विधान हैं।
स्वराज ने यह भी कहा था कि प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह जब राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे तो उन्होंने भी तहलका के मुद्दे पर संसद के काम काज को बाधित किया था।
  अब विदेश मंत्री सुषमा स्वाराज इस बात पर सख्त नाराज हैं कि उन्हें  इराक में मृत 39 भारतीय नागरिकों के बारे में अपनी बात लोक सभा में नहीं रखने दी।कांग्रेस के सदस्यों ने भारी हंगामा कर दिया।
उधर 12 दिनों से संसद में जारी हंगामे से खफा राज्य सभा के सभापति वेंकैया नायडु ने सांसदों को दिए जाने वाले रात्रि भोज को रद कर दिया।
 दरअसल जो भी दल प्रतिपक्ष में रहता है, वह संसद व विधान सभाओं को लोकलाज त्याग कर ‘हंगामा सभा’ बना ही देता है।
पर वही दल जब सत्ता में होता  है तो संसद के काम काज में बाधा पहुंचाने की आलोचना करता है।
 अपने देश के गैर जिम्मेदार नेताओं की इस करतूत पर सही सोच वाले सारे लोग छि छि करते हैं।
क्या नेतागण चाहते भी हैं कि सदन सुचारू रुप से चले ?
लगता तो नहीं है।पर यदि चाहते हैं तो एक उपाय मेरी समझ में आता है।इसके लिए सभी दलों को इस पर सहमत होना होगा।
पिछली गलतियों के लिए उन्हें सार्वजनिक रूप से देश से माफी मांगनी होगी।क्योंकि उन्होंने संसदीय लोक तंत्र को कलुुषित किया है। ं 
अन्यथा इस देश का संसदीय लोक तंत्र सभ्य लोगों का लोक तंत्र नहीं कहलाएगा।चाहे आप उन हंगामा करने वालों को अपने मन -मिजाज के अनुसार अन्य जो भी नाम दे दें।


  
   

मंगलवार, 20 मार्च 2018

लड़का मालिक ,बूढ़ दीवान,
मामला बिगड़े सांझ-बिहान !
अरविंद केजरीवाल नामक ‘लड़के’ के बारे में 2015 में  किरण बेदी ने कहा था कि क्या वे अब भी  लरनर लाइसेंस के ही साथ  गाड़ी चला रहे हैं ?
  तब तो कुछ लोगों को लगा था कि वे राजनीतिक द्वेषवश ऐसा बोल रही हैं।पर अब जब केजरीवाल ने मानहानि के मुकदमों के सिलसिले में एक पर एक माफी मांगनी शुरू कर दी है तब आप क्या कहेंगे ?
अरे भई, किसी के खिलाफ कोई आरोप लगाने से पहले यह तो देख लो कि यदि वह केस करेगा तो उसका जवाब देने के लिए आपके पास कोई सबूत है भी या नहीं ?
 कुछ दशक पहले  एक व्यवसायी ने एक पत्रकार पर मानहानि का मुकदमा दायर किया।
पर जब सुलह के लिए पत्रकार व्यापारी के यंहां गया तो उस व्यापारी ने कहा कि आपने जो लिखा है,वह शत प्रतिशत सही है।पर अपने बचाव में  कोर्ट में पेश करने के लिए आपके पास मेरे खिलाफ कोई सबूत नहीं है।
 दरअसल वह पत्रकार केजरीवाल की तरह ही अपरिपक्व था।
बिहार में  इन दिनों एक नेता दूसरे पर रोज-रोज  जिस तरह के धुआंधार गंभीर आरोप लगाते हुए अखबारों में बयान देते रहते हैं,यदि मानहानि के मुकदमे होने लगें तो न जाने कितने नेताओं को केजरीवाल की तरह घुटने टेकने पड़ेंगे !

संसद वाले आइटम में  मेरा कोई योगदान नहीं था।पर बाद में बिहार विधान सभा और विधान परिषद को लेकर मैंने उसी तरह की अलग -अलग रपट लिखी थी।उसके छपने के बाद  कांग्रेसी विधायक राधा नंदन झा ने मेरे  और जार्ज फर्नांडिस के खिलाफ  विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया था।
  मेरा पता तो विधान सभा सचिवालय के पास था नहीं।पर जार्ज को यहां से नोटिस जाती रही।इस बीच इमरजेंसी लग गयी।
जार्ज बड़ौदा डायनामाइट केस में गिरफ्तार कर लिए गए।
जार्ज ने मुझे 1977 में बताया था कि मुझे  बिहार विधान सभा की विशेषाधिकार समिति के सामने हाजिर कराने के लिए बी.एस.एफ. के विमान से दिल्ली से पटना लाने की सारी तैयारी हो चुकी थी।
पर प्रधान मंत्री ने बीच में रोक दिया।
उन्हें लगा होगा कि जार्ज वहां जाकर पता नहीं कैसा हंगामा कर दे ! 

सोमवार, 19 मार्च 2018

 जे.बी.कृपलानी की आज पुण्य तिथि है।सन 1982 में इसी दिन उनका निधन हो गया।
यदि आप आज  की नयी पीढ़ी के किसी व्यक्ति से पूछेंगे कि कृपलानी जी कौन थे तो शायद वह नहीं बता सकेगा।
इसलिए  मैं  बता दूं कि  उस समय वही कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे जब देश आजाद हो रहा था।
पर 1951 में उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था।
उन्होंने किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई।1952 के चुनाव के बाद  सोशलिस्ट पार्टी के साथ उसका विलय हो गया।नाम पड़ा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी। 
 कृपलानी जी को लोग ‘दादा’ कहते थे।यह नाम उन्हें बिहार के ही एक क्रांतिकारी ने दिया था।
वह क्रांतिकारी राम विनोद सिंह, कृपलानी जी के छात्र थे।
सिंध में जन्मे कृपलानी बिहार के मुजफ्फर पुर के एल.एस. कालेज में शिक्षक थे।तब इस कालेज का नाम कुछ और था।
कृपलानी जी गांधी जी से प्रभावित होकर कांग्रेस में शामिल होने से पहले क्रांतिकारियों के साथ थे।
राम विनोद सिंह भी क्रांतिकारी जमात में थे।
राम विनोद सिंह, जो बाद में कांग्रेस के विधायक  बने, सारण जिले के मलखाचक के मूल निवासी थे।राम विनोद बाबू जब सख्त बीमार थे तो कृपलानी जी उनसे मिलने पटना आए थे।
 पर ऐसा ही व्यवहार तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने कृपलानी जी के साथ नहीं किया।अनेक लोगों को यह शिकायत रही कि कृपलानी जी का जब निधन हुआ था तो प्रधान मंत्री  विदेश यात्रा पर चली गयीं।उन्हें स्थगित कर देनी चाहिए थी।पर सवाल है कि जब डा.राजंद्र प्रसाद के निधन  के बाद जवाहर लाल नेहरू ने अपनी जय पुर यात्रा स्थगित नहीं की तो इंदिरा गांधी विदेश यात्रा कैसे स्थगित कर देतीं ! खैर जिसकी जो मर्जी !
बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष ने कृपलानी जी के निधन पर शोक प्रस्ताव रखना चाहा।पर उसकी मंजूरी नहीं मिली।विरोध में प्रतिपक्षी सदस्यों ने सदन से वाक आउट किया।
 कृपलानी जी ने आजादी के आंदोलन में सक्रिय सुचेता से 
प्रेम विवाह किया था।
कुछ कारणवश उनका प्रेम जब लंबा खिंचने लगा और शादी की कोई आहट नहीं आ रही  थी तो गांधी जी ने हस्तक्षेप करके शादी करवाई थी।सुचेता जी बाद में उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनीं।
कृपलानी जी के निधन के बाद मशहूर पत्रकार व विचारक राज किशोर ने ‘रविवार’ में लिखा था कि ‘कृपलानी जी की किसी से नहीं पटी क्योंकि वे झूठ और आडंबर से एक क्षण के लिए भी समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे।
वे अपनी वाणी का इस्तेमाल चाबुक की तरह करते थे।इसकी तनिक भी परवाह नहीं करते थे कि उनसे कौन आहत हो रहा है।लेकिन इसके पीछे उनका अहं या आत्म मुग्धता नहीं होती थी।वे सार्वजनिक जीवन में शुद्धि के लिए चिंतित रहते थे।’
 जय प्रकाश नारायण का अमृत महोत्सव पटना के गांधी मैदान में मनाया जा रहा था।मैं भी संवाददाता के रूप में शामिल था।
उसमें कृपलानी जी ने जो भाषण दिया ,वह सुनकर मुझे नया अनुभव हुआ।
 ऐसे अवसरों पर उस व्यक्ति का सिर्फ गुणगान ही किया जाता है जिसका अमृत महोत्सव मनाया जाता है।पर कृपलानी जी ने जेपी की उपस्थिति जेपी की कमियों की  भी विस्तार से चर्चा की थी।पर किसी ने उसे बुरा नहीं माना।
क्योंकि सब जानते थे कि ऐसे ही हैं कृपलानी जी।


शनिवार, 17 मार्च 2018

 1972 की बात है।कर्पूरी ठाकुर बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।
विधान सभा भवन स्थित अपने आॅफिस के मुख्य टेबल पर उनके निजी सचिव व कर्पूरी जी के लिए दोपहर का खाना आया।
   निजी सचिव खाना खाकर पहले ही उठ गया।हाथ धोने बेसिन की ओर चला गया।
उसने जूठी थाली टेबल पर ही छोड़ दी।
कर्पूरी जी ने जब अपना खाना खत्म किया तो उन्होंने एक हाथ से अपनी और दूसरे हाथ से अपने निजी सचिव की थाली उठाई और कमरे के बाहर रख दिया।कर्पूर्री जी भी हाथ धोने चले गए।
बेसिन थोड़ा दूर था।
इस बीच निजी सचिव आ गया।वहां पहले से बैठे प्रणव चटर्जी ने निजी सचिव से पूछा, ‘आपको पता है कि आपकी थाली किसने उठाई ?’
निजी सचिव ने कहा कि दुर्गा ने उठाया होगा।दुर्गा कैंटीन का स्टाफ  था।
बक्सर के  पूर्व विधायक  प्रणव जी ने कहा कि ‘नहीं आपकी जूठी थाली खुद कर्पूरी जी उठाई और बाहर रखा।’
यह सुनकर  निजी सचिव शर्मिंदा हो गया। 
 यदि कर्पूरी जी की जगह कोई अन्य नेता, खास कर आज का कोई नेता होता तो उस स्थिति में वह क्या करता ?

चारा घोटालेबाजों  ने समिति की छपी रपट 
भी नहीं होने दी थी विधान सभा में पेश
         
 पशु पालन माफिया ने घोटाले से संबंधित निवेदन समिति की एक रपट को बिहार विधान सभा में पेश तक होने से भी रोक दिया था।
उस पर कोर्रवाई की बात कौन कहे !
यह अस्सी के दशक की बात है।उस छपी रपट में पशु पालन घोटाले का विस्तृत ब्योरा था।
  समिति ने अपनी रपट में मामले की जांच सी.बी.आई.से कराने की जरूरत बताई  थी।
 याद रहे कि अस्सी के दशक में बिहार में कांग्रेस की सरकार थी।
लालू प्रसाद ने 1990 में मुख्य मंत्री पद संभाला।उसके बाद तो घोटालेबाजों ने सारी सीमाएं तोड़ दी।
  संभवतः इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास की यह पहली घटना होगी कि छपी रपट को पेश होने से रोक दिया जाए।
विधान सभा की किसी समिति की रपट का प्रकाशन  स्पीकर के लिखित आदेश के बाद होता है।निवेदन समिति की रपट को छापने का आदेश तत्कालीन स्पीकर ने दे दिया था।
रपट छप भी गयी।
पर जब उसे सदन में पेश करने का अवसर आया तो पशु पालन माफियाओं ने उसे पेश ही नहीं होने दिया।
 राम लखन सिंह यादव के सभापतित्व वाली उस समिति ने स्थल निरीक्षण करके हजारों संबंधित  लोगों से बात की थी।रपट में यह लिखा गया कि किस तरह पशुपालन विभाग के पैसों की लूट मची है और किस तरह की उच्चस्तरीय साठगांठ चल रही है।
  रपट में सी.बी.आई.से जांच कराने की जरूरत महसूस की गयी।
याद रहे कि समितियों की रपट सदन में पेश होने के बाद उस रपट पर सदन की मुहर लग जाती है।
 उसके बाद अब सरकार की जिम्मेदारी होती है कि उस रपट की सिफारिश पर आगे क्या कार्रवार्र्ई करती है।
पर वह रपट तो पेश ही नहीं हुई।
पर उसकी एक काॅपी इन पंक्तियों के लेखक के पास जरूर आ गयी थी।कुछ अन्य पत्रकारों को भी मिली थी।
 उस रपट के बारे में निवेदन समिति के सभापति राम लखन सिंह यादव ने कहा था कि ‘रपट मैंने बहुत कठिनाइयों के बाद छपवायी थी।
 बहुत टाल मटोल के बाद मेरे आग्रह पर रपट को विधान सभा के  कार्यक्रम में रखना तय हुआ था।’राम लखन सिंह यादव बाद में केंद्र में मंत्री भी हुए थे।
सी.बी.आई. ने 1996 में जब चारा घोटाले की जांच शुरू की तो उसने विधान सभा सचिवालय से उस रपट के बारे में जानकारी लेनी चाही।
 उसे पता चला कि उस रपट की काॅपी गायब है।
 जिस संबंधित बैठक में उस रपट को सदन में पेश नहीं करने का निर्णय हुआ था,उस बैठक कार्यवाही पुस्तिका भी विधान सभा सचिवालय से गायब कर दी गयी थी।
 तब  पूरे विधान सभा सचिवालय पर  माफियाओं के  असर की चर्चा राजनीतिक व मीडिया सर्किल में होती रहती थी।
 1985 से मार्च, 1989 तक प्रो.शिवचंद्र झा बिहार विधान सभा के स्पीकर थे।प्रो.झा ने इस संबंध में बताया था कि ‘लंबे समय से पशु पालन विभाग के संबंध में कोई विधायक प्रश्न नहीं पूछते थे।
पूछते भी थे तो उनका सवाल सदन में नहीं आ पाता था।
इस पृष्ठभूमि में एक विधायक नवल किशोर शाही ने पशुपालन विभाग में भ्रष्टाचार से संबंधित 19 जुलाई 1985 को एक निवेदन प्रस्तुत किया।
उसे मैंने स्वीकृत किया और वह मामला निवेदन समिति को जांच के लिए सौंप दिया गया।
पर उस रपट के सदन में पेश होने से पहले ही मैंने स्पीकर पद से इस्तीफा दे दिया।
मैं नहीं जानता कि उस रपट का क्या हश्र हुआ।जितनी मेरी जानकारी है,उसके अनुसार वह रपट सदन में पेश नहीं की गयी।’  
   माफियाओं का विधान सभा सचिवालय पर असर का एक दूसरा उदाहरण नब्बे के दशक में सामने आया।
एक पत्र के जवाब में 1996 के जून में विधान सभा सचिवालय ने सी.बी.आई.को लिखा कि 
1990 से 1995 तक बिहार विधान सभा में पशुपालन विभाग से संबंधित एक भी सवाल सदन में नहीं पूछा गया।संसदीय इतिहास की यह एक अनोखी घटना थी।
  राजनीतिक हलकों में अलग से इस बात की चर्चा होती रहती थी कि जैसे ही कोई विधायक पशु पालन विभाग से संबंधित कोई सवाल विधान सभा सचिवालय में जमा करता था, उसकी खबर संबंधित पशुपलान माफिया को लग जाती थी।
  पशुपालन माफिया संबंधित विधायक से अलग से मिल लेता था।
विधायक ‘संतुष्ट’ हो जाता था।
इसलिए प्रश्न के सदन तक पहुंचने की नौबत ही नहीं आती थी।
बिहार विधान सभा की लोक लेखा समिति के पूर्व सभापति डा.जगदीश शर्मा को चारा घोटाले में दोषी ठहराते हुए रांची की सी.बी.आई. की विशेष अदालत ने हाल में सात साल की सजा दी है।
नब्बे के दशक में डा.शर्मा जब सभापति थे तो उन्होंने मुख्य मंत्री को एक पत्र लिखा था।चारा घोटालेबाजों को लाभ पहुंचाने के लिए शर्मा ने लिखा कि सरकार की कोई एजेंसी पशु पालन विभाग पर  घोटाले के आरोपों की जांच नहीं करेगी।उसकी जांच हमारी लोक लेखा समिति करेगी।
 ऐसा पत्र लिख कर उन्होंने निगरानी जांच रोकवायी और खुद भी जांच नहीं की।मामला को लटकाए रखा।
बाद में पता चला कि डा.शर्मा ने ऐसी चिट्ठी स्पीकर की अनुमति के बिना ही मुख्य मंत्री को लिखी थी।

  


 यदि सपा और बसपा मिल कर चुनाव लड़ेंगी तो 2019 में
उत्तर प्रदेश में लोक सभा की 80 में से सिर्फ 23 सीटें ही भाजपा को मिल पाएंगी।
हाल के उप चुनावों का यही संदेश है।
 चुनावी आंकड़ों के गहन विश्लेषण से यही तस्वीर बनती है।
पर, बिहार के हाल के उप चुनावों ने यह संकेत दिया है कि यह राज्य 2019 में राजग को खुश कर सकता है।
 ऊपर से  देखने से तो यही लगता है कि बिहार की तीन सीटों में से दो सीटों पर राजद को जीत मिली है।
पर विधान सभा क्षेत्रवार विश्लेषण से दूसरी ही तस्वीर सामने आती है।
बिहार में अररिया लोक सभा और जहानाबाद तथा भभुआ विधान सभा क्षेत्रों में उप चुनाव हुए थे।इन क्षेत्रों में पिछली बार जिस दल को सफलता मिली थी,उन्हीें दलों को इस बार भी मिली।
अररिया लोक सभा क्षेत्र के नीचे पड़ने वाले छह विधान सभा 
क्षेत्रों में से इस उप चुनाव में चार में राजद हार गया है।
दो मुस्लिम बहुल क्षेत्रों यानी अररिया और जोकी हाट में राजद को इतने अधिक वोट मिल गए  कि राजद उम्मीदवार लोक  सभा पहुंच गया।वहां आक्रामक वोटिंग हुईं।
 याद रहे अररिया विधान सभा क्षेत्र में  मुस्लिम आबादी 59 प्रतिशत और जोकी हाट में 70 प्रतिशत है।
 यानी बिहार के जिन चुनाव क्षेत्रों में यादव -मुस्लिम की मिली -जुली आबादी निर्णायक  है,वहां से राजद को अब भी उम्मीद बनी हुई है।
याद रहे कि भभुआ विधान सभा  क्षेत्र में भाजपा को पिछली बार की अपेक्षा इस उप चुनाव में अधिक वोट मिले हैं।भाजपा उम्मीदवार की जीत हुई है।उधर जहानाबाद व अररिया में राजद विजयी रहा।
यानी यदि हाल के उप चुनावों को विधान सभा चुनाव क्षेत्रों की दृष्टि से देखें तो बिहार की इन आठ विधान सभा सीटों में से पांच में राजग की जीत हुई है।
 पर ,उत्तर प्रदेश में राजग के बारे में फिलहाल यही कहा जा सकता है कि ‘गईल गईया पानी’ में ।
  अब नरेंद्र मोदी तो इंदिरा गांधी हैं नहीं जो 1969 की तरह रौद्र रूप दिखाएंगे ! इंदिरा गांधी ने तब बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर के और राजाओं के प्रिवी पर्स-विशेषाधिकर समाप्त करके पांसा पलट दिया था।वैसे भी न तो मोदी जी, इंदिरा जी की तरह एकाधिकारवादी हैं और न ही भाजपा पर नरेंद्र मोदी वैसा वर्चस्व है जैसा इंदिरा जी का अपनी पार्टी पर था।
वैसे आज भी बैंक-प्रिवी पर्स जैसे करने को तो इस देश में कई काम बाकी हैं।

पूर्व मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने हाल में कहा  कि परीक्षा में थोड़ा बहुत पूछ लेना नकल नहीं।
योगी सरकार के नकल विरोधी अभियान की आलोचना करते हुए अखिलेश ने यह भी कहा कि ‘90 प्रतिशत लोगों ने अपने छात्र जीवन में परीक्षा में थोड़ी -बहुत पूछताछ की होगी।मैंने भी की है।’
 इस बयान के बाद यह सवाल उठता है कि क्या फूल पुर-गोरख पुर लोस उप चंुनाव पर भी सरकार के नकल विरोधी कदमों का असर पड़ा है ?क्या  भाजपा उम्मीदवारों की हार का यह भी एक कारण रहा ?
1992 में कल्याण सिंह सरकार ने  नकल विरोधी कानून बनाया था।कानून बहुत कड़ा था।
मुलायम सिंह यादव ने 1993 के  उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया।
उसका चुनावी लाभ भी सपा को मिला।कल्याण सिंह की पार्टी सत्ता से बाहर हो गयी।
इन दिनों पूरे देश में नकल माफिया सक्रिय हैं।इससे प्रतिभाओं का बड़े पैमाने पर हनन हो रहा है।
फिर भी देश की अधिकतर सरकारें कारगर कार्रवाई नहीं कर पा रही हैं।
क्योंकि उन्हें चुनाव हारने का डर है।
कहां जा रहा है अपना देश ? ़ 

 रक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने कहा है कि
बजट प्रावधान सेना की जरूरतों के अनुपात में बहुत कम है।
यह भी खबर आई है कि चीन सीमा तक रेल लाइन बनाने के लिए भी अपनी सरकार के पास धन की कमी है।
 केंद्र सरकार संसाधनों की कमी का रोना रोती रहती है।
जानकार लोग बताते हैं कि इस देश में सरकारी साठगांठ से  टैक्स की भारी चोरी के कारण भी संसाधनों की कमी रहती है। 
इस स्थिति में देश की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहने वाले नागरिकों से यह उम्मीद की जाती है कि  वे अपने आसपास के टैक्स चोरों के बारे में  सूचना सरकार व संबंधी एजेंसियों को  दें ताकि देश की सुरक्षा के पोख्ता प्रबंध के लिए पैसों की कमी नहीं रहे।
 इंदिरा गांधी के शासन काल में युवा तुर्क कांग्रेसी सांसद चंद्र शेखर ने सरकार को ऐसी सूचना दी थी।इसके बदले चंद्र शेखर जी को केंद्र सरकार ने नकद इनाम भी दिया था।  
  


शुक्रवार, 16 मार्च 2018

2019 के लिए गठबंधन के दलों के बीच सीटों के बंटवारे की चुनौती


राजग और महा गठबंधन अपने घटक दलों के बीच सीटों का बंटवारा किस अनुपात में करेंगे ? यह एक बड़ा सवाल है।
याद रहे कि अगले लोक सभा चुनाव को लेकर करीब एक साल पहले से ही राजनीतिक दल तरह -तरह की तैयारियां शुरू कर देते हैं। बिहार में लोक सभा की कुल 40 सीटें हैं।
 राजग के चार घटक दल हैं।
भाजपा, जदयू, लोजपा और उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली आर.एस.एल.पी।
उधर राजद के साथ कांग्रेस और कुछ अन्य छोटे दल हैं।
जीतन राम मांझी और शरद यादव जैसे प्रमुख नेता भी राजद के साथ हैं।
अब लालू प्रसाद पर यह निर्भर करेगा कि वे एन.सी.पी.,बसपा तथा कम्युनिस्ट दलों को भी साथ लेते हैं या नहीं।
   वैसे पता नहीं चला है कि गत साल राजग में एक बार फिर शामिल होने के समय इस मुद्दे पर  भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से नीतीश कुमार की कोई बातचीत हुई है या नहीं।
पर उम्मीद की जाती है कि इन दो दलों के शीर्ष नेतृत्व आपस में बात कर किसी नतीजे पर पहुंच जाएंगे।
पर असल समस्या लोजपा और आर.एस.एल.पी.के साथ हो सकती है।
 2014 के लोस चुनाव के समय  राजग में जदयू नहीं था।
भाजपा ने लोजपा  के लिए सात और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के लिए तीन  सीटें छोड़ी थीं।
भाजपा ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ा था।
राजग को कुल 31 सीटें जीती थीं।
पर 2009 के लोक सभा चुनाव में भाजपा ने 15 और जदयू ने 25 सीटों पर लड़कर कुल 32 सीटें हासिल की थी।
2015 के विधान सभा चुनाव में राजद और जदयू ने आधी -आधी सीटें आपस में बांट ली थी।
इससे जदयू के महत्व का पता चलता है।
अब अगली बार ये चार दल सीटों का किस अनुपात में बंटवारा करेंगे,यह देखना दिलचस्प होगा।
 कई बार टिकट के बंटवारे के सवाल पर भी  गठबंधनों का स्वरूप  बनने और बिगड़ने लगता है।
  चूंकि महा गठबंधन के पास लोक सभा की सीटें पहले से बहुत कम हैं, इसलिए वे आपसी बंटवारे मंे लचीलापन अपनाने की स्थिति हैं।
पर सब कुछ राजद की उदारता पर निर्भर करता है।
यह काम आसान नहीं है।
    सी.पी.आई.को भी मिला था
    संवेदना वोट का लाभ----
1972 के बिहार विधान सभा चुनाव में दक्षिण बिहार के राम गढ़ क्षेत्र से सी.पी.आई.के मजरूल हसन खान ने चुनाव जीता था।
पर चुनाव के तत्काल बाद उनकी हत्या कर दी गयी थी।
उप चुनाव हुआ तो सी.पी.आई.ने उनकी पत्नी शहीदुन  निशा को वहां से उम्मीदवार बना दिया।
वह विजयी रहीं।कम्युनिस्ट पार्टियां आम तौर पर परिवारवाद में विश्वास नहीं करती हैं।इसके बावजूद यदि उसने दिवंगत की विधवा को खड़ा कराया तो इसलिए ताकि सीट जीतने में कोई दिक्कत नहीं हो।
पार्टी के जन समर्थन के साथ- साथ संवेदना-सहानुभति वोट का लाभ भी शहीेदुन निशा को मिला था।
   बिहार में हुए हाल के उप चुनावों में राजद और भाजपा उम्मीदवारों को यदि संवेदना-सहानुभूति का भी चुनावी लाभ मिला तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं।
कदाचार रोकने का भी चुनाव पर असर---
पूर्व मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने हाल में कहा है कि परीक्षा में थोड़ा बहुत पूछ लेना नकल नहीं।
योगी सरकार के नकल विरोधी अभियान की आलोचना करते हुए अखिलेश ने यह भी कहा कि ‘90 प्रतिशत लोगों ने अपने छात्र जीवन में परीक्षा में थोड़ी -बहुत पूछताछ की होगी।मैंने भी की है।’
 इस बयान के बाद यह सवाल उठता है कि क्या फूल पुर-गोरख पुर उप चंुनाव पर भी नकल विरोधी कदमों का असर पड़ा है ? भाजपा उम्मीदवारों की हार का यह भी एक कारण रहा ?
1992 में कल्याण सिंह सरकार ने  नकल विरोधी कानून बनाया था।कानून बहुत कड़ा था।
मुलायम सिंह यादव ने 1993 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया।
उसका चुनावी लाभ भी सपा को मिला।कल्याण सिंह की पार्टी सत्ता से बाहर हो गयी।
इन दिनों पूरे देश में नकल माफिया सक्रिय हैं।इससे प्रतिभाओं का बड़े पैमाने पर हनन हो रहा है।
फिर भी सरकारें कारगर कार्रवाई नहीं कर पा रही हैं।
क्योंकि उन्हें चुनाव हारने का डर है।
कहां जा रहा है अपना देश ? ़ 
पश्चिम बंगाल की सराहनीय पहल--- 
प्रश्न पत्रों को  लीक किए जाने से रोकने के लिए पश्चिम बंगाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने एक खास उपाय किया है।
प्रश्न पत्रों के सीलबंद पैकेट्स के स्टिकर पर माइक्रो चीप लगा दिए जाएंगे।
उस माइक्रो चीप का संबंध परीक्षा बोर्ड आफिस के सर्वर से होगा।
जैसे ही सील को तोड़ा जाएगा ,उसकी सूचना तत्क्षण बोर्ड आफिस को मिल जाएगी।
देखना है कि नकल माफिया इस उपाय की कैसी काट निकालते हंै !पर है यह नायाब उपाय ! 
1989 से पहले के कागजी सबूतों अनुपलब्ध----
जुलाई, 1997 में चारा घोटाले की जांच कर रही सी.बी.आई.के सूत्रों ने बताया था कि 1989 से पहले के घोटाले की जांच इसलिए नहीं हुई क्योंकि उस अवधि के तत्संबंधी सरकारी दस्तावेज आसानी से उपलब्ध नहीं थे।
कुल घोटाले का 80 प्रतिशत घोटाला 1989 और उसके  बाद के वर्षों में हुआ।इस अवधि के  आरोपी और कागजात आसानी से उपलब्ध थे।
1977 और 1989 के बीच की अवधि के घोटालों के कागजात व आरोपियों की तलाश में काफी समय लग सकते थे।साथ ही यह भी आशंका थी कि पता नहीं कि ंिफर भी वे मिलेंगे या नहीं।
सी.बी.आई.सूत्रों ने तब यह भी बताया था कि चारा घोटाले के मुख्य आरोपित डा.श्याम बिहारी सिंहा ने अन्य बातों के अलावा यह भी बताया था कि बिहार के एक पत्रकार को उसने 50 लाख और दूसरे को दस लाख रुपए दिए थे।पर इस लेनदेन का सबूत उपलब्ध नहीं था।यह भी नहीं कि उन लोगों ने इस रुपए के बदले घोटालेबाजों को किस तरह और क्या लाभ पहंुचाया।
 एक भूली बिसरी याद---
  सर्वोदय नेता जय प्रकाश नारायण 
ने 1973 में अपने निजी आय-व्यय 
का विवरण प्रकाशित किया था।वह विवरण साप्ताहिक पत्रिका ‘एवरीमेन’ में छपा था।
जेपी के अनुसार रैमन मैगसेसे पुरस्कार के साठ हजार रुपए 
बैंक में जमा हैं।उसके सूद से मेरा खर्च चलता है।
इसके अलावा सिताब दियारा की अपनी जमीन की पैदावार  काम आती है।
फर्नीचर मुझे मेरे मित्र डा.ज्ञान चंद ने दिया है।
बाहर आने -जाने और कपड़ों का खर्च मेरे कुछ मित्र दे दिया करते हैं।
दरअसल तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की एक टिप्पणी के जवाब में जेपी ने अपने खर्चे का विवरण प्रकाशित किया था।
इंदिरा जी ने कहा था कि ‘जो लोग अमीरों से पैसे लेते हैं,उन्हें भ्रष्टाचार के बारे मंे बात करने का कोई अधिकार नहीं।’
 इस पर जेपी ने यह भी लिखा  था कि ‘अपना पूरा समय समाज सेवा में लगाने वाला ऐसा कार्यकत्र्ता जिसकी आय का अपना कोई स्त्रोत न हो ,अपने साधन संपन्न करीबी  मित्रों की मदद के बिना काम नहीं कर सकता।अगर इंदिरा जी के मापदंड सब जगह लगाए जाएं तो गांधी जी सबसे भ्रष्ट व्यक्ति निकलेंगे क्योंकि उनके तो पूरे दल की सहायता उनके अमीर प्रशंसक ही करते थे।’  
     और अंत में---
रक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने कहा है कि
बजट प्रावधान सेना की जरूरतों के अनुपात में बहुत कम है।
उधर केंद्र सरकार संसाधनों की कमी का रोना रोती रहती है।
जानकार लोग बताते हैं कि इस देश में  टैक्स की भारी चोरी के कारण संसाधनों की कमी रहती है। 
इस स्थिति में देश की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहने वाले नागरिकों से यह उम्मीद की जाती है कि  वे अपने आसपास के टैक्स चोरों के बारे में  सूचना सरकार व संबंधी एजेंसियों को  दे ताकि देश की सुरक्षा के पोख्ता प्रबंध के लिए पैसों की कमी नहीं रहे।
@कानोंकान-प्रभात खबर-बिहार-16 मार्च 2018@