जब किसी राजनीतिक पार्टी में खुद को सुधारने और बदलने की क्षमता समाप्त हो जाए तो वही होता है जो सी.पी.एम.के साथ हो रहा है।त्रिपुरा की सत्ता भी सी.पी.एम. के हाथ से निकल गयी।
एक गरीब देश में कम्युनिस्ट पार्टी की ऐसी हालत कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए चिंताजनक है।आश्चर्यजनक भी।
साठ-सत्तर के दशकों में गरीबों के पक्ष में जब कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट सड़कांे पर निकलते थे तो गरीबों को लगता था कि उनका भी कोई हमसफर है।
पर आज गरीब और कमजोर वर्ग के लोग भ्रष्ट सिस्टम के रहमो करम पर हैं।
उधर कम्युनिस्ट पार्टी के एक बड़े पदाधिकारी ने कई साल पहले अपनी आंतरिक रपट में इस बात पर चिंता जताई थी कि ‘वामपंथी आदर्श भ्रष्टाचार में गुम हो रहे हैं।’
पूर्व मुख्य मंत्री ज्योति बसु ने 2007 में ही कह दिया था कि
‘कुछ भ्रष्ट तत्व व्यक्तिगत लाभ के लिए पार्टी का इस्तेमाल कर रहे हैं।कुछ सदस्य समाज विरोधी गतिविधियों में लगे हुए हैं।वे सुधर जाएं अन्यथा उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाएगा।’
ज्येति बसु की सरकार में मंत्री रहे डा.अशोक मित्र ने एक बार कहा था कि ‘हमारी पार्टी में 18 वी.-19 वीं सदी के जमींदारों का चरित्र घर कर गया है।’
बाद में समय -समय पर कुछ अन्य माकपा नेताओं ने भी चुनाव हारने के बाद अपनी कमियां गिनार्इं और उन्हें सुधारने का संकल्प किया।पर वे कुछ वैसा कर नहीं पाए।
खबर है कि त्रिपुरा में भी वाम कार्यकत्र्ताओं में भी कुछ वैसी ही कमजोरियां घर कर गयी थीं।एक ईमानदार मुख्य मंत्री मानक सरकार ने त्रिपुरा राज्य की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए केंद्र की मोदी सरकार से मेलजोल बढ़ाना शुरू किया तो पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।
यानी समय व जरूरत के अनुसार जो पार्टी खुद को नहीं बदलेगी तो वही होगा जो वाम पंथियों के साथ आज हो रहा है। @9 मार्च 2018 के मेरे साप्ताहिक काॅलम कानोंकान से@
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