सोमवार, 26 मार्च 2018


पार्टियों  को मिलने वाले चंदे पर 1967 की कांग्रेस और 2018 की एनडीए में नहीं है कोई अंतर 
                   
केंद्र की राजग सरकार ने इस महीने संसद से वह विधेयक पास करवा दिया जिसके तहत  राजनीतिक दलों को विदेशी चंदा मिलने की कोई जांच नहीं होगी।
 सन 1967 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने लोक सभा  में साफ -साफ  कह दिया था कि जिन दलों और नेताओं को विदेशों से धन मिले हैं, उनके नाम जाहिर नहीं किए जा सकते ।क्योंकि उससे उनके हितों को नुकसान पहुंचेगा।
  इस बीच 2015 में केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट से साफ -साफ कह दिया था कि ‘ भारत सरकार राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के तहत लाने का विरोध करती है।’
हाल में राज्य सभा चुनावों में पैसों का खेल देख कर अनेक लोगों ने दांतों तले अंगुली दबा ली।
 2013 में एक सांसद ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि उन्होंने अपने पिछले लोक सभा चुनाव में 8 करोड़ रुपए खर्च किए।
हाल में यह खबर आई कि हाल में हुए  राज्य सभा के चुनाव के 87 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं।
यानी दिनानुदिन कितना खर्चीला बनता जा रहा है इस देश का लोकतंत्र !
देसी के साथ -साथ अपार विदेशी चंदों के पैसे मिल कर और कितना अधिक खर्चीला बना देंगे ? इस देश का लोकतंत्र गरीबों से और कितना दूर  चला  जाएगा ?
पर ऐसी स्थिति एक दिन में नहीं आई।इसकी नींव तो ठोस रूप से सन 1967 में ही पड़ गयी थी जब केंद्र सरकार ने विदेशी चंदे पर परोक्ष रूप से अपनी मुहर लगा दी थी।
 चुनावों में  जायज -नाजायज धन के इस्तेमाल को लेकर अधिकतर नेताओं और दलों की झिझक तो अब पूरी तरह समाप्त हो जाएगी।
सन 1967 के आम चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस  हार गयी थी।लोक सभा में भी उसका बहुमत 1962 की अपेक्षा कम  हो गया था।
चुनाव के छह माह के भीतर ही  उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ  कांग्रेसी विधायकों ने दल बदल करके वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बनवा दीं।वहां भी कांग्रेस का बहुमत कम था,इसलिए कम ही विधायकों के दल बदल से सरकार गिर गयी थी।इन अभूतपूर्व राजनीतिक घटनाओं से इंदिरा सरकार चिंतित हुई।सरकार को  लगा कि प्रतिपक्षी दलों ने नाजायज धन खर्च कर कांग्रेस को हरवा दिया।उन्हें शक हुआ कि इसमें विदेशी तत्वों व धन का भी हाथ हो सकता है।
चुनाव में धन के इस्तेमाल की केंद्रीय खुफिया एजेंसी से जांच करायी गयी।
पर, जांच से यह पता चला कि सिर्फ एक  राजनीतिक दल को छोड़कर सभी प्रमुख दलों को 1967 का चुनाव लड़ने के लिए विदेशों से पैसे मिले थे।शीत युद्ध के उस दौर में पैसे पूंजीवादी देशों ने दिए तो  कम्युनिस्ट देशों ने भी।ऐसा उन देशों ने भारत में अपने लिए स्थानीय प्रचारक तैयार करने के लिए किया।
पैसे पाने वालों में अन्य दलांे के साथ -साथ कांग्रेस के भी कई नेता  थे।कांग्रेस के कुछ नेताओं ने अमेरिका से तो कुछ अन्य ने सोवियत संघ से पैसे लिये थे।
   ऐसी सनसनीखेज बातों के कारण  केंद्र सरकार ने उस खुफिया  रिपोर्ट को दबा दिया।पर उस गुप्त रपट को एक विदेशी संवाददाता  ने उड़ा लिया।
 वह रपट  अमेरिकी अखबार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में  छप गयी।
उसमें उन राजनीतिक दलों के नाम भी दिए थे जिन्हें पैसे मिले थे।
पैसे पाने वालों में लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल शामिल थे।अखबार की खबर पर  लोक सभा में हंगामा हो गया।
लोक सभा में स्वतंत्र पार्टी के एक सांसद ने गृह मंत्री से मांग की कि वे खुफिया रपट को प्रकाशित करें ताकि राजनीतिक दलों को सफाई देने का अवसर मिल जाए।पर उसके जवाब में चव्हाण ने कहा कि ‘ऐसा करना
संभव नहीं हो सकेगा  क्योंकि केंद्रीय गुप्तचर विभाग की रपट के प्रकाशन से अनेक व्यक्तियों और दलों के हितों की हानि होगी।’
जनसंघ के बलराज मधोक ने सवाल किया कि क्या सरकार ंभारत स्थित विदेशी दूतावासोें के पास भारतीय मुद्रा के रूप में एकत्र अपार धन राशि पर कारगर नियंत्रण लगाने जा रही है ?
जनसंघ के कंवर लाल गुप्त और सी.पी.आई.के इंद्रजीत गुप्त ने सदन में गृह मंत्री से अपील की कि वे ऐसा प्रबंध करें कि खुफिया एजेंसी सिर्फ चुनाव के समय ही विदेशी पैसों के आगमन की जांच न करे बल्कि सामान्य दिनों में भी नजर रखे ताकि इस स्वयंप्रभु देश की राजनीति को कोई विदेशी ताकत प्रभावित न कर सके।कुछ अन्य सांसदों ने कुछ अन्य तरह की सलाह भी दी।दरअसल उस समय राजनीति में लोक लाज थी।इसलिए जिन दलों  ने पैसे लिये थे,उन दलों के भी कुछ सांसद सदन में  अच्छी- अच्छी सलाह दे रहे थे ताकि वे पाक -साफ दिखंे।या हो सकता है कि उन्हें पता नहीं हो कि उनके दल के अन्य लोगों ने पैसे ले लिए हैं।
पर, सरकार को कोई अच्छी सलाह न माननी थी और न उसने मानी।सब कुछ पहले जैसा चलता रहा।
 यदि उसी समय रपट को सार्वजनिक  करके पैसे लेने वाले दलों और नेताओं के खिलाफ जांच करायी गयी होती तो  राजनीति और चुनाव में स्वच्छता लाने में सुविधा होती।
  अब तो स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि इस समस्या से निपटना इस देश के नेताओं के लिए मुश्किल हो चुका है।या फिर स्वार्थवश उससे निकलना ही नहीं चाहते।चिंताजनक बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल खुद को सूचना के अधिकार के तहत लाने को भी आज तैयार ही नहीं है।कम्युनिस्ट दल भी नहीं।
  अब राजनीतिक दल यह मान कर चल रहे हैं कि देसी के साथ-साथ विदेशी पैसों के बिना ‘आराम से’ राजनीति नहीं हो सकती।इसीलिए गत 14 मार्च को संसद से  यह विधेयक पास करवा लिया गया कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदों की जांच नहीं होगी।अब देखना है कि आने वाले दिनों में विदेशी चंदे का इस देश की राजनीति व अन्य चीजों पर कैसा असर पड़ता है।
@ फस्र्टपोस्ट हिंदी पर 26 मार्च 2018 को प्रकाशित मेरा लेख@ 
  

  


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