चारा घोटालेबाजों ने समिति की छपी रपट
भी नहीं होने दी थी विधान सभा में पेश
पशु पालन माफिया ने घोटाले से संबंधित निवेदन समिति की एक रपट को बिहार विधान सभा में पेश तक होने से भी रोक दिया था।
उस पर कोर्रवाई की बात कौन कहे !
यह अस्सी के दशक की बात है।उस छपी रपट में पशु पालन घोटाले का विस्तृत ब्योरा था।
समिति ने अपनी रपट में मामले की जांच सी.बी.आई.से कराने की जरूरत बताई थी।
याद रहे कि अस्सी के दशक में बिहार में कांग्रेस की सरकार थी।
लालू प्रसाद ने 1990 में मुख्य मंत्री पद संभाला।उसके बाद तो घोटालेबाजों ने सारी सीमाएं तोड़ दी।
संभवतः इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास की यह पहली घटना होगी कि छपी रपट को पेश होने से रोक दिया जाए।
विधान सभा की किसी समिति की रपट का प्रकाशन स्पीकर के लिखित आदेश के बाद होता है।निवेदन समिति की रपट को छापने का आदेश तत्कालीन स्पीकर ने दे दिया था।
रपट छप भी गयी।
पर जब उसे सदन में पेश करने का अवसर आया तो पशु पालन माफियाओं ने उसे पेश ही नहीं होने दिया।
राम लखन सिंह यादव के सभापतित्व वाली उस समिति ने स्थल निरीक्षण करके हजारों संबंधित लोगों से बात की थी।रपट में यह लिखा गया कि किस तरह पशुपालन विभाग के पैसों की लूट मची है और किस तरह की उच्चस्तरीय साठगांठ चल रही है।
रपट में सी.बी.आई.से जांच कराने की जरूरत महसूस की गयी।
याद रहे कि समितियों की रपट सदन में पेश होने के बाद उस रपट पर सदन की मुहर लग जाती है।
उसके बाद अब सरकार की जिम्मेदारी होती है कि उस रपट की सिफारिश पर आगे क्या कार्रवार्र्ई करती है।
पर वह रपट तो पेश ही नहीं हुई।
पर उसकी एक काॅपी इन पंक्तियों के लेखक के पास जरूर आ गयी थी।कुछ अन्य पत्रकारों को भी मिली थी।
उस रपट के बारे में निवेदन समिति के सभापति राम लखन सिंह यादव ने कहा था कि ‘रपट मैंने बहुत कठिनाइयों के बाद छपवायी थी।
बहुत टाल मटोल के बाद मेरे आग्रह पर रपट को विधान सभा के कार्यक्रम में रखना तय हुआ था।’राम लखन सिंह यादव बाद में केंद्र में मंत्री भी हुए थे।
सी.बी.आई. ने 1996 में जब चारा घोटाले की जांच शुरू की तो उसने विधान सभा सचिवालय से उस रपट के बारे में जानकारी लेनी चाही।
उसे पता चला कि उस रपट की काॅपी गायब है।
जिस संबंधित बैठक में उस रपट को सदन में पेश नहीं करने का निर्णय हुआ था,उस बैठक कार्यवाही पुस्तिका भी विधान सभा सचिवालय से गायब कर दी गयी थी।
तब पूरे विधान सभा सचिवालय पर माफियाओं के असर की चर्चा राजनीतिक व मीडिया सर्किल में होती रहती थी।
1985 से मार्च, 1989 तक प्रो.शिवचंद्र झा बिहार विधान सभा के स्पीकर थे।प्रो.झा ने इस संबंध में बताया था कि ‘लंबे समय से पशु पालन विभाग के संबंध में कोई विधायक प्रश्न नहीं पूछते थे।
पूछते भी थे तो उनका सवाल सदन में नहीं आ पाता था।
इस पृष्ठभूमि में एक विधायक नवल किशोर शाही ने पशुपालन विभाग में भ्रष्टाचार से संबंधित 19 जुलाई 1985 को एक निवेदन प्रस्तुत किया।
उसे मैंने स्वीकृत किया और वह मामला निवेदन समिति को जांच के लिए सौंप दिया गया।
पर उस रपट के सदन में पेश होने से पहले ही मैंने स्पीकर पद से इस्तीफा दे दिया।
मैं नहीं जानता कि उस रपट का क्या हश्र हुआ।जितनी मेरी जानकारी है,उसके अनुसार वह रपट सदन में पेश नहीं की गयी।’
माफियाओं का विधान सभा सचिवालय पर असर का एक दूसरा उदाहरण नब्बे के दशक में सामने आया।
एक पत्र के जवाब में 1996 के जून में विधान सभा सचिवालय ने सी.बी.आई.को लिखा कि
1990 से 1995 तक बिहार विधान सभा में पशुपालन विभाग से संबंधित एक भी सवाल सदन में नहीं पूछा गया।संसदीय इतिहास की यह एक अनोखी घटना थी।
राजनीतिक हलकों में अलग से इस बात की चर्चा होती रहती थी कि जैसे ही कोई विधायक पशु पालन विभाग से संबंधित कोई सवाल विधान सभा सचिवालय में जमा करता था, उसकी खबर संबंधित पशुपलान माफिया को लग जाती थी।
पशुपालन माफिया संबंधित विधायक से अलग से मिल लेता था।
विधायक ‘संतुष्ट’ हो जाता था।
इसलिए प्रश्न के सदन तक पहुंचने की नौबत ही नहीं आती थी।
बिहार विधान सभा की लोक लेखा समिति के पूर्व सभापति डा.जगदीश शर्मा को चारा घोटाले में दोषी ठहराते हुए रांची की सी.बी.आई. की विशेष अदालत ने हाल में सात साल की सजा दी है।
नब्बे के दशक में डा.शर्मा जब सभापति थे तो उन्होंने मुख्य मंत्री को एक पत्र लिखा था।चारा घोटालेबाजों को लाभ पहुंचाने के लिए शर्मा ने लिखा कि सरकार की कोई एजेंसी पशु पालन विभाग पर घोटाले के आरोपों की जांच नहीं करेगी।उसकी जांच हमारी लोक लेखा समिति करेगी।
ऐसा पत्र लिख कर उन्होंने निगरानी जांच रोकवायी और खुद भी जांच नहीं की।मामला को लटकाए रखा।
बाद में पता चला कि डा.शर्मा ने ऐसी चिट्ठी स्पीकर की अनुमति के बिना ही मुख्य मंत्री को लिखी थी।
भी नहीं होने दी थी विधान सभा में पेश
पशु पालन माफिया ने घोटाले से संबंधित निवेदन समिति की एक रपट को बिहार विधान सभा में पेश तक होने से भी रोक दिया था।
उस पर कोर्रवाई की बात कौन कहे !
यह अस्सी के दशक की बात है।उस छपी रपट में पशु पालन घोटाले का विस्तृत ब्योरा था।
समिति ने अपनी रपट में मामले की जांच सी.बी.आई.से कराने की जरूरत बताई थी।
याद रहे कि अस्सी के दशक में बिहार में कांग्रेस की सरकार थी।
लालू प्रसाद ने 1990 में मुख्य मंत्री पद संभाला।उसके बाद तो घोटालेबाजों ने सारी सीमाएं तोड़ दी।
संभवतः इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास की यह पहली घटना होगी कि छपी रपट को पेश होने से रोक दिया जाए।
विधान सभा की किसी समिति की रपट का प्रकाशन स्पीकर के लिखित आदेश के बाद होता है।निवेदन समिति की रपट को छापने का आदेश तत्कालीन स्पीकर ने दे दिया था।
रपट छप भी गयी।
पर जब उसे सदन में पेश करने का अवसर आया तो पशु पालन माफियाओं ने उसे पेश ही नहीं होने दिया।
राम लखन सिंह यादव के सभापतित्व वाली उस समिति ने स्थल निरीक्षण करके हजारों संबंधित लोगों से बात की थी।रपट में यह लिखा गया कि किस तरह पशुपालन विभाग के पैसों की लूट मची है और किस तरह की उच्चस्तरीय साठगांठ चल रही है।
रपट में सी.बी.आई.से जांच कराने की जरूरत महसूस की गयी।
याद रहे कि समितियों की रपट सदन में पेश होने के बाद उस रपट पर सदन की मुहर लग जाती है।
उसके बाद अब सरकार की जिम्मेदारी होती है कि उस रपट की सिफारिश पर आगे क्या कार्रवार्र्ई करती है।
पर वह रपट तो पेश ही नहीं हुई।
पर उसकी एक काॅपी इन पंक्तियों के लेखक के पास जरूर आ गयी थी।कुछ अन्य पत्रकारों को भी मिली थी।
उस रपट के बारे में निवेदन समिति के सभापति राम लखन सिंह यादव ने कहा था कि ‘रपट मैंने बहुत कठिनाइयों के बाद छपवायी थी।
बहुत टाल मटोल के बाद मेरे आग्रह पर रपट को विधान सभा के कार्यक्रम में रखना तय हुआ था।’राम लखन सिंह यादव बाद में केंद्र में मंत्री भी हुए थे।
सी.बी.आई. ने 1996 में जब चारा घोटाले की जांच शुरू की तो उसने विधान सभा सचिवालय से उस रपट के बारे में जानकारी लेनी चाही।
उसे पता चला कि उस रपट की काॅपी गायब है।
जिस संबंधित बैठक में उस रपट को सदन में पेश नहीं करने का निर्णय हुआ था,उस बैठक कार्यवाही पुस्तिका भी विधान सभा सचिवालय से गायब कर दी गयी थी।
तब पूरे विधान सभा सचिवालय पर माफियाओं के असर की चर्चा राजनीतिक व मीडिया सर्किल में होती रहती थी।
1985 से मार्च, 1989 तक प्रो.शिवचंद्र झा बिहार विधान सभा के स्पीकर थे।प्रो.झा ने इस संबंध में बताया था कि ‘लंबे समय से पशु पालन विभाग के संबंध में कोई विधायक प्रश्न नहीं पूछते थे।
पूछते भी थे तो उनका सवाल सदन में नहीं आ पाता था।
इस पृष्ठभूमि में एक विधायक नवल किशोर शाही ने पशुपालन विभाग में भ्रष्टाचार से संबंधित 19 जुलाई 1985 को एक निवेदन प्रस्तुत किया।
उसे मैंने स्वीकृत किया और वह मामला निवेदन समिति को जांच के लिए सौंप दिया गया।
पर उस रपट के सदन में पेश होने से पहले ही मैंने स्पीकर पद से इस्तीफा दे दिया।
मैं नहीं जानता कि उस रपट का क्या हश्र हुआ।जितनी मेरी जानकारी है,उसके अनुसार वह रपट सदन में पेश नहीं की गयी।’
माफियाओं का विधान सभा सचिवालय पर असर का एक दूसरा उदाहरण नब्बे के दशक में सामने आया।
एक पत्र के जवाब में 1996 के जून में विधान सभा सचिवालय ने सी.बी.आई.को लिखा कि
1990 से 1995 तक बिहार विधान सभा में पशुपालन विभाग से संबंधित एक भी सवाल सदन में नहीं पूछा गया।संसदीय इतिहास की यह एक अनोखी घटना थी।
राजनीतिक हलकों में अलग से इस बात की चर्चा होती रहती थी कि जैसे ही कोई विधायक पशु पालन विभाग से संबंधित कोई सवाल विधान सभा सचिवालय में जमा करता था, उसकी खबर संबंधित पशुपलान माफिया को लग जाती थी।
पशुपालन माफिया संबंधित विधायक से अलग से मिल लेता था।
विधायक ‘संतुष्ट’ हो जाता था।
इसलिए प्रश्न के सदन तक पहुंचने की नौबत ही नहीं आती थी।
बिहार विधान सभा की लोक लेखा समिति के पूर्व सभापति डा.जगदीश शर्मा को चारा घोटाले में दोषी ठहराते हुए रांची की सी.बी.आई. की विशेष अदालत ने हाल में सात साल की सजा दी है।
नब्बे के दशक में डा.शर्मा जब सभापति थे तो उन्होंने मुख्य मंत्री को एक पत्र लिखा था।चारा घोटालेबाजों को लाभ पहुंचाने के लिए शर्मा ने लिखा कि सरकार की कोई एजेंसी पशु पालन विभाग पर घोटाले के आरोपों की जांच नहीं करेगी।उसकी जांच हमारी लोक लेखा समिति करेगी।
ऐसा पत्र लिख कर उन्होंने निगरानी जांच रोकवायी और खुद भी जांच नहीं की।मामला को लटकाए रखा।
बाद में पता चला कि डा.शर्मा ने ऐसी चिट्ठी स्पीकर की अनुमति के बिना ही मुख्य मंत्री को लिखी थी।
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