स्मार्ट फोन के कुप्रभाव सामने आने लगे हैं।
खास कर बच्चों की आंखों पर।
फिर भी अभी कोई चेत नहीं रहा है।
चेतेंगे,तब तक देर हो चुकी होगी।
रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के कुप्रभाव आने बहुत पहले शुरू हो गए थे।पर बहुत देर हो जाने के बाद लोग अब चेत रहे हैें।
फिर भी जैविक खाद की ओर देश बहुत ही धीमी गति से आगे बढ़ रहा है।आकाशवाणी के धीमी गति के समाचार से भी कम गति से।
गावांे में मैं देखता था कि बाप, बेटे को चूल्हे से सुलगा कर ले आने के लिए बीड़ी थमा देता था।
सुलगाने के बाद बेटा आंख बचा कर दो -तीन कस खुद भी पी लेता था।
इस तरह बीड़ी की लत वाले बाप का बेटा भी बीड़ी का पियक्कड़ बन जाता था।नतीजतन तरह- तरह की बीमारियां !
आज भी ऐसा होता होगा।
आज अधिकतर मां और बाप के पास अलग- अलग स्मार्ट फोन हैं।उनके छोटे-छोटे बच्चे भी
उससे खेलने लगे हैं।खेलते -खेलते उन्हें भी लत लग जा रही है।स्मार्ट फोन तो आधुनिक युग का एक नशा है।इस कारण बुजुर्गों के बीच भी बातचीत अब कम हो गयी है।कहीं कोई किसी से मिलने जाता भी है तो बातचीत करने के बदले अपने स्मार्ट फोन पर अंगुलियां घुमाने लगता है।
रिटायर और बिना काम वाले लोगों को यह लत लगे तो कोई बात नहीं ।कुछ लोगों के समय बीत जाते हैं।अकेलापन दूर होता है।वैसे लोगों के लिए एक अच्छा उपकरण है जिनके पास विचार तो हैं,पर उन्हें कभी अखबारों में जगह नहीं मिली।
पर बच्चों को भी लत लग जाए तो एक साथ बहुत सी चीजें खराब हो जाती है।पढ़ाई-लिखाई से लेकर स्वास्थ्य तक।
स्वभाव -आचरण पर जो असर पर रहा है सो अलग।
छोटे बच्चों और किशोरों को स्मार्ट फोन से दूर रखने का फिलहाल एक मात्र उपाय यह है कि खुद मां -बाप तब तक स्मार्ट फोन से दूर रहने का संयम बरतें जब तक उनके बाल -बच्चे पढ़ लिखकर कुछ बन नहीं जाते।
काम कठिन है,पर नहीं करने पर बाद में बहुत पछताना पड़ेगा।
अस्सी के दशक में जब बिहार के शहरों में भी घर -घर में टी.वी आने लगा था तो पटना के लोहिया नगर में मेरे एक पड़ोसी ने लोभ संवरण किया।
तब तक उनके बच्चे स्कूलों में थे।
नतीजा यह हुआ के उनके तीनों बच्चे आज कैरियर के उस मुकाम पर हैं जहां भेजने के लिए अधिकतर मां-बाप तरसते हैं।
खास कर बच्चों की आंखों पर।
फिर भी अभी कोई चेत नहीं रहा है।
चेतेंगे,तब तक देर हो चुकी होगी।
रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के कुप्रभाव आने बहुत पहले शुरू हो गए थे।पर बहुत देर हो जाने के बाद लोग अब चेत रहे हैें।
फिर भी जैविक खाद की ओर देश बहुत ही धीमी गति से आगे बढ़ रहा है।आकाशवाणी के धीमी गति के समाचार से भी कम गति से।
गावांे में मैं देखता था कि बाप, बेटे को चूल्हे से सुलगा कर ले आने के लिए बीड़ी थमा देता था।
सुलगाने के बाद बेटा आंख बचा कर दो -तीन कस खुद भी पी लेता था।
इस तरह बीड़ी की लत वाले बाप का बेटा भी बीड़ी का पियक्कड़ बन जाता था।नतीजतन तरह- तरह की बीमारियां !
आज भी ऐसा होता होगा।
आज अधिकतर मां और बाप के पास अलग- अलग स्मार्ट फोन हैं।उनके छोटे-छोटे बच्चे भी
उससे खेलने लगे हैं।खेलते -खेलते उन्हें भी लत लग जा रही है।स्मार्ट फोन तो आधुनिक युग का एक नशा है।इस कारण बुजुर्गों के बीच भी बातचीत अब कम हो गयी है।कहीं कोई किसी से मिलने जाता भी है तो बातचीत करने के बदले अपने स्मार्ट फोन पर अंगुलियां घुमाने लगता है।
रिटायर और बिना काम वाले लोगों को यह लत लगे तो कोई बात नहीं ।कुछ लोगों के समय बीत जाते हैं।अकेलापन दूर होता है।वैसे लोगों के लिए एक अच्छा उपकरण है जिनके पास विचार तो हैं,पर उन्हें कभी अखबारों में जगह नहीं मिली।
पर बच्चों को भी लत लग जाए तो एक साथ बहुत सी चीजें खराब हो जाती है।पढ़ाई-लिखाई से लेकर स्वास्थ्य तक।
स्वभाव -आचरण पर जो असर पर रहा है सो अलग।
छोटे बच्चों और किशोरों को स्मार्ट फोन से दूर रखने का फिलहाल एक मात्र उपाय यह है कि खुद मां -बाप तब तक स्मार्ट फोन से दूर रहने का संयम बरतें जब तक उनके बाल -बच्चे पढ़ लिखकर कुछ बन नहीं जाते।
काम कठिन है,पर नहीं करने पर बाद में बहुत पछताना पड़ेगा।
अस्सी के दशक में जब बिहार के शहरों में भी घर -घर में टी.वी आने लगा था तो पटना के लोहिया नगर में मेरे एक पड़ोसी ने लोभ संवरण किया।
तब तक उनके बच्चे स्कूलों में थे।
नतीजा यह हुआ के उनके तीनों बच्चे आज कैरियर के उस मुकाम पर हैं जहां भेजने के लिए अधिकतर मां-बाप तरसते हैं।
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