मंगलवार, 13 मार्च 2018

आपातकाल में मैं मेघालय में था।
गारो हिल्स जिले के फुलबाड़ी में ।
राजनीति से अलग हट कर वहां का एक हाल 
बता रहा हूं।
उन दिनों उस छोटे बाजार में  अविभाजित शाहाबाद  जिले के कई लोग थे।यहां तक कि राजस्थान के एक शर्मा जी भी थे जिनसे  मैं परिचित हुआ था।
मेरे रिश्तेदार जिनके यहां मैं गया था,वे बड़े मेहनती थे।
उनकी कपड़े की छोटी सी दुकान थी।आस -पास के अन्य छोटे बाजारों में भी जाकर  वे कपड़े बेचते थे। एक पांडेय जी की अच्छी -खासी दुकान पहले से थी।पहले वह भी छोटी ही रही होगी।
शर्मा जी वहां के मेरे आवास के ठीक बगल में एक झोपड़ी में रहते थे।
अपना बत्र्तन खुद ही मांजते थे।खाना बनाते थे और 
काम पर निकल जाते थे।ऐसा करने में उन्हें कोई संकोच नहीं था।बाद में उन्होंने भी तरक्की की।
 मैं तो वहां कुछ ही महीने तक रहा ,पर बाद के वर्षों में  मुझे पता चला कि इस बीच मेरे रिश्तेदार की आय काफी बढ़ गयी।उस परिवार ने बस-ट्रक वगैरह खरीद लिये।
 शाहाबाद के  एक बनिया ने वहां छोटी सी दुकान से वहां शुरू की थी।उन्होंने भी समय के साथ काफी कमाई की।
मैं जिन दिनों मैं वहां था,उन्हीं दिनों वहां के मुख्य मंत्री के यहां कोई शादी थी।
 तब चर्चा थी कि उस छोटी जगह के उसी व्यापारी के यंहा से उपहार के रूप में एक फिएट कार दी गयी थी। 
  खैर बनिया लोगों के पास  तो व्यवसाय की परंपरागत बुद्धि रहती ही हैं।वे तो अपने पुश्तैनी गांवों में भी वह सब काम किसी संकोच के बिना करते रहते हैं।
पर बिहार के किसी  राजपूत, भूमिहार या ब्राह्मण को अपने पुश्तैनी गांव में रह कर आम तौर पर वैसी शुरूआत मंजूर नहीं होती।अपवादों की बात और है।
इसलिए उनलोगों ने अपने लोगों से दूर मेघालय जाकर अत्यंत छोटे पैमाने  से शुरू किया और वे बस-ट्रक तक पहुंच गए।
क्या बदले हुए समय के साथ जबकि कई जगह स्थानीयता पनप रही है, उन्हें अब अपने पुश्तैनी गांव में भी वैसे ही छोटे पैमाने पर शुरूआत नहीं करनी चाहिए ? मेरी तो राय है कि वे संकोच छोड़ें और अपनी ही धरती पर शुरू करके आगे बढ़े।वे बहुत आगे बढ़ेंगे।
इससे राज्य भी संपन्न होगा और वे खुद भी।
बिहार के ऐसे कुछ  नवोदित ग्रामीण बाजारों को जानता हूं जहां जमीन तो सवर्णों की है,पर उन पर दुकानें बनाकर मध्य जातियों के लोग अच्छा -खासा छोटा-बड़ा व्यवसाय कर रहे हैं।नतीजतन वे पहले से सुखी हैं।
 व्यवसाय को लेकर एक परंपरागत संकोच से ग्रस्त सवर्ण या तो अपनी बाजार की जमीन बेच रहे हैं या फिर  जिनके पास पैसे हैं,वे दुकानें बना कर भाड़ा पर लगा रहे हैं।भाड़ा से कितना मिलेगा ? उसमें कोई खास बढ़ोत्तरी तो होती नहीं।
  
         
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