सोमवार, 26 मार्च 2018

अवस्थी जी,
आपने मेरे भटकने की जो बात कही है,वह मेरी अपनी सोच है।
किसी नेता या विचारधारा का उस पर कोई असर नहीं है।न रहेगा।मैंने खुद को कभी किसी नेता या किसी विचार धारा का गिरवी नहीं बनने दिया है।न दूंगा।
मेरी सोच देश-दुनिया की स्थिति को देख कर बनती है।
हर को अपनी सोच रखने का अधिकार है।हां,उस सोच पर किसी लोभ का दबाव नहीं होना चाहिए।
जहां तक नीतीश से दोस्ती का सवाल है,इस पर मुझे ताने मिलते रहते हैं।इसलिए कि लोग जनसत्ता में मेरा लेखन पढ़ चुके हैं।
मैं जवाब नहीं देता।
चूंकि आपने आदरणीय ओम थानवी के वाॅल पर लिखा है,इसलिए मैं कुछ कहना चाहता हूंं ।
कई साल पहले खुद लालू प्रसाद ने अपने दरबार में कहा था कि मैंने दिघवारा के रजपूतवा को ,,,,,,,,अखबार से हटवा दिया।
लालू की दृष्टि में मैं सिर्फ रजपूतवा हूं।जबकि मैं आरक्षण का लगातार समर्थक रहा हूं और इस कारण परिवार से लेकर सवर्ण समुदाय तक के ताने का शिकार होता रहा हूं।
नीतीश कुमार ने बाद में मुझे फोन किया, ‘क्या आपने ...........अखबार छोड़ दिया ?’
मैंने कहा कि हां, ‘पर मैं अब अधिक पाठकों तक पहुंच रहा हूं।भले पैसे कम मिल रहे हैं।’
इस पर नीतीश ने कहा कि ‘आपको कभी पैसे की परवाह रही है क्या ?’
 इस पर बात खत्म हो गयी।
आप कल्पना कीजिए कि मेरी जगह कोई दूसरा पत्रकार होता तो इस स्थिति में मुख्य मंत्री से क्या कहता ?
अब मैं कुछ अन्य उदाहरण गिनाता हूं जो फिलहाल मुझे याद हंै ।उससे पता चलेगा कि  नीतीश राज में मुझ क्या मिला।मेरा  पुत्र विशेषज्ञता हासिल कर  लौटा तो उसने बिहार सरकार में एक जाॅब के लिए आवेदन दिया।

इंटरव्यू हो जाने के बाद उसके मोबाइल पर काॅल आया--दो लाख रुपए का इंतजाम करो।मैंने कहा कि बेटा, मेरे पास पैसे  नहीं हैं।बिहार के बाहर कहीं देखो।
बेटे को शायद उम्मीद थी कि मैं मुख्य मंत्री  नीतीश कुमार से  कह कर घूस माफ करवा दूंगा।।पर मैंने चूंकि जीवन में कभी किसी नेता से व्यक्तिगत काम के लिए नहीं कहा है,इसलिए इस मामले में भी नहीं कहा।मेरी राय रही है कि इस भ्रष्ट व्यवस्था से उपजी जो परेशानी आम लोग सह रहे हैं,वह मेरा परिवार भी सहे।मैं भी सहूं।
 मेरी पत्नी को नीतीश के शासन काल में ही मिडिल स्कूल का प्रधानाध्यापक बनना था।
बनी भी।पर, उसे दानापुर दियारा में उसे पोस्ट कर दिया गया क्योंकि उसने रिश्वत नहीं दी।
चूंकि रोज गंगा नदी पार करके जाना होता तो मैंने उससे कहा कि प्रधानाध्यापकी का मोह छोड़ दो।उसने छोड़ दिया।साधारण शिक्षक के रूप में रिटायर हो गयी।
 मेरे गांव की कीमती पुश्तैनी जमीन पर सरकार ने जबरन सड़क बनवा दी।
कोई अधिग्रहण या मुआवजा नहीं।
मेरे संयुक्त परिवार ने हाई कोर्ट में केस कर रखा है।
एक दिन पटना में बैंक से लौटती मेरी पत्नी के सोलह हजार रुपए गुंडों ने सड़क पर रिवाल्वर दिखा कर छीन लिया।चूंकि गंुडा किसी दरोगा का बेटा था ,इसलिए उसे कुछ नहीं हुआ।
नीतीश सरकार ने पेंशन देने के लिए पत्रकारों से आवेदन मांगा ।मैंने आवदेन तक नहीं दिया है।ऐसे कुछ अन्य उदाहरण भी होंगे,मुझे अभी याद नहीं।
इसलिए कि मेरी नीति रही है कि जिस पैसे में मेरी मेहनत नहीं लगी है,वह मेरे यहां नहीं आए।
हर सरकार कुछ गलत और कुछ सही काम करती है।नीतीश सरकार के किसी गलत काम का मैंने कभी लिख कर समर्थन नहीं किया।बल्कि  सबसे अधिक गलत काम यानी माक्र्स के आधार पर कई लाख शिक्षकों की बहाली  के काम का लिख कर मैंने विरोध किया है।ऐसे कामों का समय -समय पर विरोध करता रहता हूं।
पर उसने कुछ अच्छे काम भी किए हैं।उसका समर्थन करता हूं।
यही सब हैं  नीतीश से हमारी तथाकथित दोस्ती के परिणाम ! आप खुद निर्णय कर लीजिए।
जहां तक मेरे  ‘भटकाव’ का सवाल है
 तो उस पर इतिहास को निर्णय करने दीजिएगा।हां, यह जरूर पता लगा सकते हैं कि मैंने नीतीश कुमार या सरकार से अपने लिए क्या फायदा उठाया है ?किस लोभ में ‘भटका’ ? नीतीश 2005 से मुख्य मंत्री हैं।वे मेरे 1969 से यानी छात्र जीवन से परिचित हैं।
वैसे इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई व्यक्ति कभी नीतीश से व्यक्तिगत बातचीत करता हो तो वह उन्हीं से पूछ ले कि आपसे अपने निजी लाभ के लिए सुरेंद्र किशार ने कब क्या मंागा ?@2028@  
@पत्रकार देवप्रिय अवस्थी ने अपने एक पोस्ट मंे लिखा  था कि सुरेंद्र किशोर भटक गए हैं।उस पर मेरी यह प्रतिक्रिया है।@  



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