रविवार, 4 मार्च 2018

 मेरे कुछ फेस बुक मित्र मुझसे यह अपेक्षा करते हैं कि 
मैं अब भी उसी तरह लिखूं जिस तरह ‘जनसत्ता’ में 1983 से 2001 तक लिखा करता था।अब जब वे मेरा लेखन वैसा नहीं पाते तो उन में से कुछ लोग भटक जाने का भी आरोप मुझ पर लगा देते हैं।सोशल मीडिया के इस दौर में कोई भी कुछ भी लिख सकता है ! आरोप लगा सकता है।वह ‘छूट’ अभी उपलब्ध है।
पर, ऐसी छूट का जब अधिक दुरुपयोग होने लगेगा तो तब वह छूट नहीं रहेगी। 
वैसे उनका मैं शुक्रगुजार हूं कि उन लोगों ने मेरे तब के लेखन को पसंद किया।
‘सबकी खबर ले और सबको खबर दे’ के स्लोगन के साथ 1983 में  जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ था।
उसकी संस्थापक टीम का मैं हिस्सा बना था।
2001 में जब मैंने जनसत्ता से इस्तीफा दिया तब मैं उसका बिहार स्थित  विशेष संवाददाता था।
यानी वहां मेरा मुख्य काम  खबरें देना और खबरों का विश्लेषण करना था।यानी मैं जनसत्ता की पैदल सेना का हिस्सा था।
 2001 से 2007 तक मैं दैनिक हिन्दुस्तान-पटना-में राजनीतिक संपादक रहा।यानी मेरे काम और अखबार का नेचर बदल गया।
बाद में सन 2013 से करीब ढाई साल तक दैनिक भास्कर -पटना-का संपादकीय सलाहकार रहा ।इस बीच फ्रीलांसिंग करता रहा।अब भी करता हूंं। 
 साथ- साथ मेरी उम्र भी तो बढ़ती चली गयी।बढ़ेगी ही।उसे भला कौन रोक सकता है !
अब तो उम्र के उस पड़ाव पर हूं जहां जनसत्ता जैसे लेखन का खतरा, चाहते हुए भी मैं उठा ही नहीं सकता।वैसे भी जनसत्ता जैसा लेखन तो जनसत्ता में ही तो छप सकता है  ! वह जनसत्ता अब है कहां ?
नयी  पीढ़ी के पत्रकारों को भरसक वह काम करना चाहिए।कुछ लोग जहां -तहां  कर भी रहे हैं।कई लोग मुझसे बेहतर कर रहे हैं।
  पर जनसत्ता जैसा अखबार आप फिर कहां से लाएंगे ?
राम नाथ गोयनका जैसे शेर  दिल  मालिक और  
प्रभाष जोशी जैसा तपस्वी संपादक आप कहां से लाएंगे ?
कई तत्व मिलते हैं तभी  गोयनका-जोशी युग का एक ‘जनसत्ता’ तैयार होता है।
  जनसत्ता में काम करते हुए मुझे कई बार धमकियां और मुकदमे झेलने पड़े।
कचहरियों के काफी चक्कर लगे।
अब न तो खामख्वाह धमकियों वाला तनाव  झेलने की उम्र है न ही कचहरियों के थकाऊ चक्कर लगाने  लायक स्वास्थ्य।
 फिर भी कुछ मित्रों को इस बात पर एतराज है कि मैं अब भी कुछ बड़े नेताओं की नींद उड़ाने लायक खबरें क्यों नहीं खोज लाता ? मुझसे तो जितना हो सका,अपने कार्यकाल में मैंने किया।
वैसे एक जिम्मेदार संवाददाता को सिर्फ खबरें ही नहीं खोजनी पड़तीं बल्कि उसके सबूत भी इकट्ठे करने पड़ते हैं।वह  श्रमसाध्य काम है।
अपनी सुविधा के अनुसार किसी के खिलाफ खबरें तो अनेक लोग दे देते हैं,पर सबूत कोई-कोई ही दे पाता है।इस चक्कर में भी मैं फंस चुका हूं।
किसी पर कोई निराधार आरोप लगाते हुए यदि आप किसी मीडिया पर कुछ भी लिखते -बोलते हैं तो  यह  मान कर चलिए कि वह आप पर मुकदमा भी कर सकता है।
 फिर तो कोर्ट में संपादक -संवाददाता -लेखक को ही दौड़ना पड़ता है।खबरें पढ़कर तालियां बजाने वाला कोई तब काम नहीं आता।
  वैसी स्थिति में अपुष्ट खबरें बताने वाले ‘स्त्रोत’ भी बाद में कन्नी काट लेते हैं।पत्रकारों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने वालों से हमेशा ही पत्रकारों को सवाधान रहना  चाहिए।किसी के खिलाफ पक्के सबूत मिले तो जरूर छापना चाहिए।न छापना पत्रकारिता धर्म से विमुख होना होगा।
पर अफवाहों को खबर बनाने वाले पत्रकारों की साख भी खराब होती है।उसे व संस्थान को अन्य परेशानियां झेलनी पड़ती हैं सो अलग।
 आज मीडिया का काफी  विस्तार हुआ है।इलेक्ट्रानिक मीडिया का काफी असर है।इलेक्टा्रनिक मीडिया से तो कुछ नेता इतने मोहित रहते हैं या डरते हैं कि अक्सर एंकर की फटकार सुनने के लिए स्टुडियो पहुंच जाते हैं।
 आज के पत्रकार जितनी मेहनत कर रहे हैं, अखबार व अन्य मीडिया अपनी सीमाओं के बावजूद जितना कुछ पाठकांे -श्रोताओं तक पहुंचा रहा है, वह कम नहीं है।मुझे नहीं लगता कि  घोटाला करके कोई नेता - अफसर -व्यापारी आज मीडिया की नजरों से बच सकता है।बच भी नहीं रहा है।
मेरे एक बार फिर से रिपोर्टर नहीं बनने के कारण मीडिया या लोकतंत्र का कोई  काम बिगड़ने वाला नहीं है।मुझे उसी तरह का लेखन करने दीजिए जैसा मैं इन दिनों कर रहा हूं।
वैसे भी उम्र बढ़ने के बाद किसी पत्रकार को अपने पिछले  कामों को समेटने के लिए भी छोड़ देना चाहिए।नयी पीढ़ी के पत्रकारों पर भरोसा करना चाहिए।



  
  

  


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