रेलवे ने कर दिया मुझे अपने घर की
सारी खिड़कियां बदलवाने को मजबूर
--सुरेंद्र किशोर--
पटना जिले के फुलवारीशरीफ के कोरजी गांव
के मेरे घर के बगल से रेलवे लाइन बन रही है।
नेऊरा-दनियावां रेलवे लाइन।
अच्छा लग रहा है, विकास हो रहा है।
पर, इस विकास की कीमत मुझे भी चुकानी पड़ रही है।
पैसे और स्वास्थ्य के मामले में ।
इस विकास ने मेरा निजी खर्च अचानक बढ़ा दिया है।ऐसा खर्च जो मुझ पर फिलहाल भारी पड़ रहा है।
यानी, मुझे अपने घर की सारी खिड़कियां बदलवानी पड़ रही हैं।
पहले की खिड़कियों में थोड़ी फांक थीं जिनसे होकर धूल आ रही थी।वाहनों की तेज रफ्तार के कारण जब निर्माणधीन लाइन की सड़क पर धूल उड़ती है तो पीछे की कोई चीज दिखाई तक नहीं पड़ती।इतनी मोटी धूल !
रेलवे ने निर्माणाधीन लाइन के लिए मिट्टी तो डालनी शुरू कर दी है,पर उस पर गाडि़यों को चलने से रोका नहीं है।नतीजतन सारी धूल की भारी परतें खिड़कियों के जरिए मेरे घर में भी प्रवेश कर रही हंै।धूल अन्य लोगों को भी नुकसान पहुंचा रही हैं।
खुली छत पर मेरा धूप लेना बंद है,टहलना मुश्किल है।
किससे कहूंं ?
मैं जानता हूं कि कोई नहीं सुनेगा।कहने का शायद कोई बुरा भी मान ले और उल्टे मेरा कुछ नुकसान कर दे।इसलिए मैं किसी से कह नहीं रहा हूं।
करीब एक लाख रुपए के खर्च का बोझ यह कमजोर कंधा उठा रहा है।मजबूरी है।
छिटपुट आबादी के अलावा मेरे घर के पास में ही बच्चों के दो-दो स्कूल भी हैं।महीनों तक यह धूल उन कोमल बच्चों को भी फांकनी पड़ेगी।
धूल से किसी के स्वास्थ्य पर कैसा विपरीत असर पड़ेगा, इसकी चिंता भला किसे है ?!
रेलवे के संबंधित अधिकारी या ठेकेदार एक काम आसानी से कर सकते थे।यदि सड़क के लिए मिट्टी डाल रहे हो तो उस रास्ते पर वाहन तो मत चलने दो !
पर, अपने इस प्यारे देश में ऐसी समझदारी विकसित होने में शायद अभी सदियों लग जाएं।
सारी खिड़कियां बदलवाने को मजबूर
--सुरेंद्र किशोर--
पटना जिले के फुलवारीशरीफ के कोरजी गांव
के मेरे घर के बगल से रेलवे लाइन बन रही है।
नेऊरा-दनियावां रेलवे लाइन।
अच्छा लग रहा है, विकास हो रहा है।
पर, इस विकास की कीमत मुझे भी चुकानी पड़ रही है।
पैसे और स्वास्थ्य के मामले में ।
इस विकास ने मेरा निजी खर्च अचानक बढ़ा दिया है।ऐसा खर्च जो मुझ पर फिलहाल भारी पड़ रहा है।
यानी, मुझे अपने घर की सारी खिड़कियां बदलवानी पड़ रही हैं।
पहले की खिड़कियों में थोड़ी फांक थीं जिनसे होकर धूल आ रही थी।वाहनों की तेज रफ्तार के कारण जब निर्माणधीन लाइन की सड़क पर धूल उड़ती है तो पीछे की कोई चीज दिखाई तक नहीं पड़ती।इतनी मोटी धूल !
रेलवे ने निर्माणाधीन लाइन के लिए मिट्टी तो डालनी शुरू कर दी है,पर उस पर गाडि़यों को चलने से रोका नहीं है।नतीजतन सारी धूल की भारी परतें खिड़कियों के जरिए मेरे घर में भी प्रवेश कर रही हंै।धूल अन्य लोगों को भी नुकसान पहुंचा रही हैं।
खुली छत पर मेरा धूप लेना बंद है,टहलना मुश्किल है।
किससे कहूंं ?
मैं जानता हूं कि कोई नहीं सुनेगा।कहने का शायद कोई बुरा भी मान ले और उल्टे मेरा कुछ नुकसान कर दे।इसलिए मैं किसी से कह नहीं रहा हूं।
करीब एक लाख रुपए के खर्च का बोझ यह कमजोर कंधा उठा रहा है।मजबूरी है।
छिटपुट आबादी के अलावा मेरे घर के पास में ही बच्चों के दो-दो स्कूल भी हैं।महीनों तक यह धूल उन कोमल बच्चों को भी फांकनी पड़ेगी।
धूल से किसी के स्वास्थ्य पर कैसा विपरीत असर पड़ेगा, इसकी चिंता भला किसे है ?!
रेलवे के संबंधित अधिकारी या ठेकेदार एक काम आसानी से कर सकते थे।यदि सड़क के लिए मिट्टी डाल रहे हो तो उस रास्ते पर वाहन तो मत चलने दो !
पर, अपने इस प्यारे देश में ऐसी समझदारी विकसित होने में शायद अभी सदियों लग जाएं।
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