मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

एक संपादक जिसके लिए पद्मभूषण निरर्थक था
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महान पत्रकार दिवंगत एम.चेलापति राव के संबंध में एक प्रसंग पढ़कर मुझे पत्रकार होने पर गर्व हुआ।
यह प्रसंग 1969 में छपा था।संपादक राव ने यह कहते हुए पद्मभूषण लौटा दिया था कि पदकों -उपाधियों से पत्रकारों को मुक्त रखा जाना चाहिए।
चेलापति राव @ 1910-1983@नेशनल हेराल्ड के 30 साल तक संपादक थे।उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं।
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त्वदीय वस्तु गोविंदम्
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‘पत्रकार को अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए अस्पष्ट विशिष्टता से भी दूर रहना चाहिए।’
  यह विचार ‘नेशनल हेराल्ड’ के संपादक श्री चेलापति राव ने 
पद्म भूषण की अपनी सनद और पदक सरकार को वापस करते हुए व्यक्त किया है।
   पिछले वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर 1967 की उपाधि वितरण सूची के अनुसार श्री चेलापति राव को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।
उन्होंने यह सम्मान वापिस करते हुए राष्ट्रपति के सचिव के नाम अपने  संक्षिप्त पत्र में  इच्छा व्यक्त की है कि वर्गीकृत विशिष्टता के बजाय वह अविशिष्ट ही रहना पसंद   
करेंगे।
अपने पत्र में उन्होंने लिखा है,‘मैं पद्मभूषण सनद और पदक वापिस कर रहा हूं जो मुझे 1968 के गणराज्य उपाधि वितरण के अवसर पर प्रदान किये गये थे।
1967 में मैं इस सम्मान को ग्रहण करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर चुका था।
लेकिन फिर मुझसे कहा गया कि और 1968 में मैं अपने आप को इसके लिए राजी भी कर सका।
पर तब से मुझे अपने इस निश्चय पर बराबर पश्चाताप रहा।
    मैं उस विशिष्टता को ढोते रहना नहीं चाहता जो मेरे लिए निरर्थक है।इसमें तो संदेह नहीं कि बहुत योग्य और ईमानदार लोग ही इस सम्मान के लिए व्यक्तियों का चुनाव करते होंगे।
 पर इस माध्यम से विशिष्टता लादने का प्रयास तो इसमें रहता ही है। सम्मान वापिस करने में मेरा अवज्ञा भाव बिलकुल नहीं है।मैं सिद्धांत के लिए ही यह सब कर रहा हूं।
स्तर और मान्यता का कोई सिद्धांत तो होना ही चाहिए। 
   श्री चेलापति राव ने इस वर्ष के गणराज्य दिवस के दो दिन बाद ही पदक और उपाधियों पर अपने पत्र में जो संपादकीय लिखा था उससे इस प्रथा के प्रति उनके विचारों का स्पष्ट आभास मिलता था।
उनका विचार था कि पदक और उपाधि हर देश में आवश्यक होती है।समाजवादी देशों में भी सैनिक और असैनिक क्षेत्रों में विशिष्टता के लिए पदक और उपाधियां प्रदान की जाती हैं।पर हमारे देश में ये उपाधियां और पदक विभिन्न स्तरों पर विशिष्टता को जन्म दे रहे हैं और खान बहादुरों और राय बहादुरों जैसा एक वर्ग बन रहा है।
जो उपाधियां और पदक प्रेरणा और उत्साह का स्त्रोत न हो उन्हें देने की प्रथा रखने से ही क्या लाभ ?
गुणों की परख जहां जल्दबाज मंत्रियों और उनके सचिवों तथा हां में हां मिलाने वालों पर छोड़ दी जाए , वहां परख का कोई महत्व ही नहीं रहता।
इन उपाधियों और पदकों से सरकार जो अपनी अस्पष्ट कृपा बिखेरती है ,कम से कम पत्रकारों को तो उससे मुक्त रखा जाना चाहिए।
  @दिनमान-16 फरवरी 1969@


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