बुधवार, 17 अप्रैल 2019

इलेक्शन रेफरेंस
मतदान प्रक्रिया पर शक
 करने की कहानी पुरानी
        सुरेंद्र किशोर
मतदान प्रक्रिया की प्रामाणिकता पर शक करने की परंपरा कोई नई नहीं है।
हालांकि अब तो मतदान से पहले ही शक किया जा रहा है।
1971 में मतदान के बाद शक किया गया था।
 ‘गरीबी हटाओ’ के लोक लुभावन नारे की लहर पर सवार होकर इंदिरा गांधी ने 1971 के लोक सभा का चुनाव भारी बहुमत से जीत लिया था।उससे पहले उन्होंने कुछ गरीबपक्षी कदम भी उठाए थे।
 पर चुनाव नतीजे आने के बाद जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक ने आरोप लगाया कि यह चुनावी जीत रसियन  स्याही के बल पर हासिल की गई।
 मधोक के  आरोप पर कम ही लोगों ने भरोसा किया,पर इस आरोप ने कुछ देर के लिए हलचल जरूर मचा दी थी।
1971  में  मधोक भी कांग्रेस के शशिभूषण से  हार गए थे।
मधोक ने कहा कि ‘मुझे शशिभूषण ने नहीं बल्कि अदृश्य स्याही ने हराया है।मैं कुछ ऐसा रहस्य खोलने जा रहा हूं जिससे पूरा देश हिल जाएगा।’
  मधोक के अनुसार, मतपत्रों पर पहले से ही अदृश्य स्याही लगी हुई थी।
 अदृश्य स्याही से गाय- बछिया के सामने निशान पहले से ही लगा था।
वह मतपेटी में जाने के बाद कुछ समय में अपने -आप उभर आता है।
उधर मतदाता के द्वारा लगाया गया निशान अपने- आप मिट जाता है।’
  इस आरोप पर चर्चा  के लिए मधोक विरोधी दलों के नेताओं से मिले तो किसी ने उनके इस आरोप को गंभीरता से नहीं लिया।
  एक विवेकशील नेता ने तब कहा था कि ‘पराजित नेता हार को झुठलाने की कोशिश करने की जगह हार के सही कारणों की पहचान करें।अन्यथा ऐसे बेसिर पैर के आरोप से प्रतिपक्ष की प्रतिष्ठा कम होगी।’
दरअसल प्रतिपक्ष के कुछ बड़े नेताओं को यह बात  समझ में  नहीं आ रही थी कि जब अविभाजित कांग्रेस के बड़े -बड़े सम्मानित व ताकतवर माने जाने वाले  नेतागण इंदिरा गांधी की कांग्रेस के विरोध में थे तो भी इंदिरा गांधी जीत कैसे गईं। 
@इस लेख का संपादित अंश आज के दैनिक भास्कर,पटना  में प्रकाशित@ 



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