शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

--सांसद निधि पर सवाल उठाने का समय--सुरेंद्र किशोर



  यदि इस देश के भ्रष्टाचार को ‘रावण’ मान लिया जाए तो सवाल  है कि उसकी नाभि का ‘अमृत कुंड’ 
कहां हैं ?
पिछले ढाई दशकों का  अनुभव बताता है कि वह अमृत कुंड सांसद क्षेत्र विकास निधि है।
     घोटाले-महा घोटाले राष्ट्र -राज्य की काया  को कमजोर करते  हैं,लेकिन  सांसद निधि घोटाला तो आत्मा को प्रभावित कर रहा है।
   आम धारणा  है कि सांसद फंड की चालीस प्रतिशत 
राशि वह आॅफिस ले लेता है जहां से यह फंड खर्च किया जाता है।
 20 प्रतिशत में से ठेकेदार और जन प्रतिनिधि के बीच बंटता है यानी फंड का चालीस प्रतिशत ही जमीन पर लग पाता है।सांसद निधि  आवंटित करने के लिए रिश्वत लेने के आरोप में उत्तर प्रदेश के एक सांसद की 2007 में सदस्यता जा चुकी है।उनकी सदस्यता इसलिए गई ,क्योंकि वह स्टिंग आपरेशन में फंस गए थे।
 दरअसल जो व्यक्ति पहली बार सांसद बनता है और जिसे ऊपरी आय से गुरेज नहीं है,उसकी आदत यहीं से  बिगड़नी शुरू हो  जाती है।यही बात अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों पर भी लागू होती है।--हालांकि न तो सारे जन प्रतिनिधि वैसे ही हैं और न सारे अफसर--।
 ऐसे जन प्रतिनिधियों के मंत्री और उन अफसरों के और ताकतवर अफसर बन जाने के बाद इस देश के अन्य फंडों के साथ वे क्या सलूक कर सकते हैं,यह किसी से छिपा नहीं है।
 1960-70  के दशकों में जन प्रतिनिधि, अफसरों के भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर आवाज उठाते थे।लेकिन जब जन प्रतिनिधि ही भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाएं तो सोचिए क्या होगा ?
  इस समस्या की गंभीरता की एक झलक प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 15 अगस्त 2014 के लाल किले के  भाषण में ही देश को दिखाई थी।
उन्होंने कहा था कि जब किसी अफसर के यहां  किसी काम को लेकर कोई जाता है तो वह पूछता है कि ‘इसमें मेरा क्या ?’
जब उसे पता लगता है कि उसे कुछ नहीं मिलेगा तो वह कह देता है कि -‘तो फिर मुझे क्या ?’
  ऐसी ही बातों पर विचार करते हुए वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी सांसद निधि  बंद कर देने की सिफारिश 2007 में की थी,
  लेकिन  इसे लेकर ‘राजनीतिक सुनामी’ आने के डर से मनमोहन  सरकार यह काम नहीं कर पाई।बिहार सरकार ने विधायक फंड को 2010 में बंद भी किया तो उसे बाद में शुरू करना पड़ा।
आयोग के अलावा अदालत ,कैग  और  अनेक कमेटियों की रपटों ने इस ‘अमृत कंुड’ पर  वाण मारने की विफल चेष्टा की है।
 इस आम  चुनाव के बाद यदि एक बार फिर नरेंद्र मोदी की सरकार बनती है और जिसकी उम्मीद भी की जा रही है तो तो शायद यह काम संभव है। उम्मीद इसलिए भी जगती है कि भारी दबाव के बावजूद उन्होंने  सांसद निधि की राशि  नहीं बढ़ाई।हालांकि राशि बढ़ा देने के लिए संसद की एक कमेटी की एक सिफारिश  है।
 2014 में सत्ता संभालने के एक महीने बाद ही प्रधान मंत्री मोदी  की नजर सांसद निधि  की ओर गई थी।
भ्रष्टाचार और धांधली की शिकायतों के बीच उन्होंने  कहा था कि सांसद निधि के काम की ‘थर्ड पार्टी’ निगरानी कराई जाएगी। यह भी कहा गया था कि इस निधि  से हो रहे विकास कार्यों की निगरानी के लिए जियोग्राफिकल इन्फाॅर्मेशन सिस्टम का सहारा लिया जा सकता है। 
  तब उम्मीद जगी  कि इस योजना  की सूरत बदलेगी । सांसद व अफसर बदनामी से बचेंगे।शासन के अन्य क्षेत्रों के भ्रष्टाचार पर भी इसका सकारात्मक असर पड़ेगा। 
  प्रशासन में स्वच्छता लाने में मदद मिलेगी।
लेकिन किसी  कारणवश इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो सका।संभवतः इस निधि के बेलगाम उपयोग के लिए सरकार पर अघोषित सर्वदलीय दबाव है ।
सांसदों के भारी दबाव के कारण किस तरह पिछले दो प्रधान मंत्री न- न कहते सांसद निधि की राशि बढ़ाते चले गए,उसकी तह तक जाना प्रासंगिक होगा।
1993 में जब यह योजना शुरू की गई थी तो यही मंसूबा बांधा गया था कि इससे कुछ विकास कार्य करा कर जन प्रतिनिधियों को चुनाव जीतने में सुविधा होगी,लेकिन इसका इतना विकृत रूप सामने आएगा ,इसकी कल्पना कम ही लोगों को रही होगी।
     जब  अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री थे तब 
 करीब 40 भाजपा सांसदों ने उनसे  आग्रह किया कि  सांसद निधि तत्काल बंद करा दें क्योंकि अनेक कर्मठ और त्यागी  कार्यकर्ता भी अब सांसद निधि  के  ठेकेदार बनकर रह गए हैं।
वाजपेयी सांसद निधि को समाप्त कर देने का मन बना ही रहे थे कि सौ से अधिक  संख्या में सांसद प्रधान मंत्री से मिले।उन्होंने  सांसद निधि की राशि सालाना एक करोड़ रुपए से बढ़ाकर दो करोड़ रुपए कर देने का  आग्रह किया।
  प्रधान मंत्री ने ऐसा ही किया।
उन दिनों राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता मन मोहन सिंह ने इसका विरोध करते हुए सदन में प्रधान मंत्री से कहा कि ‘यदि चीजों को आप इस तरह होने देंगे तो जनता नेताओं और लोकतंत्र पर विश्वास खो देगी।’
  विडंबना यह रही कि जब मन मोहन सिंह खुद प्रधान मंत्री बने तो 2011 में  सांसदों के  दबाव में आकर उन्होंने इस सांसद निधि बढ़ाकर सालाना 5 करोड़ रुपए कर दी।
    सांसद निधि के उद्देश्य को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे।सांसद रहे इरा सेझियन से लेकर विधि वि’ोषज्ञ ए.जी.नूरानी तक और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधी’ा एम. एन. वेंकट चलैया से लेकर संविधान वि’ोषज्ञ सुभाष  क’यप तक ने समय -समय पर इस योजना के खिलाफ अपनी राय दी है।
   सबसे मजबूत सैद्धांतिक पक्ष यह है कि पंचायती राज संस्था दे’ा भर में अस्तित्व में आ जाने के बाद अब विधायक -सांसद निधि पंचायती राज के कार्यों में अनाव’यक हस्तक्षेप है,क्योंकि इस फंड से आम तौर पर वही काम होते हैं जो काम पंचायतों और नगर निगमों को करने होते हैंं।
   एक तर्क यह भी है कि कोई मौजूदा सांसद जब चुनाव मैदान में जाएगा तो वह 25  करोड़ रूपए के विकास कार्यों की पूंजी के साथ चुनाव लड़ेगा जबकि उसका प्रतिद्वंद्वी  इस मामले में शून्य होगा।यह समानता के अधिकार के खिलाफ है।
    सांसद निधि की सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह विभिन्न दलों के कार्यकर्ताओं को व्यवसायी बना रही है।
     इस फंड के कारण राजनीति में वंशवाद व परिवारवाद को भी मजबूती मिल रही है।
सांसद निधि के अधिकतर ठेकेदारगण सांसदों के  कार्यकत्र्ता की भूमिका में आ जाते  हैं।
 जब ठेकेदार ही कार्यकत्र्ता बन गए तो दलों से जुड़े कार्यकत्र्ताओं से राजनीतिक काम लेने की जरूरत ही नहीं रही।काम लेने पर उनमें से कोई बेहतर कार्यकत्र्ता टिकट का दावेदार भी हो सकता है,लेकिन  अपने बाद  आमतौर पर टिकट तो अब अपने वंश या परिजन को दे देना है।  
 वंशवादी नेतागण, जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है,न सिर्फ फंड को जारी रखने के पक्ष में हैं, बल्कि इसकी राशि  बढ़वाते जाना चाहते हैं ताकि अधिक से अधिक ठेकेदार यानी कार्यकत्र्ता उपलब्ध हो सकें ।
  आज जब चुनाव प्रक्रिया जारी है तब लोगों को और बातों के साथ यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सांसद निधि की खामियां चुनावी मुद्दा बनें और उसे समाप्त किए जाने का माहौल बने।
 निःसंदेह राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे सांसद निधि बढ़ाने की नहीं बल्कि उसे खत्म करने की जरूरत पर बल दें।
     @ -दैनिक जागरण 12 अप्रैल 2019@ 


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